मोस्ट वांटेड या आदिवासी नायक? माओवादी नेता माड़वी हिड़मा के अंतिम संस्कार के लिए उमड़े लोग

माड़वी हिड़मा पुलिस के दस्तावेज़ों में मोस्ट वांटेड नक्सली था, लेकिन आम लोगों के लिए हीरो था, जिसने अपने जल-जंगल-जमीन के लिए हथियार उठाया था. ग्रामीण आरोप लगा रहे हैं कि हिड़मा को मुठभेड़ में नहीं, बल्कि हिरासत में लेकर मारा गया है.

नई दिल्ली: बीते 18 नवंबर को आंध्र प्रदेश के अल्लूरी सीतारामराजू ज़िले में पुलिस ने कथित मुठभेड़ में प्रतिबंधित भाकपा (माओवादी) के नेता और मिलिट्री कमांडर माड़वी हिड़मा, उनकी पत्नी मड़कम राजे समेत छह माओवादियों को मार दिया है. हिड़मा पर एक करोड़ और उनकी पत्नी पर 50 लाख का इनाम घोषित था.

वे सुकमा जिले के पुवरती गांव के निवासी थे. विभिन्न मीडिया खबरों के अनुसार, हिड़मा की मौत की खबर से उनका गांव शोक में डूबा हुआ है. उनकी मां और परिजनों के रोते हुए वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए हैं.

खबरों के अनुसार, गुरुवार (20 नवंबर) सुबह 9 बजे उनके गांव में हिड़मा और राजे के शव लाए गए. अगर पुलिस के लिए यह बड़ी सफलता है, तो उनके गांव के लिए शोक का विषय.

मोस्ट वॉन्टेड नक्सली या आदिवासियों का नायक?

यह आदिवासी पुलिस के दस्तावेज़ों में मोस्ट वांटेड नक्सली था, लेकिन आम लोगों के लिए हीरो था, जिसने अपने जल-जंगल-जमीन के लिए हथियार उठाया था.

सोशल मीडिया में वायरल वीडियो में एक छोटी सी झोपड़ी, जो हिड़मा का घर बताया जा रहा है, में उनकी मां माड़वी पोज्जे सिर पकड़कर बिलख-बिलख कर रो रही हैं. उनके साथ और कई महिलाएं बैठकर रो रही हैं. पूरा गांव हिड़मा की मृत्यु का मातम मना रहा है. गांव की महिलाएं उनके शोक में शामिल होने के लिए उनके घर आ रही हैं.

बस्तर जंक्शन यूट्यूब चैनल का पत्रकार गांव के पुरुषों से जब सवाल करता है कि आप लोग कैसे हो, खाना खाया कि नहीं? लोग जवाब देते हैं कि पूरा गांव दुखी है, कैसे खाना खा सकते हैं. पत्रकार आगे सवाल करता है कि हिड़मा दादा के लिए दुखी हो तो एक पुरुष कहता है केवल हिड़मा के लिए ही दुखी नहीं हैं, उनके साथ मारे गए और भी लोग हैं उन सबके लिए भी दुखी हैं.

जब पत्रकार कहता है कि हिड़मा कैसा भी रहा हो लेकिन वह गांव के लिए अच्छा रहा होगा? इस पर एक व्यक्ति कहता है कि वह सिर्फ हमारे गांव के लिए ही नहीं, पूरे बस्तर और देश के लिए अच्छा था. वह आगे कहता है, ‘जब आंध्र से आकर (माओवादी) यहां मरते हैं तो क्या वे उनके गांव के लिए लड़ रहे होते हैं? वैसे ही यहां (बस्तर) के लोग वहां (आंध्र) जाकर मरते हैं. ये सब लोग जनता के लिए लड़कर मर रहे हैं. कोई सिर्फ अपने घर के लिए वहां (माओवादी संगठन में) नहीं जाता.’

एक अन्य युवक पत्रकार को बताता है कि हिड़मा माओवादी पार्टी में शामिल होने के बाद से, यानी दो दशक से भी ज्यादा समय में केवल तीन या चार बार अपने परिवार से मिला था. सिर्फ एक बार वह अपने घर में आया था. आसपास आता था लेकिन कभी गांव में नहीं आता था.

ग्रामीण आरोप लगाते हैं कि हिड़मा को मुठभेड़ में नहीं, बल्कि हिरासत में लेकर मारा गया है.

उस वीडियो में युवक सवाल करता है ‘हिड़मा के साथ काम करने वाले, जो अब डीआरजी में हैं, वे बताते हैं कि हिड़मा के साथ बड़ी संख्या में गुरिल्ला होते हैं, उनको मारना उतना आसान नहीं है, वह जंगल में युद्ध की कला में माहिर है, तो केवल छह लोग कैसे मुठभेड़ में मारे जाते हैं?’
आदिवासी कार्यकर्ता सोनी सोरी का मानना है कि इतिहास हिड़मा को एक बागी के तौर पर नहीं, बल्कि एक ऐसी आवाज़ के तौर पर याद करेगा, जिसने सरकार की ज्यादतियों को चुनौती दी थी.

सोनी सोरी ने द न्यूज़ मिनट से बात करते हुए मुठभेड़ के फर्जी होने का आरोप लगाया और कहा कि उनकी हत्या को बस्तर में राज्य की हिंसा के बड़े उदाहरण के रूप में देखा जाना चाहिए.

सोनी ने कहा कि हिड़मा का हथियार उठाने का फैसला जल, जंगल, ज़मीन के संघर्ष से जुड़ा था. उन्होंने आरोप लगाया कि सालों से इन संसाधनों पर स्थानीय लोगों की सहमति के बिना सरकार और कॉर्पोरेट ने कब्ज़ा कर लिया है. बस्तर के अधिकांश आदिवासी हिड़मा को अपने अधिकारों के लिए लड़ते हुए देखा है.

इधर, ह्यूमन राइट्स एक्टिविस्ट डिग्री प्रसाद चौहान ने कहा कि अगर सिक्योरिटी फोर्स चाहती तो वे हिड़मा, उनकी पत्नी और दूसरे माओवादियों को गिरफ्तार करके कोर्ट में पेश कर सकते थे. उन्होंने कहा, ‘लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. जिस तरह से हिड़मा को मारा गया, वैसे ही अक्सर कई बेगुनाह आदिवासी भी मारे जाते हैं.’

उन्होंने आगे कहा कि माओवादी आंदोलन और उसके हिंसा के इस्तेमाल पर सवाल उठाना सही है, लेकिन सरकार के तरीकों की भी जांच होनी चाहिए. उन्होंने कहा, ‘एक संवैधानिक लोकतंत्र में कोई भी हिड़मा और माओवादी आंदोलन से असहमत हो सकता है, लेकिन यहां सरकार की हिंसक ज्यादतियों पर सवाल उठाने की ज़रूरत है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘केंद्र सरकार की मार्च 2026 तक माओवाद को खत्म करने की डेडलाइन और कई माओवादी नेताओं के सरेंडर के बाद आंदोलन को कमजोर कहा जा सकता है. लेकिन आदिवासियों के अधिकारों का सवाल, जमीन और प्राकृतिक संसाधनों पर उनके मालिकाना हक पर चर्चा अभी भी बनी हुई है.’

इस बीच, खबरें आ रही हैं कि हिड़मा का शव गांव में पहुंचने पर बड़ी संख्या में ग्रामीण इकट्ठे हुए थे. गांव के आसपास बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों को तैनात कर दिया गया. आसपास के इलाके में मोबाइल नेटवर्क अस्थायी तौर पर बंद कर दिया गया. वायरल वीडियो में बड़ी संख्या में महिलाएं शव से लिपटकर रोते हुए दिखाई दे रही थीं.
सुरक्षा बलों की घेराबंदी के बीच आदिवासी परंपरा के अनुसार हिड़मा और उनकी पत्नी का आज दोपहर अंतिम संस्कार कर दिया गया. उनके अंतिम यात्रा के वायरल वीडियो में सैकड़ों की संख्या में लोग नजर आ रहे हैं.

टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक, शव गांव में पहुंचने से पहले बस्तर रेंज के आईजी पी. सुदंरराज ने कहा था कि हिड़मा के बॉडी के साथ ‘बेसिक इंसानियत’ के साथ पेश आया जाएगा, लेकिन ऐसे किसी दिखावे को इज़ाज़त नहीं दिया जाएगा जिससे कि एक वॉन्टेड बागी शहीद बन जाए.

उन्होंने कहा, ‘हम इसे बढ़ा-चढ़ाकर नहीं दिखाना चाहते. यह ‘शहीद’ समारोह जैसा नहीं दिखना चाहिए. आदिवासी रीति-रिवाजों के लिए बड़ी सुविधाओं की ज़रूरत नहीं होती. यह एक कम्युनिटी इवेंट रहेगा और बुनियादी इज्ज़त को बनाए रखा जाएगा. जैसे बस्तर के आदिवासी मरे हुए लोगों का दुख मनाते हैं.’

हिड़मा 1994-95 के बीच माओवादी पार्टी में शामिल हुए थे. वह उस समय लगभग 17 साल के थे, और सातवीं कक्षा तक पढ़ाई की थी. 2007 में दक्षिण बस्तर के उरपलमेट्टा के पास सीआरपीएफ के 24 जवानों को घेरकर मारने की घटना से हिड़मा का नाम पहली बार जोड़ा गया था. इसके बाद दक्षिण बस्तर क्षेत्र (सुकमा जिला) में हुए कई हमलों में हिड़मा का नाम सामने आया. 10 अप्रैल 2010 को ताडिमेट्ला के पास माओवादियों ने घात लगाकर हमला करके 76 जवानों की हत्या की थी, जो भारत के माओवादी आंदोलन के इतिहास में सबसे बड़ी घटना मानी जाती है. इसे भी हिडमा के बटालियन ने अंजाम दिया बताया जाता है. सुरक्षा बलों की जानकारी के मुताबिक कुल 26 हमलों में हिड़मा की भागीदारी थी.

बताया जा रहा है कि हिड़मा माओवादी पार्टी की सेंट्रल कमेटी के सबसे युवा सदस्य थे. उनकी उम्र लगभग पचास के करीब बताई जा रही है. हाल ही में उन्हें दण्यकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी (डीके एसजेडसी) का सचिव बनाने की खबरें सामने आईं थीं. इस प्रकार दंडकारण्य में पिछले 45 सालों से जारी नक्सलवादी या माओवादी आंदोलन में वे सबसे पहले स्थानीय आदिवासी थे जो उस पद पर पहुंचे थे.