सुप्रीम कोर्ट ने एसआईआर प्रक्रिया में आधार कार्ड की भूमिका पर सवाल उठाते हुए पूछा कि क्या कोई विदेशी, जो पहले ही सब्सिडी वाले राशन जैसे कल्याणकारी योजनाओं का लाभ पाने के लिए आधार का इस्तेमाल कर चुका है, उसे मतदाता सूची में ऑटोमैटिक एंट्री पाने के लिए इसका और इस्तेमाल करने की इजाज़त दी जानी चाहिए?

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (26 नवंबर) को स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (एसआईआर) कवायद प्रक्रिया में आधार की भूमिका पर सवाल उठाते हुए पूछा कि क्या कोई विदेशी, जो पहले ही सब्सिडी वाले राशन जैसे कल्याणकारी योजनाओं का लाभ पाने के लिए आधार का इस्तेमाल कर चुका है, उसे मतदाता सूची में ऑटोमैटिक एंट्री पाने के लिए इसका और इस्तेमाल करने की इजाज़त दी जानी चाहिए?
यह सवाल तब पूछा गया जब कोर्ट ने बिहार एसआईआर की सुनवाई के दौरान आधार को ‘12वें दस्तावेज’ के तौर पर शामिल करने का आदेश दिया था.
द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) सूर्यकांत ने वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल (याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश) से पूछा, ‘आधार एक क़ानून के तहत बना दस्तावेज़ है. कोई भी कल्याणकारी योजनाओं के लाभ के लिए इसके उपयोग पर सवाल नहीं उठा सकता. लेकिन मान लीजिए कोई व्यक्ति पड़ोसी देश से भारत आता है, मज़दूर या रिक्शा चालक के रूप में काम करता है, वह अपने बच्चों के लिए सब्सिडी वाला राशन पाने हेतु आधार ले लेता है- यह हमारी संवैधानिक नैतिकता है. पर क्या इसका मतलब है कि सिर्फ इसलिए कि उसके पास आधार है, उसे मतदाता भी बना दिया जाए?’
यह टिप्पणी उसी समय आई, जब सिब्बल ने चुनाव आयोग द्वारा किए गए एसआईआर कवायद की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए अपनी दलीलें शुरू ही की थीं.
सिब्बल ने कहा कि यह स्थिति कुछ सीमावर्ती राज्यों में लागू हो सकती है, लेकिन केरल और बिहार जैसे राज्यों के लिए नहीं.
ज्ञात हो कि बिहार के बाद अब एसआईआर का दूसरा चरण 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में चल रहा है, जिनमें तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल और पुडुचेरी शामिल हैं.
‘आयोग निष्क्रिय नहीं रह सकता’
पीठ में शामिल जस्टिस जॉयमाल्या बागची ने कहा कि चुनाव आयोग के पास उन मतदाता प्रविष्टियों की जांच और सत्यापन करने का अंतर्निहित अधिकार है जिनकी ‘विश्वसनीयता संदिग्ध’ है. गणना फ़ॉर्म इस जांच या सर्वेक्षण का हिस्सा हैं, जो आयोग द्वारा मतदाताओं की प्रामाणिकता सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है. आयोग से एक ‘निष्क्रिय डाकघर’ की तरह काम करने की उम्मीद नहीं की जा सकती.
सिब्बल ने दलील दी, ‘चुनाव आयोग द्वारा उठाया गया कोई भी बाहर करने वाला (exclusionary) कदम संवैधानिक ढांचे के खिलाफ है. मतदाता से गणना फ़ॉर्म भरवाना एक बाहार करने वाला उपाय है. क्या आपको नहीं लगता कि इस देश में लाखों निरक्षर महिलाएं हैं? क्या वे इस प्रक्रिया में मतदाता सूची से बाहर नहीं हो जाएंगी? मतदाता सूची से किसी नाम को हटाना तभी वैध होगा जब वह उचित प्रक्रिया के तहत हो. हमने पूर्ण स्वराज का उत्सव समावेशन, समानता और सार्वभौमिक मताधिकार के लिए मनाया था. स्वतंत्रता के बाद चुनाव आयोग ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.’
सिब्बल ने आरोप लगाया कि एसआईआर अधिसूचना के तहत बूथ लेवल अधिकारियों (बीएलओ) को यह तय करने का अधिकार दे दिया गया है कि कोई व्यक्ति नागरिक है या नहीं.
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि एसआईआर एक तरह का ‘नागरिकता परीक्षण’ है जिसमें सत्यापन का बोझ चुनाव आयोग से हटाकर पहले से पंजीकृत मतदाता पर डाल दिया गया है, जिसे गणना फ़ॉर्म भरने पड़ते हैं.
जस्टिस बागची ने कहा कि दस्तावेज़ों की ‘जांच, परीक्षण और सत्यापन’ करने का चुनाव आयोग का अधिकार जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 21 और संविधान के अनुच्छेद 326 से प्राप्त होता है, जिसमें मतदाता का नागरिक होना अनिवार्य है.
उन्होंने कहा, ‘चुनाव आयोग का कहना है कि कुछ प्रविष्टियां संदिग्ध हैं. इसी भावना से चुनाव आयोग यह प्रयास कर रहा है. हम कैसे कह सकते हैं कि यहां पूरी तरह अधिकार क्षेत्र का अभाव है? किसी संवैधानिक प्राधिकरण को विश्वसनीयता से संबंधित प्रारंभिक जांच करने के लिए हमेशा अधिकार प्राप्त होता है.’