संचार साथी डिलीट! विरोध के बाद सरकार ने ऐप की अनिवार्यता वाला आदेश पलटा

स्मार्टफोन में संचार साथी ऐप को अनिवार्य रूप से प्रीलोड करने के आदेश पर उठी आपत्तियों के बाद सरकार ने ऐप को अनिवार्य करने के आदेश में बदलाव कर दिया है. विपक्षी दलों, डिजिटल अधिकार समूहों और सिविल सोसाइटी संगठनों ने सरकार के पिछले आदेश को निजता और सहमति के अधिकार के ख़िलाफ़ बताया था.

नई दिल्ली: टेलीकॉम कंपनियों, प्राइवेसी और साइबर सिक्योरिटी विशेषज्ञों और जनता के दबाव में केंद्र सरकार ने देश के सभी मोबाइल फोन पर सरकार के बनाए संचार साथी ऐप को इंस्टॉल करने की अनिवार्य की शर्त को वापस लेने का ऐलान कर दिया है.

बुधवार दोपहर ही उनके मंत्रालय द्वारा जारी एक विज्ञप्ति में कहा गया है, ‘संचार साथी की बढ़ती स्वीकार्यता को देखते हुए सरकार ने मोबाइल निर्माताओं के लिए इसके प्री-इंस्टॉलेशन को अनिवार्य नहीं बनाने का फैसला किया है.’

बढ़ती स्वीकार्यता से सरकार का आशय उन 1.4 करोड़ डाउनलोड्स हैं, जो अब तक जनता द्वारा किए जा चुके हैं. हालांकि, साइबर सिक्योरिटी या प्राइवेसी सेक्टर के किसी भी हितधारक ने अनिवार्य इंस्टॉलेशन के निर्देश को नहीं माना है.

इससे पहले ही दिन में केंद्र सरकार ने कहा था कि यदि आवश्यक हुआ तो वह स्मार्टफोन कंपनियों को अपने राज्य-स्वामित्व वाले ऐप ‘संचार साथी’ को अनिवार्य रूप से प्री-लोड करने के आदेश में बदलाव कर सकती है.

दूरसंचार मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बुधवार को संसद में कहा कि सरकार इस निर्देश पर मिलने वाले फीडबैक के आधार पर संशोधन करने के लिए तैयार है. सर्विलांस की आशंकाओं पर प्रतिक्रिया देते हुए सिंधिया ने कहा, ‘न तो जासूसी संभव है और न ही की जाएगी.’

इससे पहले मंगलवार को ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अनिवार्यता को लेकर हुए विरोध के बीच संचार साथी ऐप को वैकल्पिक बताया था.

28 नवंबर को दूरसंचार विभाग ने एक आदेश जारी कर स्मार्टफोन कंपनियों और आयातकों से कहा कि वे नए फोन में ‘संचार साथी’ ऐप पहले से इंस्टॉल करें और पुराने फोन में इसे सॉफ़्टवेयर अपडेट के ज़रिए जोड़ें.

आदेश में यह भी स्पष्ट किया गया कि ऐप के किसी भी फ़ंक्शन को बंद या सीमित नहीं किया जा सकेगा. संचार साथी सरकार का बनाया हुआ साइबर सुरक्षा ऐप है, जिसमें फर्जी कॉल और मैसेज की शिकायत दर्ज करने से लेकर चोरी हुए फोन की रिपोर्ट करने तक की सुविधा है.

यह निर्देश आते ही प्राइवेसी और संभावित निगरानी को लेकर गंभीर सवाल उठने लगे.

विपक्षी दलों से लेकर सिविल सोसाइटी तक कई लोगों ने इसे सार्वजनिक रूप से चुनौती दी. कुछ स्मार्टफोन कंपनियां भी इस आदेश से असहज हैं और सरकार के सामने अपनी चिंताएं औपचारिक रूप से रखने की तैयारी करने लगीं.

सिविल सोसाइटी के कार्यकर्ता इस ऐप को अनिवार्य रूप से फोन में डालने पर गंभीर आपत्तियां जता रहे थे. उनका कहना था कि इसे प्रीलोड करना लोगों की पसंद और सहमति के अधिकार को कमज़ोर करता है. वे यह भी चेतावनी दे रहे थे कि भविष्य में यह ऐप अपने मूल उद्देश्य से आगे बढ़कर नए-नए काम करने लगे, जिसे ‘फ़ंक्शनल क्रीपिंग’ कहा जाता है और यही सबसे बड़ा जोखिम है.