चुनावी तंत्र पर मीडिया मंत्र: मप्र- भाजपा के हाथ से फिसलती सत्ता, कांग्रेस के पास आती नहीं दिख रही

नजरिया… 
 : लेखक :-मनीष द्विवेदी प्रबंध संपादक मंगल भारत राष्ट्रीय समाचार पत्रिका.


देश के हृदय प्रांत मध्यप्रदेश की तासीर ऐसी है कि यहां सियासत का ऊंट इस करवट बैठता है या उस करवट। यहां का मतदाता यूपी, बिहार और महाराष्ट्र की तरह अन्य छोटे या क्षेत्रीय दलों को अधिक भाव नहीं देता है, वो कांग्रेस और भाजपा, इन दो प्रमुख दलों में से ही किसी को चुनता है, किंतु सन् 2000 में पृथक छत्तीसगढ़ बनने के बाद ‘धान का कटोरा’ कांग्रेस के हाथ से जाता रहा और तब से कांग्रेस सत्ता का वनवास भोगने को मजबूर है।
2003 के विधानसभा चुनाव से अब तक कांग्रेस की हालत ‘दुबले और दो आषाढ़’ जैसी है तो पिछले 15 वर्षों से सत्ता पर काबिज भाजपा एक बार फिर सत्तारोहण की जुगत में है। राज्य विधानसभा की कुल 230 सीटों पर चुनाव की बिसात बिछ चुकी है और दोनों ही प्रमुख दल ृसत्तारूढ़ भाजपा और कांग्रेस कमर कसकर मैदान में उतर चुके हैं। तमाम सर्वे और ओपिनियन पोल के इतर हकीकत यह है कि भाजपा को सत्ता खोने का डर है तो कांग्रेस को 15 वर्षों का वनवास खत्म होने की आस, लेकिन क्या यह इतना आसान है।
बेशक, भाजपा कांग्रेस के मुकाबले एक मजबूत और कैडर बेस पार्टी है। उसके पीछे संगठन है, मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानि आरएसएस और उसके आनुषांगिक संगठन हैं तो सामने जो कांग्रेस है वो फांको और क्षत्रपों में विभक्त है। महाकौशल में स्वयंभू कमलनाथ है तो बघेलखंड में अजय सिंह, मध्य भारत और बुंदेलखंड में दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं। कांग्रेस क्षत्रपों के भरोसे ही चुनाव लड़ती आई है और यह उसकी मजबूरी भी है। ऐसा भी कह सकते हैं कि कांग्रेस भाजपा से बाद में भिड़ती है, पहले पार्टी में अपने ही विरोधियों से दो-दो हाथ करती है। ऐसे में हार और जीत दोनों में ही ये क्षत्रप अहम् भूमिका निभाते हैं।
भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती ‘एंटी-इन्कमबेंसी’
भाजपा और खास तौर पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के लिए सबसे बड़ी चुनौती ‘एंटी इन्कमबेंसी’ की है। पिछले डेढ़ दशक के उनके शासनकाल को लेकर समाज के अमूमन सभी वर्गों में जनाक्रोश है। चाहे वो किसान हों या कर्मचारी, व्यापारी हों या महिला वर्ग। राजनीतिक पंडितों की माने तो शिवराज 2013 में किए गए वादे भी पूरे करने में नाकाम रहे हैं। किसानों की आत्महत्या आज भी बदस्तूर जारी है, भ्रष्टाचार और नौकरशाहों की मनमानी सातवें आसमान पर हैं, भ्रष्टाचार की कहानियां आम हैं, पार्टी में नेतृत्व को लेकर गुटबाजी का आंतरिक लावा खदबदा रहा है, उस पर व्यापम घोटाले का भूत कब और कैसे सिर चढक़र बोलने लगेगा, कहा नहीं जा सकता। यह वो घोटाला है जिसकी बलि सौ से अधिक लोग चढ़ चुके हैं। इन सबके चलते शिवराज सरकार के खिलाफ जनता में भारी आक्रोश है, जिसका अंदाजा पार्टी के शीर्ष नेतृत्व और संघ को हो चुका है और उसने श्डेमेज कंट्रोलश् हाथ में लिया है। सुनते हैं, संघ ने मौजूदा 70-80 विधायकों के टिकट काटने की सलाह दी है। यदि ऐसा होता है तो भाजपा को विद्यमान विधायकों और उनके समर्थकों का असंतोष, विद्रोह का सामना करना पड़ सकता है। एक गुप्तचर अधिकारी की मानें तो दो-तीन माह पूर्व जनाक्रोश शिवराज के खिलाफ नहीं था पर जनआशीर्वाद यात्रा के दौरान जो विरोध देखने को मिला है, उसे शीर्ष नेतृत्व ने गंभीरता से लिया है। यही वजह है कि पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का एमपी पर फोकस है और वे लगातार रोड शो और सभाएं ले रहे हैं। पार्टी में कैलाश विजयवर्गीय, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, थावरचंद गहलोत जैसे कद्दावर नेता भी शक्ति केंद्र बनकर उभरे हैं, जो शिवराज की पेशानी पर सलवटें ला सकते हैं।
उधर, क्षत्रपों में बंटी कांग्रेस एकजुट होकर मैदानी मोर्चा संभालती है तो वे निश्चित ही सत्तारोहण में कामयाब हो सकती है। पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए अेहद जटिल भी था, इसलिए उन्होंने किसी एक को आगे नहीं किया। ज्योतिरादित्य सिंधिया ग्वालियर, ृचंबल, बुंदेलखंड में दिग्विजय सिंह मध्यभारत में, कमलनाथ महाकौशल में और नेता-प्रतिपक्ष अजय सिंह बघेलखंड में अधिकाधिक सीटें जिताने में सफल रहे तो कांग्रेस निश्चित ही अपना पुराना किला फतह कर सकेगी। संभावना है कि कांग्रेस अपने मौजूदा 57 विधायकों में से अधिकांश पर भरोसा जताएगी और दस-बारह विधायकों के टिकट ही काटेगी, यह उसके लिए फायदेमंद भी होगा।
तीसरी शक्ति की संभावना क्षीण
मप्र में तीसरी शक्ति का कभी बोलबाला या जोर नहीं रहा। इस चुनाव में भी कांग्रेस के मायावती की बहुजन समाज पार्टी, अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और गोंडवाणा गणतंत्र पार्टी के साथ गठबंधन की चर्चा जोरों पर थी, पर गठबंधन न होने का भाजपा को कितना फायदा और कांग्रेस को कितना नुकसान होगा, यह तो वोटर ही तय करेंगे पर ये ये तमाम छोटे दल दहाई का आंकड़ा छू लें तो बड़ी बात होगी। इन दलों के अपने कुछ बेल्ट हैं और ये वहीं निर्णायक भूमिका में हैं। कुल जमा 5.7 प्रतिशत वोट इनका आधार है। भाजपा को इस बार कर्मचारी, किसान आदि वर्गों के असंतोष का सामना तो करना ही पड़ेगा पर उसके लिए सबसे बड़ा गड्ढा सपाक्स पैदा करने वाला है। यदि सपाक्स अपने मंसूबे में सफल रहा तो भाजपा हो सकता है, सत्ता से खेत रहे।

इब्तिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या, आगे-आगे देखिए होता है क्या…
नजरिया…
लेखक :-बलराम पांडे सलाहकार संपादक मंगल भारत राष्ट्रीय समाचार पत्रिका.


एमपी के विधानसभा चुनावों में शायद ये पहला चुनाव होगा, जिसमें पूरे सूबे पर सूक्ष्म नजऱ रखने वाला कोई भी राजनैतिक विश्लेषक ये कहने की स्थिति में नहीं है कि असल में होगा क्या… कुछ सर्वे भाजपा की सरकार चौथी बार बनते हुए दिखा रहे हैं, तो कुछ कांग्रेस की सत्ता में वापसी दिखा रहे हैं। जो समझदार, जिम्मेदार राजनीति की समझ रखने वाले लोग हैं, वो कह रहे हैं कि सब कुछ स्पष्ट होगा दोनों प्रमुख दलों यानी भाजपा-कांग्रेस के टिकट वितरण के बाद… संभवत: यही एकमात्र मुफीद लाइन है मौजूदा सियासी हालातों पर… इस चुनाव में शुरूआती बढ़त सिर्फ इसी आधार पर स्पष्ट होगी कि प्रत्याशी कौन है…
आम तौर पर 15 साल की सरकार के खिलाफ एंटी-इनकम्बेंसी बहुत अधिक होती है… इसे और ज्यादा सरल शब्दों में कहें, तो जनता एक ही चेहरा देख-देखकर बोर हो जाती है। ये सच है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का चेहरा अभी तक ऐसा नहीं उभर कर सामने आया कि उसे देखकर हाहाकार का बोध हो। याद कीजिये दिग्विजय सिंह के आखिरी कार्यकाल को, जिसमें पानी, बिजली और सडक़ के कारण जनता में एक तरह का हाहाकार था और पब्लिक ने उन्हें हटाने के लिए उमा भारती को भारी समर्थन से जिताया। 15 साल बाद भी शिवराज भले ही हाहाकारी नेता के तौर पर स्थापित न हुए हैं लेकिन जनता में विरोध उनकी पार्टी के कई नेताओं को लेकर भी बहुत है। इस बार अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग तरह की गैर-राजनीतिक ताकतें शिवराज को आँखें दिखा रही हैं। कहीं सवर्ण नाराज हैं, तो कहीं जनजाति समुदाय के लोग, तो कहीं साधू-संत और किसान भौहें चढ़ाए हुए है। कहीं बेरोजगारी की मार झेलता युवा गुस्से से आगबबूला है… हालांकि, कांग्रेस इसे लेकर बेशक गद्गद् हो लेकिन ये असंतुष्ट उसके पाले में भी जाने को तैयार नहीं दिख रहे। कांग्रेस इनकी तरफ प्रेम का हाथ बढ़ाती है, तो वे अब तक तो उस तरफ देखना भी पसंद नहीं कर रहे हैं। यही दिलचस्प है कि ये असंतोषी वर्ग भाजपा की बांह तो मरोड़ रहा है लेकिन कांग्रेस का भी हाथ झटक रहा है। यही राजनीति की समझ रखने वालों को अनिर्णय के से हालात में डाल रहा है।
अब जरा बात करें दोनों पार्टियों के महानायकों की, तो उनकी रैलियों में भीड़ आ जरूर रही है लेकिन उनके भाषणों से अभिभूत नहीं है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह शुरुआत बेशक शिवराज और मोदी की सराहना से करते हैं और अपनी बात के समर्थन में कुछ तथ्य भी गिनाते हैं लेकिन अगले ही पल वे अपने पसंदीदा विषय देश में घुसपैठ और शरणार्थियों पर चले जाते हैं। इसी तरह कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी शुरुआत बेशक व्यापमं और शिवराज की घोषणाओं के अम्बार से करते हैं लेकिन फिर वे रफाल विमान सौदा और चाइना के साथ मोदी जी की गलबहियां पर चले जाते हैं। वो जिस भी जिले में जाते हैं वहां का मेड इन मोबाइल बनवा देते हैं। ये ठीक है कि दोनों राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं और उसी स्तर के मुद्दों को उठाएंगे भी लेकिन जनाब देखिए तो सही कि उन मुद्दों से जनता का सरोकार कितना है। चित्रकूट के आदमी को मेड इन चित्रकूट मोबाइल नहीं चाहिए, ग्वालियर के व्यक्ति को देश में घुस रहे शरणार्थियों से उतना सरोकार नहीं है, जितना देश के सीमावर्ती जिलों के लोगों को है।
दरअसल, ऐसा लगता है कि अभी दोनों ही दल कन्फ्यूज़ हैं कि कौन से मुद्दे का इंजेक्शन जनता को लगाया जाए ताकि उसकी ख़ुमारी वोटिंग के दिन तक रहे। यही वजह है कि कभी हिन्दुत्व, कभी सॉफ्ट हिन्दुत्व उभरता रहता है। वैसे भी चुनाव कभी भी विकास के नाम पर जीते नहीं जाते। दावे और प्रतिदावे कितने भी किए जाएं कि अमुक नेता विकास पुरुष है लेकिन आखिर में वही हथियार काम आता है, जो लंबे अरसे से चुनाव जिता रहा है… यानी जातिगत समीकरण, लोकल लेवल का मैनेजमेंट, वोटिंग के एक दिन पहले के प्रलोभन और अगड़े-पिछड़े का गणित ही देश में चुनावी वैतरणी पार लगाता है।
कांग्रेस इस बार करो या मरो के हालात में हैं, यदि इस बार नहीं जीती तो देश में उनका नामलेवा भी कोई नहीं बचेगा। यही कारण है कि वे इस बार कुछ हद तक फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं लेकिन एमपी में हैवीवेट नेताओं की ये पार्टी अपनी कटबाज़ी की आदत छोड़ेगी, इसमें संशय है। वैसे इस बार सिर फुटव्वल की खबरें दोनों ही दलों से आ रही हैं। सवर्ण आन्दोलन बहुत तेजी से अन्ना आन्दोलन की शक्ल में बढ़ा था लेकिन राजनैतिक दल बनने के साथ ही इस गुब्बारे की हवा निकल गई। अब वो वैसी बारगैनिंग कैपेसिटी में नहीं है जैसा पॉलिटिकल पार्टी बनने के पहले था। आदिवासी युवाओं का संगठन जयस एक खास इलाके में ही सिमटा हुआ है… लिहाज़ा, अभी तक तो कोई भी अनुमान या पूर्वानुमान लगाना बहुत जल्दबाजी होगा। ऊंट किसी भी पटरी बैठ सकता है, इतना जरूर तय है कि टिकिट वितरण के बाद बहुत हद तक तस्वीर साफ हो जायेगी और एमपी की सियासत को समझने वाला हर औसत समझ का व्यक्ति ये बता पाने में सक्षम हो जाएगा कि एमपी की सर्वोच्च कुर्सी की अगली दावेदार कौन सी पार्टी होगी तब तक इंतजार कीजिए।