चुनावी तंत्र पर मीडिया मंत्र: मप्र में जनता चाहती है बदलाव, कांग्रेस को भुनाना आना चाहिए

लेखक:-मनीष द्विवेदी प्रबंध संपादक मंगल भारत का राष्ट्रीय समाचार पत्रिका.

मध्यप्रदेश में अगली सरकार किसकी? कांग्रेस गुटों में बंटी है और अन्य दल बसपा, सपाक्स, सपा आदि वोट काटने का काम करेंगे। इससे कांग्रेस की अपेक्षा भाजपा को फायदा मिलेगा। इन कारणों से पुन: भाजपा या वोटों का समीकरण गड़बड़ाया तो जोड़तोड़ वाली पार्टी की सरकार बनेगी….
भाजपा की सरकार तो सीएम कौन? शिवराज तो नहीं। आखिर शिवराज क्यों नहीं? सीधा-सा जवाब पंद्रह सालों में किया बहुत कुछ लेकिन शिवराज के मंत्री निकम्मे और उनसे अधिक विधायकों का विरोध जो भाजपा के खिलाफ गुस्से का कारण बन चुका है।
– शिवराज के मंत्रियों की मजबूरी यह रही कि शिवराज की शह के कारण उनके जिलों में अधिकारियों ने उनकी नहीं सुनी। ऐसे में मंत्री-विधायकों ने पहली फुरसत में वो काम करवाए जो उनके लाभ से जुड़े थे।
– क्षेत्र के मतदाताओं में इन्हीं कारणों से मंत्रियों-विधायकों का विरोध हो रहा है। पंचायत से लेकर शहर और भोपाल तक अधिकारी जैसा चाहते हैं, वैसा ही होता है। इसी वजह से प्रभारी मंत्री से लेकर संगठन के पदाधिकारी तक सब नाम के हैं, काम का कोई नहीं। चुनिंदा अधिकारियों का सीएम के आंख, कान, नाक बन जाने से लोगों में यह विश्वास मजबूत हुआ कि अधिकारी ही सरकार और सीएम को चला रहे हैं।
– भाजपा के लोगों ने ही बीते वर्षों में इस चर्चा को हवा दी कि जो काम सीएम नहीं करे वो सारे काम कुछ खास अधिकारियों से जान-पहचान हो तो भाभीजी के माध्यम से करवाए जा सकते हैं।
– यही सारे कारण है कि प्रदेश का आमजन सरकार या कहें भाजपा से अब उतना खुश नहीं है। कांग्रेस तो पिछले कुछ महीनों में एक्टिव हुई है लेकिन आम मतदाता उससे पहले से एक्टिव मूड में है। शिवराज का सख्त मिजाज ना होना इन पंद्रह सालों में उनकी सबसे बड़ी खामी बन चुका है।
– वे ऐसे सीएम के रूप में पहचान बना चुके हैं जो दहाड़ते तो शेर की तरह है लेकिन प्रशासनिक अमला डरता नहीं बल्कि और हट्टोल होता जाता है। सीधे शब्दों में कहें तो प्रदेश का मतदाता एक ही एक चेहरा देखकर उकता गया है।
– इस दौरान केंद्र सरकार नें एट्रोसिटी एक्ट को लेकर जो पल्टी मारी और मप्र से ‘माई के लाल’ वाला वीडियो वायरल हुआ उसने भाजपा के खिलाफ नापसंदगी वाले माहौल को और मजबूत किया है। इंदौर जिले में संपन्न हुई सीएम की जनआशीर्वाद यात्रा में महू में बनिया, ब्राह्मण, राजपूत समाज ने दूरी बनाए रखी। इंदौर के विभिन्न विधानसभा क्षेत्रों में सभी जगह अभूतपूर्व भीड़ जैसे दृश्य नहीं थे। अमित शाह के बाद भीड़ के मामले में यह दूसरा झटका है।
– भाजपा संगठन को समझ आ चुका है कि शिवराज के भरोसे मध्य प्रदेश में चुनाव नहीं जीता जा सकता इसलिए संगठन अपने रणनीतिकारों को झोंकता जा रहा है।
– भाजपा ने जितने आंतरिक सर्वे कराए हैं उससे यही निचोड़ निकल रहा है कि बड़े पैमाने पर नए चेहरों को मैदान में नहीं उतारा गया तो कांग्रेस का सत्ता में आने का सपना पूरा हो सकता है।
– फिलहाल मप्र में कोई चुनावी लहर या किसी एक दल के पक्ष में नहीं बल्कि फिफ्टी-फिफ्टी है। अभी टिकट वितरण भी नहीं हुआ है। पर जिस तरह सपाक्स, बसपा, गोंगपा, सपा आदि दल भी सक्रिय हैं तो 25-30 सीटों से ही हार-जीत तय होना है, इसमें भी मालवा क्षेत्र की भूमिका महत्वपूर्ण रहेगी।
– 15 साल से भाजपा की सरकार के चलते असंतोष एक मुद्दा जरूर है लेकिन चार राज्यों में मोदी फेक्टर कितना काम करेगा यह देखना जरूरी है। जीएसटी, नोटबंदी के असर से प्रभावित व्यापारी वर्ग का रुख किधर रहता है यह तो महत्वपूर्ण है ही क्षेत्रीय दलों का जहां-जहां प्रभाव है वहां उनके प्रत्याशी जीत भले ही दर्ज ना करा सकें लेकिन वोट काटने जितनी ताकत तो रखते हैं। पंद्रह सालों से भाजपा सत्ता में होने के बाद भी इस बार सरकार के खिलाफ असंतोष है लेकिन इतना होने के बाद भी यदि कांग्रेस सरकार नहीं बना पाती है तो उसके अस्तित्व पर भी प्रश्न लग जाएगा।
मालवा का गणित
– मालवा-निमाड़ भाजपा का गढ़ है, जहां कुल 66 सीटें हैं।
– 2008 के चुनाव में इन 66 में से 40 सीटें भाजपा ने जीती थी और 25 कांग्रेस ने। एक पर निर्दलीय था।
– वहीं 2013 में भाजपा की बढ़त 56 पर पहुंच गई। भोपाल और आसपास की 36 में से 29 सीटों पर कांग्रेस हार गई।
– 2013 में इंदौर की नौ में से आठ सीटों पर भाजपा ने कब्जा जमाया था। राऊ में कांग्रेस जीती।
– धार जिले की सरदारपुर, मनावर, धरमपुरी, धार और बदनावर सीटों पर भाजपा जीती थी। कांग्रेस को सिर्फ कुक्षी में जीत मिली थी।
इसलिए कांग्रेस के आसार
सिर्फ मालवा-निमाड़ को फोकस कर के देखें तो 2013 में 66 में से भाजपा 56 सीटों पर जीती थी। इस बार 56 सीटें फिर मिल जाए यह असंभव लगता है। कांग्रेस को इस क्षेत्र में 10-15 सीटों का इजाफा हो सकता है। यह मिजाज दर्शाता है कि प्रदेश के अन्य संभागों में कांग्रेस की सीटें बढ़ सकती हैं। ऐसे में 116 सीटें नहीं भी मिली तो वह अन्य क्षेत्रीय दलों पर जाल फेंक सकती है। यह इतना आसान भी नहीं होगा जो भाजपा गोवा में अपनी सरकार बचाने के लिए कांग्रेस के दो विधायकों को तोड़ सकती है उसके लिए कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों में मार-काट मचाना मुश्किल नहीं रहेगा क्योंकि मोदी-शाह के लिए 2019 के लोकसभा चुनाव में अपनी साख बचाए रखना जरूरी है। उस चुनाव में भाजपा के लिए जोड़-तोड़ से सरकार बनाने की मजबूरी सामने आई तो मोदी के स्थान पर सर्वमान्य चेहरे के रूप में नितिन गडकरी को सामने लाया जा सकता है।
कांग्रेस का टेंडर कमलनाथ के नाम
मप्र में कांग्रेस गुटबाजी के साथ फाकाकशी के दौर से भी गुजर रही है ऐसे में टेंडर कमलनाथ के नाम सोच-समझ के खुला है। अभी तीन चेहरे ही चर्चा में हैं कमलनाथ, ज्योतिरादित्य और दिग्विजय सिंह। जमीनी नेता के रूप में वजन तय करना हो तो एक पलड़े में नाथ, सिंधिया और दूसरे में दिग्गी को बैठा दें तब भी राजा वजनदार साबित होंगे। नाथ की अपेक्षा सिंधिया की मास अपील अधिक है। यदि उन्हें सीएम फेस घोषित नहीं किया तो यह कांग्रेस की नीति है। अभी सारे घोड़ों और उनके समर्थकों को दौड़ाते रहो, जब नतीजे आएंगे और किस्मत से सरकार बनाने जैसी पोजिशन हो गई तब नए नियम लागू कर देंगे। देखा जाए तो कमलनाथ के लिए यह चुनाव जीवन-मरण का प्रश्न है, सिंधिया लंबी रेस के घोड़े हैं और जेब में हाथ डालते नहीं।
क्षेत्रीय दल न खाएंगे, न खाने देंगे
क्षेत्रीय दलों में बसपा ने दिग्गी राजा के माथे ठीकरा फोडक़र स्वतंत्र रूप से चुनाव लडऩे का निर्णय लेकर एक तरह से यूपी के अन्यान्य दबाव के चलते भाजपा के आगे समर्पण ही किया है। बहनजी की निगाहें लोकसभा चुनाव में शुभ लाभ पर लगी है। करणी सेना का एट्रोसिटी एक्ट वाली गुस्सा इतना बढ़ा नहीं कि वह ‘पद्मावती’ के वक्त मिले सरकारी सहयोग को याद ना रखे। भाजपा भी आग ठंडी करने के नुस्खे तलाश ही रही है।

जीते कांग्रेस या भाजपा, हारेगा मध्य प्रदेश…
नजरिया…
लेखक बलराम पांडे सलाहकार संपादक मंगल भारत राष्ट्रीय समाचार पत्रिका.

पिछले 15 सालों की राजनीतिक स्थिरता के बावजूद मध्यप्रदेश की प्रति व्यक्ति आय आज भी छत्तीसगढ़, उड़ीसा और राजस्थान जैसे राज्यों से भी कम है।
आज भी मध्य प्रदेश में एक भी अंतरराष्ट्रीय स्तर का अस्पताल नहीं है जहां बड़े लोग अपना इलाज करवाते हो। एक भी ऐसा उच्च शिक्षा का संस्थान नहीं है जहां बाहर के राज्यों के लोग अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए सिफारिश करते हैं। एक भी ऐसी सडक़ नहीं है जिसे ‘एक्सप्रेस वे’ कहा जाता है
जिस प्रदेश के सरकारी स्कूलों में 7वीं कक्षा के बच्चे ठीक से वाक्य लिखना ना जानते हो, जो ठीक से जोड़-घटाना न जानते हो …उस प्रदेश के हालात के लिए यदि मुख्यमंत्री जिम्मेदार नहीं है तो कौन है।
– आज भी मध्यप्रदेश को देश के मानचित्र पर एक पिछड़े राज्य के रूप में भी जाना जातासाल है। जिस तरह से स्वास्थ्य और शिक्षा के मामले में सरकार ने कुछ नहीं किया उसका नतीजा आने वाली पुश्तों को ही भुगतना पड़ेगा।
– मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने भाजपा के लिए चुनाव भले ही जितवाए हैं, खुद मुख्यमंत्री बने रहने का कीर्तिमान जरूर बनाया हो, लेकिन उन्होंने मप्र के भविष्य की कीमत पर यह सब किया है।
– भाजपा कुछ भी कहे कि अब मध्य प्रदेश बीमारू राज्य नहीं है… यहां समृद्धि और संपन्नता की बयार बह रही है। लेकिन सच बात तो यह है कि आज न तो किसान खुश है, न ही पढ़ा-लिखा युवा।
– शिवराज सिंह ने कृषि और सिंचाई के मामले में जरूर मप्र में बहुत अच्छा काम किया है लेकिन कृषि की यह उन्नति बाकी क्षेत्रों में कुछ करामात नहीं कर पाई। आज भी किसान अच्छे भाव पाने के लिए रो रहा है और किसानी से जुड़ा हर वर्ग परेशान है।
– सवाल यह है कि 15 साल की राजनीतिक स्थिरता का उपयोग शिवराज सिंह ने अगले चुनाव जीतने के लिए ही किया या प्रदेश में कुछ ऐसा करने के लिए की, जो आने वाली पीढिय़ां याद रखें।
– लगता है कि शिवराज सिंह केवल चुनाव जीतने की मशीन के अलावा अपने आप को कभी भी एक ऐसे मुख्यमंत्री के रूप में स्थापित करना ही नहीं चाहते थे जो भविष्य का मध्यप्रदेश गढ़ सके।
– यह चुनाव आने वाले मध्यप्रदेश की तस्वीर बनाने वाले चुनाव हो सकते हैं यदि कांग्रेस के नेता कुछ वैकल्पिक तस्वीर प्रस्तुत करें।
– लेकिन दुर्भाग्य है कि विपक्षी कांग्रेस के पास आज तक दिखाने के लिए न तो कोई सपने हैं और न ही प्रदेश के विकास का रोडमैप।
– प्रदेश के लोग अभिशप्त हैं ऐसे नेताओं को चुनने के लिए, ऐसी सरकारों को चुनने के लिए जो केवल अगले चुनावों की चिंता करती है मप्र की नहीं..
– इसीलिए मैं कह रहा हूं कि चुनाव कोई भी जीते फिर से हारेगा मध्यप्रदेश..!