चुनावी तंत्र पर मीडिया मंत्र: असल चुनौती तो प्रत्याशी चयन है, इससे निपटना दोनों दलों के लिए आसान नहीं

मध्यप्रदेश की सियासत एक महीने तूफानी दौर में रहने वाली है। विधानसभा का हर चुनाव प्रमुख दलों के लिए करो या मरो जैसा संघर्ष लेकर आता है लेकिन इस बार कांग्रेस के सामने प्रदेश की सत्ता से 15 साल बाहर रहने का वनवास खत्म करने की ज्यादा बेचैनी है तो सत्ताधारी दल भाजपा में चौका लगाने की चुनौती के अलावा अगले ही साल लोकसभा चुनाव में मप्र से 2014 की ही तरह भरपूर सांसद भेजने की भी चुनौती है। कांग्रेस और भाजपा में बुनियादी फर्क संगठन के स्तर पर ही है और वह नेताओं की एक-दूसरे के दल में आवाजाही के बावजूद बरकरार है। यह फर्क है पार्टी के ढांचे का। कांग्रेस मास-बेस पार्टी है और भाजपा कैडर-बेस पार्टी। भाजपा संगठन आरएसएस यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खाद, बीज और पानी से हरियाता रहता है तो कांग्रेस में प्रदेश के नेतृत्व की शक्ति राष्ट्रीय स्तर पर लगभग स्थाई बने हुए हाईकमान की गुड बुक में आने या दरकिनार किए जाने पर उठती-गिरती रहती है। भाजपा अपने संगठन और कार्यकर्ताओं को 365 दिन सक्रिय बनाए रखती है और कांग्रेस का कार्यकर्ता चुनाव काल में अपनी पूरी ताकत से मैदान में दिखने लगता है। कांग्रेस में लगभग स्थाई गुटबाजी, खेमे और कबीले हमेशा रहे हैं इसके बावजूद उसने 25 साल पहले भाजपा को ढाई साल की सत्ता गंवाने के बाद फिर सिंहासन तक नहीं पहुंचने दिया था। इतना ही नहीं 1993 के चुनाव में भाजपा को मात देने के बाद 1998 मेें भाजपा को एक बार फिर सत्ता से दूर रखकर अपनी सत्ता बनाए रखी थी। 2003 मेंं हालात बदले और उमा भारती के नेतृत्व में मिस्टर बंटाढार के नारे के साथ कांग्रेस को सत्ता से हटाकर वनवास में भेज दिया था। भाजपा में ढाई साल में ही तीन मुुख्यमंत्री हो गए। हालांकि, इसके बाद शिवराज सिंह चौहान लगातार दो चुनाव जीतकर 12 साल से मुख्यमंत्री पद पर बरकरार हैं और मौजूदा चुनाव यानी भाजपा के मिशन 2018 के नायक भी वही हैं।
दूसरी तरफ, 1993 और 1998 मेंं भाजपा को सत्ता से दूर रखने में कामयाब कांग्रेस के नायक दिग्विजय सिंह अपने स्व-घोषित 10 साल के चुनाव न लडऩे के संन्यास से वापसी के पांच साल बाद भी एक तरह से कांग्रेस में नैपथ्य में हैं। कमलनाथ को प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने और ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव अभियान समिति की कमान देने के बाद सबसे कठिन काम गुटों में समन्वय का काम दिग्विजय को दिया गया लेकिन वे अप्रसन्न बताए जाते हैं। उनका एक वायरल वीडियो इसकी तस्दीक कर रहा है, जिसमें वे यह कहते हुए दिखाए गए हैं कि मैं बोलता हूं तो पार्टी के वोट कट जाते हैं। इसे कांग्रेस के प्रवक्ता-गण उनका परिहास बता रहे हैं लेकिन ऐसा लगता है कि वे पार्टी में अपनी हैसियत कम आंके जाने से मायूस हैं। प्रेक्षक यह भी कह रहे हैं कि यह दिग्विजय की टिकट वितरण में अपने समर्थकों को ज्यादा मौके दिलवा पाने की मंशा से उठाया दांव हो सकता है। यह सच है कि दिग्विजय ही ऐसे नेता हैं कांग्रेस में जिनका पूरे प्रदेशभर में कांग्रेस संगठन में अब भी असर है और उनका गुट ही सबसे बड़ा कहा जा सकता है। उन्होंने पहले प्रदेश अध्यक्ष रहते और इसके बाद 10 साल बतौर मुख्यमंत्री न केवल अपना गुट खड़ा कर लिया था बल्कि बाकी सभी गुटों को सिकुडऩे पर मजबूर कर दिया था। संसदीय चुनाव में सदा विजेता रहे कमलनाथ को कमान मिलने के बाद कांग्रेस संगठन और प्रबंधन में आमूल-चूल परिवर्तन आया है और टिकट वितरण के सिस्टम में भी प्रभावी परिवर्तन के आसार दिख रहे हैं। कांग्रेस में भाजपा के चेहरे शिवराज सिंह चौहान की तरह मुख्यमंत्री पद के लिए कोई चेहरा घोषित नहीं है, इसका कांग्रेस को फायदा ही हो सकता है, वह इसीलिए कि मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने से कबीलों में बंटी कांग्रेस में एकता के प्रयास सफल नहीं हो सकते थे।
राष्ट्रीय और प्रदेश अध्यक्षों की परीक्षा: यह चुनाव भले प्रदेश का हो लेकिन इसमें प्रतिष्ठा दोनों ही प्रमुख दलों भाजपा और कांग्रेस में राष्ट्रीय अध्यक्षों की भी दांव पर लगी है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अध्यक्ष बनने के बाद उत्तर प्रदेश में तूफानी फतह और गुजरात को बचाए रखने की परीक्षाओं में खरे साबित हो चुके हैं। मप्र समेत पांच राज्यों के चुनाव 2019 के लोकसभा चुनाव के लिहाज से उनकी पूर्व परीक्षा सरीखे ही हैं। कर्नाटक में शाह कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने में तो सफल हो गए लेकिन भाजपा सत्ता से दूर ही रह गई, इतना ही नहीं कांग्रेस जद-एस से चुनाव उपरांत गठजोड़ कर प्रकारांतर से सत्ता में बरकरार रहने में सफल रही। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पार्टी के उपाध्यक्ष और स्टार कैम्पेनर बनने के बाद बिहार से उत्तर प्रदेश तक और फिर गुजरात तक अपना करिश्मा फतह के रूप में नहीं दिखा पाए और कर्नाटक में भी कांग्रेस को अपने विरोधी दल जद-एस से हाथ मिलाना पड़ा। अध्यक्ष बनने के बाद मप्र समेत पांच राज्यों के चुनाव राहुल के लिए असल परीक्षा हैं। यही वजह है कि राहुल और शाह दोनों ही मप्र के लगातार फेरे लगा रहे हैं। शाह ने तो मप्र में इंदौर में वार रूम की कमान संभालने की भी तैयारी कर ली है। उन्होंने मप्र के नेताओं के भरोसे न बैठकर अपनी राष्ट्रीय टीम को मप्र के मैदान में उतार दिया है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ के लिए भी यह चुनाव परीक्षा की घड़ी है क्योंकि वे लगातार छिंदवाड़ा से लोकसभा चुनाव भले जीतते रहे हों, प्रदेश स्तर पर नेतृत्व का मौका और चुनौती पहली दफा उनको मिली है। उन्हें इस भूमिका में अपेक्षाकृत कम वक्त मिल पाया है, इसलिए उनके सामने चुनौती कम वक्त में ज्यादा कर दिखाने की है। दूसरी तरफ भाजपा के सांसद राकेश सिंह को प्रदेश अध्यक्ष पद भी ऐन चुनाव के वक्त ही मिला है। वे संगठन में प्रदेश स्तर पर पहले पदों पर रहे हैं और संगठन की बारीकियों को समझते हैं, इसलिए उन्हें उतनी चुनौती का सामना शायद न करना पड़े।
असल दारोमदार प्रत्याशी चयन पर…: कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रत्याशी चयन के लिए फार्मूला तो बना दिया है कि वर्तमान विधायकों के अलावा सिंगल नाम वाले दावेदारों और बीते चुनाव में तीन हजार से कम वोट से हारे दावेदारों को प्रत्याशी बनाया जाएगा। इस फार्मूले से 80 ही नाम तय हो पा रहे हैं, बाकी सीटों पर कमलनाथ, सिंधिया, अजय सिंह और दिग्विजय सिंह समर्थकों को किस आधार पर संतुष्ट किया जाएगा? यह फार्मूला शायद ही तय और आधिकारिक तौर पर घोषित हो पाए। पार्टी के वनवास के खात्मे का फार्मूला इसी पर निर्भर करेगा। दूसरी तरफ भाजपा की 15 साल की सरकार और उसके कामकाज का पार्टी और मुख्यमंत्री कितने भी प्रभावी तरीके से प्रचार करें लेकिन एंटी-इनकम्बेंसी फेक्टर से कोई भी दल या सरकार इनकार नहीं कर सकती। इस एक फैक्टर से निपटने के लिए टिकट काटना और प्रत्याशी चयन सबसे कठिन काम होगा। पार्टी संगठन, सर्वे और मुख्यमंत्री स्तर की रिपोर्ट के आधार पर प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया अपनाएगी। इसमें रायशुमारी की वक्त काटने वाली प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी है। न केवल भाजपा बल्कि कांग्रेस को भी एससी एक्ट संशोधन, आरक्षण की खिलाफत से उपजे असंतोष का सामना चुनाव में करना पड़ सकता है। इससे राहत के लिए प्रत्याशी चयन एक उपाय हो सकता है। कांग्रेस को बसपा से गठबंधन नहीं हो पाने के कारण भी प्रत्याशी चयन में अतिरिक्त सर्तकता बरतनी पड़ेगी। इसके बावजूूद प्रत्याशी चयन के बाद दलों में भगदड़ और दलबदल के नजारे बीते चुनावों की तरह इस बार भी देखने को मिल सकते हैं। छत्तीसगढ़ मेंं भाजपा की पहली सूची आने के बाद अब माना जा रहा है कि मप्र में भी भाजपा अगले हफ्ते अपनी पहली सूची घोषित कर सकती हैं। ऐसी ही उम्मीद कांग्रेस से भी की जा रही है। कांटे वाली सीटों की उम्मीदवार सूची दीपावली बाद ही ऐन वक्त पर जारी करने की रणनीति भी दोनों ही प्रमुख दल अपना सकते हैं। असल घमासान प्रत्याशी चयन के बाद ही शुरू होगा। देखना यह है कि बगावत के किस दल में कितनी होगी और क्या गुल खिलाएगी?

ठहरी हवा है; ज्यादा दल भाजपा के पक्ष में’
नजरिया… 

राजनीति का बैरोमीटर बता रहा है कि इस बार हवा ठहरी हुई है। आम तौर पर दल-बदल से पूर्वानुमान लग जाता था कि इस बार किसका जोर है। बिटवीन द लाइन वाले नेता चुनाव के समय पालों की अदल-बदल करते थे। इस बार यह सबकुछ थमा-सा है। छिट-पुट जो हो भी रहा है वह दोनों ओर बराबर है। मैंने चुनावी राजनीति के एक अनुभवी मित्र से पूछा तो उन्होंने मजाकिया लहजे में जवाब दिया- जरा पता तो करिए रामविलास पासवान का क्या रुख है, वो एक साल पहले ही भाँप लेते हैं कि देश में किस पार्टी की सरकार बनने वाली है। यद्यपि वे केंद्र की राजनीति में हैं फिर भी उनके रुख से संकेत तो मिल ही जाता है। तो इस पैमाने पर मध्यप्रदेश की चुनावी राजनीति के बारे में अनुमान लगाए कि पलड़ा किसका भारी है तो अभी निष्कर्ष तक पहुंच पाना मुश्किल है। जब हवा ठहरी हुई होती है तब प्रत्याशी महत्वपूर्ण हो जाता है। इस बार भी यही होगा। दोनों प्रमुख दल यानी भाजपा और कांग्रेस प्रत्याशी चयन को लेकर बेहद सतर्क हैं। इस बार पट्ठागिरी किसी भी पार्टी में नहीं चलेगी।
पिछले बार अपन ने देखा था कि कांग्रेस के टिकट को लेकर बस खानापूर्ति हुई थी। ऐसे भी उदाहरण हैं कि कइयों ने टिकट लौटा दिए थे और पाला बदले थे। मुद्दतों बाद यहां टिकट की मारामारी देखने को मिल रही है। मतलब साफ है कि कांग्रेस को इस बात का फीडबैक मिल रहा है कि वो पिछले चुनाव में जहां थी उससे आगे बढ़ी है। उसे भरोसा है कि यदि मिलकर मेहनत की गई तो सरकार बन भी सकती है। प्रदेश में कमलनाथ जैसे अनुभवी नेता को कमान देकर शीर्ष नेतृत्व ने कांग्रेस की इलाकेदारी पर लगाम लगाने की कोशिश की है। यह बात अलग है कि खुद कमलनाथ ही इलाकेदारी की ग्रंथि से मुक्त नहीं दिख रहे हैं।
भाजपा पहली बार प्रत्याशी चयन को लेकर इतनी संजीदा है। एक-एक नाम पर कई-कई बार विमर्श हो रहे हैं। भाजपा इनफाइटिंग यानी भितरघात के खतरे को भाँप चुकी है। जिस भितरघात ने कांग्रेस को अर्श से फर्श तक पहुँचाया, कहीं वही भाजपा को भी न ले डूबे। यहां अच्छी बात यह है कि संघ आंतरिक लोकपाल का काम करता है। वह किसी भी ओहदेदार का कान उमेठने की हैसियत में है। इसलिए टिकट तय करने का आखिरी दौर उसी की निगहबानी में चल रहा है। इसकी बड़ी वजह यह है कि कांग्रेस अपना असली दुश्मन भाजपा को नहीं संघ को मानती है। खुदा न खास्ता कांग्रेस की सरकार मध्यप्रदेश में आ गई तो वह निपटने की शुरुआत संघ से ही करेगी। मध्यप्रदेश संघ के लिए काफी अहम है। सो इस बार मुख्यमंत्री भी चाहें कि वे किसी की टिकट पर अडक़र उसे दिला दें तो यह मुश्किल होगा। मध्य प्रदेश भाजपा में पंद्रह बरस में ऐसा पहली बार हो रहा है।
केंद्र की राजनीति में मोदी का उदय कांग्रेस मुक्त भारत के आह्वान से हुआ था। देश केंद्र समेत तीन-चौथाई इलाके में कांग्रेस मुक्त तो हो गया पर भाजपा खुद कांग्रेसयुक्त हो गई। कांग्रेसयुक्त होने से आशय यही कि जिन ‘सद्गुणों’ ने उसे ‘सद्गति’ दी वही सब भाजपा में आ गए। पहले कांग्रेस और भाजपा के बीच भाषा-भूषा, आचार-व्यवहार में साफ भेद नजर आता था अब गड्ड-मड्ड हो गया। सत्ता की चकाचौंध और ताकत ने अहंकारी बना दिया। और यह अहंकार चाहे टोल नाका हो या दारू वाले का ठेका सिर चढक़र बोलने लगा है। आम लोगों को इससे चिढ़ है और यह चिढ़ ही भाजपा के नीति-नियंताओं के लिए चिंता का प्रमुख विषय है।
भाजपा के भीतर एक अंतरद्वंद्व और भी है। वह है पिछले पंद्रह वर्षों की यथास्थिति का। चाहे सत्ता हो या संगठन पंद्रह साल से जिले से लेकर राजधानी तक वही के वही चेहरे दोहराए जा रहे हैं। संगठन के पद पहले चुनाव से तय होते थे अब उसका आधार गणेश-परिक्रमा बन गया है। जो दीनदयाल परिसर की परिक्रमा और वहां बिराजे देवताओं की पूजा-अर्चना करता है फल उसे ही मिलता है। यह धारणा और भी बलवती हुई है। पंद्रह साल में एक नई पीढ़ी सामने आ चुकी है। वह भी मौका चाहती है। यह फीडबैक इस बार अच्छी तरह ऊपर तक पहुंच चुका है। इसलिए भाजपा की टिकट सूची भाजपाइयों के लिए ही चौंकाने वाली हो सकती है। यदि नेतृत्व ने इस बार भी मुँहदेखी की तो उसे इसका दुष्फल मिलेगा। भ्रष्टाचार के मुद्दे अब ज्यादा मायने नहीं रखते। 2008 का चुनाव जब शिवराज जी के नेतृत्व में लड़ा गया तब डंपर कांड सामने था। कांग्रेस से ज्यादा इस मुद्दे को उमा भारती और प्रहलाद पटेल ने हवा दी थी। उस समय ये दोनों भाजपा से अलग थे, इनके वोटों का आधार भी भाजपाई ही था। इस डंपर कांड को मामा लहर ने फेल कर दिया। 2013 के चुनाव के पहले व्यापमं कांड आ चुका था। इसी घपले-घोटाले की गूंज के बीच चुनाव हुए थे लेकिन भाजपा को 2008 के चुनाव से ज्यादा सीटें मिलीं। इस बार भी घोटाले और भ्रष्टाचार के मुद्दे उठे हैं लेकिन वह जनता की जुबान पर नहीं चढ़ पा रहे हैं। उसकी पहली वजह यह कि शिवराज सरकार ने सोशल सेक्टर में इतना कुछ कर दिया है कि किसी न किसी तक कुछ न कुछ पहुंच चुका है। तो जब उससे कोई भ्रष्टाचार की बात करता है तो बात उसके सिर से निकल जाती है। दूसरे किनके मुंह से भ्रष्टाचार के आरोप निकल रहे हैं उनकी विश्वसनीयता को लेकर भी एक संकट है।
मेरे हिसाब से जनता में दो मसलों का सबसे ज्यादा असर है पहला- सत्ताधारी दल के निचले स्तर से लेकर विधायक तक में आया सत्ता का अहंकार जिन्होंने पाँच साल तक सीधे मुँह बात नहीं की और फटफटी से लेकर स्कॉर्पियो तक की तरक्की कर ली। दूसरा- बेलगाम नौकरशाही। इस बार मुख्यमंत्री बनने के साथ ही शिवराज सिंह चौहान ने व्यवस्था में जीरो टॉलरेंस का संकल्प लिया था वह पूरी तरह विफल रहा। अधिकारियों का व्यवहार सामंतों जैसा रहा। नीचे से लेकर ऊपर तक व्यवस्था में जो चेक और बैलेंस का सिस्टम था उसे बाबू-नौकरशाही ने निष्प्रभावी बना दिया। व्यवस्थागत यह झोल चुनाव में मुद्दा बन भी सकता है या नहीं, कह नहीं सकते।
हाँ, एक बात नोट करने की यह कि युवा वर्ग पहली बार आक्रोशित दिख रहा है। यह वही वर्ग है जो पिछले चुनाव में मोदी को लेकर पगलाया हुआ था। मोदी के पक्ष का वह स्वयंभू कैम्पेनर बना हुआ था। अब ऐसा लगता है कि वह ठगा-सा महसूस कर रहा है। वह अपना आक्रोश भी व्यक्त करने लगा है। इस बीच इन्हीं में से जो संविदा या अन्य प्रयोजनों में काम पाए हुए थे उन्होंने प्रभावशाली तरीके से आंदोलन प्रदर्शन किए। इन प्रदर्शनों को लेकर सरकार सदाशयी रही। पटवारी और शिक्षकों की भर्तियों ने आक्रोश को मंदा करने का काम किया। अन्य युवा वर्ग एट्रोसिटी और आरक्षण की लड़ाई में फंसा दिया गया। युवाओं के जो धारदार आंदोलन सत्तर-अस्सी के दशक में होते थे वैसे आंदोलन इन पिछले पंद्रह वर्षों में नहीं हुए। कांग्रेस युवाओं के आक्रोश को धार देने में विफल रही और भाजपा ने इस वर्ग को हताश किया है। युवाशक्ति आज चौराहे पर है। उसकी प्रतिरोधक क्षमता को सोशल मीडिया ने सोख लिया है। वह आभासी क्रांति में उलझकर रह गया है। इस चुनाव में वह ज्यादा से ज्यादा ट्रोल या कैम्पेनर की भूमिका में रहेगा। यह इस चुनाव का दुर्भाग्य होगा कि युवा प्रभावी भूमिका में नहीं रहेंगे। आज की तारीख में चुनाव जिस मुकाम पर खड़ा है उसे देखते हुए कहना मुश्किल है कि कांग्रेस या भाजपा युवाओं को लेकर ऐसा कोई नवाचार करेगी जैसा कि अर्जुन सिंह ने 1985 में किया था और कुशाभाऊ ठाकरे ने 1990 में। यहां यह जान लेना जरूरी है कि मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में जो राज कर रहे हैं चाहे वे शिवराज सिंह- कैलाश विजयवर्गीय हों या रमन सिंह-ब्रजमोहन अग्रवाल सब के सब 1990 के उस बैच के नेता हैं जिन्हें ठाकरेजी की सरपरस्ती में भाजपा ने मौका दिया था।
इस चुनाव में एट्रोसिटी एक्ट और प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे की बात की जा रही है। मेन स्ट्रीम के मीडिया ने इसे हाशिये पर रख दिया है। यह अब सोशल मीडिया का आभासी युद्ध बनकर रह गया है। इन दोनों मुद्दों को लेकर सपाक्स समाज पार्टी का जन्म हुआ है। पहले तो लग रहा था कि सपाक्स इस मुद्दे को लेकर चुनावी खेल बिगाड़ेगी लेकिन अब उसके गरम तवे पर पानी के छीटे से पड़ गए लगते हैं। सपाक्स का नेतृत्व चुके हुए नौकरशाहों के हाथों में है। इन्होंने जीवन भर व्यवस्था के आगे हथियार डालकर काम किया है। इनमें से ज्यादातर वो भी हैं जो जब बड़े ओहदेदार थे तब आम जनता गंधाती थी। सुदीप बनर्जी या हर्ष मंदर, अजय यादव जैसे नौकरशाह होते तो कुछ उम्मीद भी बँधती। इनमें वो आक्रामकता नहीं है जिसकी जरूरत इस चुनाव में है। फिर नेतृत्व बिखरा है। एक विधानसभा से पाँच लोग भी खड़े हो सकते हैं और सबके सब यह दावा कर सकते हैं कि सपाक्स के असली उम्मीदवार वही हैं। दूसरा खतरा और भी है, जिससे सपाक्स का नेतृत्व अभी से सशंकित है कि इनके कार्यकाल में हुए भ्रष्टाचारों की पोलें खुलनी शुरू हो सकती है, ऐसी स्थिति में ये कहाँ सफाई देते फिरेंगे। मुझे नहीं लगता कि सपाक्स कहीं भी चुनावी कोण बनाने में सफल होगा। इसकी वजह यह भी है कि दोनों प्रमुख दलों यानी भाजपा और कांग्रेस का नेतृत्व प्रभावशाली सवर्णों के ही हाथ है। अब रही बात गठबंधन की। बसपा, सपा, गोंगपा, जयस यदि इनसे कांग्रेस का गठबंधन बनता और इनके नेता ईमानदारी से गठबंधन धर्म निभाते तो कांग्रेस को भाजपा के खिलाफ निर्णायक जनाधार मिल सकता था। अब इनके बिखर जाने से ये सब ज्यादा वोट कांग्रेस के ही काटेंगे। सपा को छोड़ दें तो ये राजनीतिक दल आए भी कांग्रेस की प्रतिक्रिया स्वरूप थे। ज्यादा वोट विभाजन होगा तो चंबल और विंध्य में बसपा फायदे में रहेगी। जैसा कि अखिलेश यादव ने आह्वान किया है बागी कांग्रेसी, सपा से जुड़ेंगे। सपा चुपके से सीट निकालने में माहिर है। मुझे लगता है कि ठहरी हुई हवा में ये दोनों ही दल छुपे रुस्तम निकल सकते हैं। महाकौशल में गोंगपा और मध्यभारत में जयस का असर देखने को मिला है। जितने ज्यादा दल खड़े होंगे भाजपा के मुकाबले काँग्रेस को ज्यादा घाटा होगा।