खतरे वाली 76 विस सीटों पर संघ ने संभाला मोर्चा
भाजपा नेताओं की ही मानें, तो विधायकों के खिलाफ जिस तरह का माहौल है, उस लिहाज से जीत के लिए कम से कम 70 सीटों पर प्रत्याशी बदलना बहुत जरूरी है। दबी जुबान से सभी कह रहे हैं कि सपाक्स समाज के चुनाव में उतरने का फायदा भाजपा को मिलेगा। लेकिन पांच फीसदी तक सपाक्स समाज को मिले वोट भाजपा को फायदा देंगे वहीं इससे ज्यादा का वोट शेयर भाजपा को हार की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ा देगा। ऐसी ही स्थिति कांग्रेस को लेकर भी है। वहां तो नेताओं के पसंदीदा लोगों को टिकट बांटने के दौरान प्राथमिकता देने का चलन पुराना रहा है। यदि इस बार भी मध्य प्रदेश में सक्रिय तीन-चार नेताओं की पसंद को ही प्राथमिकता दी गई, तो कांग्रेस की एक बार फिर हार निश्चित है और इस बार ये हार ऐसी होगी जैसे कांग्रेस जीत का सेहरा खुद भाजपा की झोली में डाल दे, क्योंकि मतदाता इस बार बदलाव की बयार चाहते हैं।
भोपाल (मंगल भारत)। कांग्रेस के दिग्गज नेताओं की गुटबाजी, विपक्ष के बिखराव और सपाक्स व जयस जैसी पार्टियों के उभार के बाद लग रहा था कि इस बार भी भाजपा सरकार बना लेगी। लेकिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक की हाल ही में आई सर्वे रिपोर्ट ने भाजपाईयों के दावों पर पानी फेर दिया है। संघ के सर्वे के अनुसार, वर्तमान स्थिति में भाजपा 96 सीटों पर सिमट जाएगी। इसलिए संघ ने 76 विधायकों का टिकट काटकर दूसरों को टिकट देने की सिफारिश की है। सर्वे रिपोर्ट के बाद भाजपा चौथी बार सरकार बनाने के लिए संघ की शरण में चली गई है। गौरतलब है कि प्रदेश में वर्तमान में जो राजनीतिक परिदृश्य दिख रहा है, उससे भाजपा खुशफहमी में थी कि लगातार चौथी बार सरकार बनाने के लिए उसके पास मौका है। लेकिन भाजपा के दावे को संघ के सर्वे ने बड़ा झटका दिया है। सूत्र बताते हैं कि संघ ने जो सर्वे कराया है उसके अनुसार पार्टी में जमीनी स्तर पर समन्वय में भारी कमी देखी गई है, वहीं संघ के सर्वे में करीब एक-तिहाई मौजूदा विधायकों और कुछ मंत्रियों की रिपोर्ट निगेटिव आई है।
कांग्रेस 114 सीटों पर जीतने की स्थिति में : भाजपा सूत्रों का कहना है कि संघ ने अपने सर्वे में कांग्रेस को 114 सीटों पर जीतने की स्थिति में बताया है। सर्वे में मालवा-निमाड़, ग्वालियर-चंबल, विंध्य और महाकौशल में पार्टी की हालत खराब पाई गई है। इसके साथ ही संघ ने कई मंत्रियों और विधायकों की कार्यशैली को लेकर भी सवाल उठाए हैं। संघ के इस सर्वे के बाद भाजपा में हड़कंप मच गया है। बताया जाता है कि संघ की सर्वे रिपोर्ट आने के बाद ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने विगत दिनों भोपाल में संघ के कार्यालय समिधा पहुंचकर संघ के नेताओं से पार्टी की जमीनी तैयारियों और पार्टी की मौजूदा स्थिति का फीडबैक लिया था। जानकारी के अनुसार संघ ने अपने सर्वे में कांग्रेस को जिन 114 सीटों पर जितने की स्थिति में माना है उनमें विजयपुर, मुरैना, दिमनी, अटेर, भिंड, लहार, मेहगांव, ग्वालियर ग्रामीण, ग्वालियर ईस्ट, भितरवार, डबरा, सेवढ़ा, भांडेर, करेरा, पोहरी, पिछोर, कोलारस, बामोरी, राघौगढ़, अशोक नगर, चंदेरी, मुंगीवली, सुरखी, देवरी, सागर, पृथ्वीपुर, खरगापुर, राजनगर, छतरपुर, मलहरा, पथरिया, दमोह, हटा, पवई, गुन्नौर, चित्रकूट, नागौद, अमरपरटन, सिरमौर, सेमरिया, त्यौथर, मऊगंज, देवतालाब, गुढ़, चुरहट, सीधी, सिहावल, चितरंगी, सिंगरौली, ब्यौहारी, जैतपुर, अनूपपुर, पुष्पराजगढ़, बांधवगढ़, बड़वारा, विजयराघवगढ़, बहोरीबंद पाटन, बरगी, जबलपुर ईस्ट, जबलपुर वेस्ट, सिहोरा, डिंडौरी, मंडला, बैहर, परसवाड़ा, बालाघाट, बरघाट, केवलारी, लखनादौन, अमरवाड़ा, सौंसर, छिंदवाड़ा, परासिया, घोड़ाडोंगरी, बासौदा, कुरवाई, सिरोंज, शमशाबाद, भोपाल, उत्तर, भोपाल मध्य, आष्टा, नरसिंहगढ़, ब्यावरा, खिलचीपुर, सुसनेर, शाजापुर, शुजालपुर, कालापीपल, सोनकच्छ, भीकनगांव, बड़वाह, महेश्वर, खरगोन, राजपुर, पानसेमल, बड़वानी, जोबट, थांदला, सरदारपुर, गंधवानी, कुक्षी, मनावर, धरमपुरी, धार, बदनावर, इंदौर-5, राऊ, उज्जैन साउथ, सैलाना, आलोट, मल्हारगढ़, सुवासरा, जावद आदि शामिल है।
इस बार ये है चुुनावी गणित
मध्य प्रदेश में कुल 5 करोड़ 3 लाख वोटर्स हैं। इसमें 8 फीसदी वोटर नए जुड़े हैं। 2013 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को 44.85 फीसदी और कांग्रेस को 36.38 फीसदी वोट मिले थे। बसपा का वोट शेयर 6.29 फीसदी रहा था। वहीं सीटों की बात करें, तो 2003 में जब भाजपा ने मध्य प्रदेश में 10 साल बाद वापसी की थी, तो सत्ता विरोधी लहर और उमा भारती के चेहरे के चलते 173 सीटों पर जीत दर्ज की थी। इसके बाद 2008 के चुनावों में 143 सीटें मिलीं और लगातार तीसरी बार जब सत्ता में आई, तो जनता ने 165 सीटों से भाजपा को नवाजा। आखिरी विधानसभा चुनाव में करीब आठ फीसदी का जो गैप रहा है, उसे भरना इस बार कांग्रेस के लिए कुछ खास मुश्किल नहीं होगा। चूंकि, बसपा से इस बार कई दलित संगठन नाराज हैं और वो अपना वोट ऐसी पार्टी को देना चाहते हैं, जो सत्ता में आ सके।
लिहाजा, चुनावी पंडितों का मानना है कि यदि कांग्रेस अच्छी तरह मेहनत करे, तो इस बार बसपा के आधे वोट आराम से कांग्रेस के खाते में आ सकते हैं। इसके अलावा, यदि कांग्रेस अजाक्स के वोट पाने में भी कामयाब रही, तो उसके लिए सत्ता का सफर और भी आसान हो जाएगा। आम आदमी पार्टी, जयस, सपाक्स समाज जैसे दल भी चार फीसदी वोट शेयर ले सकते हैं। इसके अलावा, सत्ता विरोधी लहर तो है ही। इन सबको मिला लें, तो कांग्रेस आठ फीसदी वोटबैंक के गैप को खत्म करने की दूरी पूरी कर सकती है।
भाजपा नेताओं की ही मानें, तो विधायकों के खिलाफ जिस तरह का माहौल है, उस लिहाज से जीत के लिए कम से कम 70 सीटों पर प्रत्याशी बदलना बहुत जरूरी है। यदि प्रत्याशी बदलने का आंकड़ा 50 सीटों तक भी न पहुंच पाया तो भाजपा की हार तय है। दबी जुबान से सभी कह रहे हैं कि सपाक्स समाज के चुनाव में उतरने का फायदा भाजपा को मिलेगा। लेकिन पांच फीसदी तक सपाक्स समाज को मिले वोट भाजपा को फायदा देंगे वहीं इससे ज्यादा का वोट शेयर भाजपा को हार की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ा देगा। ऐसी ही स्थिति कांग्रेस को लेकर भी है। वहां तो नेताओं के पसंदीदा लोगों को टिकट बांटने के दौरान प्राथमिकता देने का चलन पुराना रहा है। यदि इस बार भी मध्य प्रदेश में सक्रिय तीन-चार नेताओं की पसंद को ही प्राथमिकता दी गई, तो कांग्रेस की एक बार फिर हार निश्चित है और इस बार ये हार ऐसी होगी जैसे कांग्रेस जीत का सेहरा खुद भाजपा की झोली में डाल दे, क्योंकि मतदाता इस बार बदलाव की बयार चाहते हैं। यानि कि जिस भी पार्टी में सीटों की बंदरबांट होगी, उसका बड़ा फायदा दूसरी पार्टी को मिलेगा। संघ के सर्वे में भी शिवराज सरकार के खिलाफ एंटी इनकम्बेंसी फैक्टर पाया गया है जो इतने लंबे शासनकाल के बाद सामान्य है। पार्टी सूत्रों के मुताबिक भाजपा मौजूदा 70 विधायकों का टिकट काट सकती है। वैसे भी भाजपा कई राज्यों में विधानसभा चुनावों में इस फार्मूले को अपनाती रही है।
शिवराज से बैर नहीं, विधायकों की खैर नहीं!
संघ ने अपने सर्वे में यह भी बताया है कि प्रदेश की जनता मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से खुश है, लेकिन मंत्रियों और विधायकों के खिलाफ जोरदार नाराजगी है। विगत दिनों संघ के वरिष्ठ नेता अरुण जैन और दीपक विस्पुते ने भी इसकी जानकारी अमित शाह, प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह और संगठन महामंत्री सुहास भगत को दे दी है। विभिन्न सर्वे रिपोट्र्स में भी यह बात सामने आ चुकी है कि मध्य प्रदेश में इस बार जनता में स्थानीय विधायकों के खिलाफ रोष है इसलिए शिवराज की लोकप्रियता के बावजूद भाजपा के लिए सत्ता की लड़ाई आसान नहीं है। ऐसे मेें भाजपा कई वर्तमान विधायकों के टिकट काट सकती है जो चुनाव में भाजपा का खेल बिगाड़ सकते हैं और कांग्रेस को फायदा मिल सकता है। विधानसभा चुनाव में भी भाजपा को उन्हीं सवालों का सामना करना पड़ रहा है जो करीब एक साल पहले गुजरात चुनाव के दौरान थे। दोनों जगह भाजपा के लिए के चुनाव में चुनौतियां, चयन और सवाल एक से नजर आ रहे हैं। गुजरात की तरह मध्य प्रदेश में भी ‘अच्छे शासनÓ की रट के बावजूद भाजपा का बहुत कुछ दांव पर है। मतदान में अभी महीने भर से ज्यादा का वक्त है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह लगातार जन आशीर्वाद यात्रा पर हैं। कांग्रेस की ओर से प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया मोर्चा संभाले हुए हैं। दिग्विजय सिंह की भी अहमियत बरकरार है।
‘लोकल’ नाराजगी से निपटना बड़ी चुनौती
संघ की रिपोर्ट के अनुसार, तीन बार से मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल रहे शिवराज सिंह चौहान किसी भी अन्य नेता से कहीं ज्यादा लोकप्रिय हैं। खासकर जनता के बीच ‘मामा’ की छवि उन्हें सबके बीच सरल-सहज बनाए हुए है। लोगों को ‘संबलÓ जैसी कई योजनाओं का फायदा हो रहा है। लेकिन शिवराज सरकार के कामकाज की सराहना करने वालों के मन में अपने लोकल विधायकों को लेकर काफी रोष है। इसलिए संघ ने 76 विधायकों के टिकट काटने या फिर उनकी सीट बदलने की सलाह दी है। भाजपा सूत्रों का भी कहना है कि लोकल एंटी-इनकंबेंसी को खत्म करने के लिए पार्टी करीब 60-70 मौजूदा विधायकों का टिकट काट सकती है। वहीं भाजपा के एक अन्य नेता का कहना है कि अगर मध्य प्रदेश में भी भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का फार्मूला अपनाएगी तो करीब 100 विधायकों के टिकट काटने ही पड़ेंगे। हालांकि, भाजपा के ही कुछ नेताओं का कहना है कि मध्य प्रदेश में संगठन आदर्श स्थिति में है, यहां इतने सारे विधायक नहीं बदले जा सकते। वहीं पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता रजनीश अग्रवाल कहते हैं कि टिकट वितरण के वक्त पार्टी की चयन समिति कई पहलुओं पर गौर करेगी।
बगावत होने के संकेत
अपने सर्वे के बाद संघ ने फरमान सुना दिया है कि भाजपा को प्रदेश में लगातार चौथी बार सरकार बनानी है तो उसे अपने वर्तमान विधायकों में से 76 का टिकट काटना पडग़ा, साथ ही कुछ की सीट बदलनी पड़ेगी। लेकिन भाजपा के रणनीतिकार जानते हैं कि ऐसा करना पार्टी के लिए आसान नहीं हैं। भाजपा की असली चिंता टिकट की सूची आने के बाद शुरू होगी। क्योंकि जिन इलाकों में पार्टी टिकट काटेगी वहां समीकरण गड़बड़ा सकता है। भाजपा के कुछ नेता पहले ही टिकट कटने के बाद के हालात की तैयारी कर रहे हैं। छोटे कस्बों-ग्रामीण इलाकों में समीकरण गड़बड़ाने का कांग्रेस को फायदा हो सकता है। सर्वे रिपोर्ट में सबसे बड़ी बात यह सामने आई है कि संघ मंत्रियों के कामकाज से खासा नाराज है। संघ की ओर से भेजी गई रिपोर्ट में आठ मंत्रियों के स्थान पर नए उम्मीदवार उतारने की सिफारिश की गई है। संघ के आला पदाधिकारियों ने बताया कि आंतरिक सर्वे में चुनाव काफी कांटे का है। बताया जा रहा है कि संघ ने इन मंत्रियों की सीट से सांसदों के नाम का प्रस्ताव दिया है। संघ के पदाधिकारियों ने बताया कि आदिवासी बहुल इलाकों में भाजपा के पक्ष में लहर कमजोर पड़ती नजर आ रही है। स्थानीय विधायकों के प्रति जनता में भारी आक्रोश है। ऐसे में विधायकों के स्थान पर नए उम्मीदवार को मैदान में उतारा जाए। संघ के पदाधिकारियों की मानें तो चुनाव में विकास तो मुद्दा है, लेकिन कांग्रेस की आक्रामक शैली ने समीकरणों को बदल दिया है। कई विधानसभा क्षेत्रों में स्थानीय मुद्दों को दमदारी से भाजपा नेताओं की ओर से नहीं उठाया गया जिससे जनता में नाराजगी है। भाजपा के प्रदेश प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे कहते हैं कि यदि किसी विधायक की रिपोर्ट बहुत खराब है और वह जीतने की स्थिति में नहीं है तो ही किसी दूसरे चेहरे को मौका दिया जाएगा। पार्टी ने अपने स्तर पर भी विधानसभा क्षेत्रों की राजनीतिक स्थिति को लेकर सर्वे कराया है। इन सभी बातों को ध्यान में रखकर ही टिकटों का वितरण होगा।
भाजपा को बचाने मैदान में उतरा संघ
मध्य प्रदेश में भाजपा की खस्ता हालत ने संघ को चिंता में डाल दिया है। संघ के सर्वे और फीडबैक से शिवराज सरकार और भाजपा संगठन को अवगत करा दिया गया है। साथ ही अमित शाह की सलाह पर संघ ने प्रदेश में भाजपा को जीताने की जिम्मेदारी संभाल ली है। यही नहीं सुहास भगत और अरुण जैन को प्रत्याशी चयन को लेकर भी फ्री हैंड दे दिया गया है। भगत संघ से आए हैं और प्रचारक हैं। अरुण जैन लंबे समय से प्रदेश भाजपा, संघ और सरकार के बीच समन्वय की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। यही वजह है कि दोनों नेताओं को प्रत्याशी चयन का काम सौंपा गया है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह द्वारा भगत-जैन की टीम को मदद के लिए दी गई हैं। यह पहला मौका है जब संघ ने प्रदेश में चुनाव के सारे सूत्र अपने हाथ में लिए हैं। दरअसल, पिछले 15 साल से सत्ता पर काबिज भाजपा सरकार के खिलाफ इस बार एंटी इंकमबेंसी का माहौल है। खासतौर से विधायकों को लेकर स्थानीय स्तर पर जनता में भारी आक्रोश है। पदोन्नति में आरक्षण और एट्रोसिटी एक्ट में संशोधन के मुद्दे पर भी समाज का बड़ा वर्ग नाराज है। पहली बार कांग्रेस भी पूरी ताकत के साथ एकजुट होकर चुनाव लडऩे को तैयार है। ऐसे हालात में संघ को सामने आना पड़ा है। अमित शाह भी संघ के स्थानीय कार्यालय समिधा जाकर दिग्गज नेताओं के साथ विचार साझा कर चुके हैं।
वैसे, संघ भाजपा की चुनावों में पहले भी मदद करते आया है मगर इस बार भाजपा पिछले दो चुनावों के मुकाबले ज्यादा मुश्किल हालात में है इसलिए संघ के इस बार सर्वे, प्रचार और बूथ तक की जिम्मेदारी उठाने को तैयार हैं। संघ की रणनीति के अनुसार इस बार स्वयंसेवक प्रचार से लेकर बूथ स्तर तक भी जिम्मेदारी निभाने को तैयार हैं। हर बूथ पर दो स्वयंसेवकों की तैनाती का फैसला संघ ने किया है। साथ संघ के पदाधिकारियों को गांवों में वोटरों का मन बदलने के मोर्चे पर उतारा गया है। बताया जा रहा है कि ये पदाधिकारी गांवों में चौपाल लगा रहे हैं। संघ के बिहार, झारखंड, ओडिशा, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के सक्रिय पदाधिकारियों को मप्र में तैनात किया गया है। संघ के करीब 300 पदाधिकारी अलग-अलग जिलों में जमीनी हकीकत की पड़ताल कर रहे हैं और माहौल को भांपते हुए चुनावी रणनीति तैयार कर रहे हैं।
हांलाकि, भाजपा के नेता संघ की मदद को खुलेआम स्वीकार नहीं कर रहे हैं। मगर वो मान रहे हैं कि संघ से भाजपा का गहरा जुड़ाव है। संघ सूत्रों के मुताबिक जो रणनीति अपनाई जा रही है, उसमें कांग्रेस, बसपा और निर्दलीय विधायकों की सीटों पर विशेष फोकस रखा जा रहा है। संघ ने सुझाव दिया है कि भाजपा इन सीटों पर कम मेहनत से ज्यादा सफलता हासिल कर सकती है। फिलहाल कांग्रेस के पास 57, बसपा चार व तीन सीटों पर निर्दलीय विधायकों का कब्जा है। संघ ने कांग्रेस के कब्जे वाली सीटों पर भी अध्ययन करवा लिया है। इसमें ये तथ्य सामने आया कि विपक्षी विधायकों वाली 30 से ज्यादा सीटों पर एंटी इनकमबेंसी है। इसे आधार मानकर संघ कांग्रेस की 40 सीटों पर विशेष रूप से फोकस कर रहा है।
भाजपा के इन चेहरों पर तलवार
सूत्रों का कहना है कि संघ ने अपने सर्वे में जिन 76 विधानसभा सीटों को खतरे में बताया है उन सीटों के विधायक संगठन और संघ की परिक्रमा में जुट गए हैं। उधर, टिकट वितरण को लेकर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष राकेश सिंह का कहना है कि जो उम्मीदवार जीतने की स्थिति में है, उसे टिकट मिलेगा। यहां पर किसी तरह का कोई कठोर नियम नहीं है। बहुत गहराई से सोच विचार कर टिकट दिया जाएगा। किसी विधायक का टिकट केवल इस बात पर नहीं कटेगा कि वह मौजूदा विधायक है। पार्टी ने जो मापदंड तैयार किए हैं, टिकटार्थी केवल उन पर खरा उतरना चाहिए। बताया जाता है कि संघ ने सर्वे के बाद जिन सीटों पर भाजपा के विधायकों को कमजोर आंका है उनमें कई सीटें मंत्रियों की भी है।
सीट भाजपा प्रत्याशी
जौरा सूबेदार सिंह
सुमावली सत्यपाल सिंह
मुरैना रूस्तम सिंह
भिंड नरेंद्र सिंह कुशवाह
मेहगांव मुकेश सिंह चतुर्वेदी
गोहद लालसिंह आर्य
ग्वालियर ग्रामीण भारत सिंह कुशवाह
ग्वालियर पूर्व माया सिंह
सेवढ़ा प्रदीप अग्रवाल
भांडेर घनश्याम पिरोनिया
पोहरी प्रहलाद भारती
चाचौड़ा ममता मीणा
अशोक नगर गोपीलाल जाटव
सुरखी पारुल साहू
नरयावली प्रदीप लारिया
सागर शैलेंद्र जैन
टीकमगढ़ केके श्रीवास्तव
पृथ्वीपुर अनिता नायक
महाराजपुर मानवेंद्र सिंह
छतरपुर ललिता यादव
बिजावर गुड्डन पाठक
मलहरा रेखा यादव
पथरिया लाखन पटेल
हटा उमादेवी खटीक
गुन्नौर महेंद्र सिंह
पन्ना कुसुम मेहदेले
सतना शंकरलाल तिवारी
रामपुर बघेलान हर्ष सिंह
सिरमौर दिव्यराज सिंह
सेमरिया नीलम मिश्रा
त्यौथर रमाकांत तिवारी
देवतालाब गिरीश गौतम
सीधी केदारनाथ शुक्ला
सिंगरौली राम लल्लु वैश्य
जयसिंहनगर प्रमिला सिंह
जैतपुर जयसिंह मरावी
अनूपपुर रामलाल राउतेल
बड़वारा मोती कश्यप
विजयराघवगढ़ संजय पाठक
बरगी प्रतिभा सिंह
जबलपुर ईस्ट अंचल सोनकर
सिहोरा नंदनी मरावी
निवास रामप्यारे कुलस्ते
बालाघाट गौरीशंकर बिसेन
बरघाट कमल मार्सकोल
गोटेगांव डॉ. कैलाश जाटव
चौरई रमेश दुबे
सौंसर नानाभाऊ महोड़
घोड़ाडोंगरी सज्जन सिंह उइके
टिमरनी संजय शाह मकड़ई
सिवनी मालवा सरताज सिंह
सिलवान रामपाल सिंह
कुरवाई वीरसिंह पंवार
शमशाबाद सूर्यप्रकाश मीना
भोपाल मध्य सुरेंद्र नाथ सिंह
आष्टा रंजीत सिंह गुणवान
ब्यावरा नारायण सिंह पवार
सुसनेर मुरलीधर पाटिदार
शाजापुर अरूण भीमावद
शुजालपुर जसवंतसिंह हाडा
कालापीपल इंद्रसिंह परमार
सोनकच्छ राजेंद्र वर्मा
मांधाता लोकेंद्र सिंह परमार
बड़वाह हितेंद्र सिंह सोलंकी
खरगोन बालकृष्ण पाटीदार
पानसेमल दीवान सिंह
जोबट माधोसिंह डावर
सरदारपुर वेलसिंह भूरिया
मनावर रंजना बघेल
धरमपुरी कालुसिंह ठाकुर
धार नीना वर्मा
बदनावर भवरसिंह शेखावत
सैलाना संगीता चोरल
आलोट जितेंद्र गहलोत
मल्हारगंज जगदीश देवड़ा
विधानसभा चुनाव को लेकर भाजपा इस बार जितनी सजग और सतर्क है उतना पहले कभी नहीं रही है। इसलिए पार्टी टिकट वितरण के लिए प्रयोग पर प्रयोग कर रही है। बताया जा रहा है नामों की सूची फाइनल होने के बाद भी उम्मीदवारों के नाम का ऐलान में इसलिए देरी की जा रही है कि पार्टी प्रदेश में एक आंतरिक सर्वे करा रही है, जिससे इस बात की पुष्टि की जा सके कि कौन-सा उम्मीदवार चुनाव में बेहतर प्रदर्शन कर सकता है। गौरतलब है कि मध्य प्रदेश में आरएसएस का मजबूत आधार है। आरएसएस के मौजूदा सह सरकार्यवाह सुरेश सोनी मध्यप्रदेश से ही हैं और पूर्व सरसंघचालक केएस सुदर्शन ने काफी वक्त तक मध्यप्रदेश में काम किया था और संघ की जड़ों को मजबूत किया था। ऐसे में ऊंची जाति के समुदाय का गुस्सा शांत करने के लिए संघ ने जिम्मेदारी संभाल ली है। सवर्णों ने कई जगह तो पोस्टर और बैनर तक लगा दिए हैं और उसमें लिखा है हम सवर्ण हैं कृपया हमसे वोट न मांगे, हमारा वोट भाजपा के लिए नहीं है। कई जगह नोटा का बटन दबाने की अपील की जा रही है। इसके अलावा सपाक्स और अजाक्स जैसे संगठन भी भाजपा की राह में रोड़ा अटका रहे हैं। अब तक अगड़ी जाति के मतदाता प्रदेश में भाजपा का साथ देते आए हैं। ऐसे में संघ इस वर्ग को साधेगा। भाजपा सूत्रों के अनुसार, सवर्ण आंदोलन का असर सबसे अधिक आरक्षित सीटों पर पड़ सकता है। प्रदेश में 35 एससी आरक्षित सीट हैं और इसमें से 28 पर भाजपा का कब्जा है। एससी की 35 के साथ एसटी की 47 सीटें मिलाकर कुल 82 सीटों पर सवर्ण और दलित आंदोलन के चलते जातिगत समीकरण बिगड़ गया है। यहां की अधिकांश सीटों पर एससी-एसटी के वोटर्स से ज्यादा ओबीसी, सामान्य वर्ग और अल्पसंख्यक वर्ग के वोटर्स बताए जा रहे हैं। इन तीनों वर्ग ओबीसी, सामान्य और अल्पसंख्यक के वोटर्स उम्मीदवारों का भविष्य तय करने के साथ ही जीत और हार में निर्णायक हो सकते हैं। एससी-एक्ट के चलते सवर्ण नाराज चल रहे हैं और इसी नाराजगी के चलते सपाक्स जैसे संगठन चुनावी मैदान में उतर गए हैं। एसटी के लिए आरक्षित कुछ सीटों पर ऐसा नहीं है, जहां भी बड़ी संख्या में आदिवासी और एससी-एसटी के मतदाता हैं, लेकिन जीत और हार में निर्णायक भूमिका निभाने वाला वोटर्स तीसरे वर्ग का बताया जा रहा है। ऐसे समय पर सवर्ण मतदाताओं को साधने की जिम्मेदारी संघ ने अपने ऊपर ले ली है।
साफ-सुथरी छवि वालों का समर्थन करेगा संघ
विधानसभा चुनाव में साख की लड़ाई लड़ रही सत्तारूढ़ भाजपा को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कड़ा संकेत दिया है। संघ ने राजनीति में सुचिता पर जोर देते हुए स्पष्ट कर दिया है कि साफ-सुथरी छवि के लोगों को ही मैदान में उतारा जाए। अगर भाजपा नेतृत्व ने ऐसा नहीं किया तो उसके स्वयंसेवक चुनाव में काम नहीं करेंगे। टिकट वितरण के ठीक पहले संघ के इस संकेत के बाद भाजपा के प्रदेश नेतृत्व के माथे पर बल पड़ गया है। संघ की सीढ़ी पर चढ़कर सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने वाली भाजपा के समक्ष सांप-छछूंदर वाली स्थिति हो गई है। वह न तो संघ के आदेश को नकार सकती है और न ही अपने नेताओं व कार्यकर्ताओं के अस्तित्व को। दरअसल, संघ के आंतरिक सर्वे में आधे से अधिक मौजूदा विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ लोगों में खासी नाराजगी है। इतना ही नहीं, सर्वे में जनता के बीच कई विधायकों और मंत्रियों की छवि भी अच्छी नहीं पाई गई थी। आमजन में उनके खिलाफ गुस्सा है। यदि भाजपा उनको फिर मैदान में उतारती है तो हार का सामना करना पड़ेगा। लिहाजा, संघ नेताओं की ओर से साफ कहा गया है कि साफ-सुथरी छवि के लोगों को चुनाव में उतारेंगे तो संघ के स्वयंसेवकों को भी भाजपा का सहयोग करने में आसानी होगी। मौजूदा विधायकों की छवि के कारण उपजी लोगों की नाराजगी से भी संघ ने अवगत करा दिया है।
इस बार टिकट के लिए प्रयोग पर प्रयोग
विधानसभा चुनाव को लेकर भाजपा इस बार जितनी सजग और सतर्क है उतना पहले कभी नहीं रही है। इसलिए पार्टी टिकट वितरण के लिए प्रयोग पर प्रयोग कर रही है। बताया जा रहा है नामों की सूची फाइनल होने के बाद भी उम्मीदवारों के नाम का ऐलान में इसलिए देरी की जा रही है कि पार्टी प्रदेश में एक आंतरिक सर्वे करा रही है, जिससे इस बात की पुष्टि की जा सके कि कौन-सा उम्मीदवार चुनाव में बेहतर प्रदर्शन कर सकता है। जिन उम्मीदवारों को टिकट मिलना तय है उनके नाम का ऐलान जल्दी हो सकता है, जबकि अन्य उम्मीदवारों में जिसे अधिक वोट मिलेगा उसे पार्टी टिकट दे सकती है।
सूत्रों की मानें तो पार्टी के वरिष्ठ नेता जो कि 5-6 बार सांसद रहे हैं, मंत्री रहे हैं उन्हें प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में दो गुट में भेजा जा रहा है और उन्हें इस आंतरिक सर्वे को कराने का जिम्मा सौंपा गया है। पार्टी के ब्लॉक स्तर के कार्यकतार्ओं ने उम्मीदवारों के चयन के लिए अपना वोट दिया है। पार्टी की ओर से इस सर्वे के लिए कुछ नेताओं के नाम आगे बढ़ाए जा रहे हैं और उनके लिए वोट करने को कहा जा रहा है। सूत्रों का कहना है कि मौजूदा सरकार में मंत्रियों तक की उम्मीदवारी अभी तय नहीं है। पार्टी की ओर से इस सर्वे को पूरी तरह से गोपनीय रखा जा रहा है क्योंकि इस बात का शक है कि जो नेता चुनाव नहीं जीत सकते हैं अगर उनके टिकट को नकारा जाए तो स्थिति बिगड़ सकती है। ऐसा भारतीय राजनीति के इतिहास में पहली बार हो रहा है जब चुनाव की तारीखों के ऐलान होने के बाद पार्टी के भीतर उम्मीदवारों के चयन के लिए आंतरिक वोटिंग कराई जा रही है।
इस बार आदिवासी मोड़ सकते हैं मुंह
मध्यप्रदेश में जब भी भाजपा की सरकार बनी, तब-तब आदिवासी वोटबैंक ने निर्णायक भूमिका अदा की है। इस बार के विधानसभा चुनाव में भी हालात वही हैं, आदिवासी वोट बैंक जिस करवट बैठेगा, सरकार उसी दल की बनेगी। अनुसूचित जनजाति वर्ग की 47 सीटों में से फिलहाल भाजपा के पास दो-तिहाई (32) और कांग्रेस के पास एक तिहाई (15) सीटे हैं। इसके अलावा भी सामान्य सीट में से 31 सीट ऐसी हैं, जहां आदिवासी वोट ही हार-जीत का फैसला करते हैं। यही वजह है भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दल आदिवासी वोट बैंक को साधने में लगे हैं। पिछले कुछ समय से इस वर्ग में भाजपा के प्रति नाराजगी भी रही है। इस नाराजगी में जयस ने आग में घी की तरह काम किया है। आंकड़े बताते हैं कि आदिवासी वोट बैंक जब-जब करवट लेता है, तब-तब सरकार में परिवर्तन होता है। 1990 में संयुक्त मध्यप्रदेश के दौर में भी भाजपा की सरकार सिर्फ आदिवासी सीटों के भरोसे बनी थी। 1993 और 1998 में जब यही वोट बैंक कांग्रेस में चला गया तो कांग्रेस की सरकार बनी। 2003 के चुनाव में आदिवासी भाजपा के साथ आए। तब प्रदेश में आदिवासी सीटों की संख्या 41 थी, जिसमें भाजपा को 34 और कांग्रेस को सिर्फ दो सीट मिली थी। परिसीमन के बाद 2008 के चुनाव में अजा सीट 47 हो गई। पर भाजपा के खाते में 29 सीट ही आईं। इस चुनाव में कांग्रेस को 17 सीट मिली थी। 2013 के चुनाव में फिर भाजपा को 32 और कांग्रेस को 15 सीट मिली। लेकिन इस बार के चुनाव की घोषणा से पहले ही आदिवासियों ने यह दर्शा दिया है कि वे भाजपा को वोट नहीं देंगे। प्रदेश में भाजपा के सामने मजबूरी यह है कि आदिवासियों के आक्रोश को शांत करने के लिए उसके पास आदिवासी चेहरे का भी अभाव है। एकमात्र आदिवासी नेता फग्गनसिंह कुलस्ते पहले केंंद्र सरकार में मंत्री थे। पिछले विस्तार में उन्हें बाहर कर दिया गया। दूसरा ऐसा बड़ा कोई चेहरा नहीं, जिसकी प्रदेश भर में पहचान हो। हालांकि भाजपा अजा मोर्चे के प्रदेशाध्यक्ष गजेंद्र सिंह पटेल कहते हैं कि 2003 से अब तक हमारा आदिवासी वोट प्रतिशत निरंतर बढ़ा है। इस बार भी हम भाजपा 47 सीटों में से अधिकांश सीट जीतेगी, साथ में 52 सीट और हमने चिह्नित की हैं, उन्हें भी जीतने की रणनीति बनाई है।
भाजपाई दिग्गजों को कांग्रेस की युवा चुनौती
युवा चेहरे विधानसभा सीटें
सचिन बिरला बड़वाह
अर्जुन आर्य बुधनी
ज्योति पटेल रहली
कुणाल चौधरी कालापीपल
मनीष चौधरी देवास
मनोज चौधरी हाटपीपल्या
राधेश्याम मुवेल मनावर
पिंटू जोशी इंदौर-3
अमित शर्मा भोपाल दक्षिण-पश्चिम
गिरीश शर्मा गोविंदपुरा
राजीव गुजराती सीहोर
संजय यादव ग्वालियर दक्षिण
हेमंत सिंह चौहान महिदपुर
मोहन सिंह बडऩगर
शोमिल नाहटा मंदसौर
नरेश कप्तान शाजापुर
दिवाकर द्विवेदी सेमरिया
इस बार भी शिवराज के जादू के भरोसे भाजपा
एक तरफ संघ के सर्वे और अमित शाह की सक्रियता ने विधायकों को टेंशन में डाल दिया है, वहीं दूसरी तरफ भाजपा के अधिकांश पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं को इस बार भी शिवराज के जादू पर भरोसा है। वजह भी है, क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में भी हार के तमाम कयास के बाद भी शिवराज की लहर में कांग्रेस के मजबूत किले भी ढह गए थे। भाजपा को जहां 22 सीटों का लाभ हुआ, वहीं कांग्रेस 13 सीटें पीछे रह गई। अब सवाल यह है कि क्या इस बार भी शिवराज की उसी तरह आंधी चलेगी। इस बार उनके सामने तमाम चुनौतियां हैं। प्रदेश में भाजपा ने न केवल अपनी सीटें बढ़ाईं, बल्कि वोट प्रतिशत में भी अच्छा खासा इजाफा किया था। भाजपा का वोट प्रतिशत करीब दस फीसदी तक बढ़ा था। हालांकि कांग्रेस का भी वोट प्रतिशत बढ़ा था, फिर भी उसे सीटों का भारी नुकसान हुआ।
कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं के प्रभाव क्षेत्रों में पार्टी ने बहुत खराब प्रदर्शन किया था। दिग्विजय सिंह के प्रभाव वाले जिले राजगढ़ की पांच में से चार सीटों पर भाजपा सफल रही। ज्योतिरादित्य सिंधिया ग्वालियर-चंबल संभाग में पार्टी को करीब एक-तिहाई सीटें जिता पाए। यहां 34 सीटों में से कांग्रेस को महज 12 सीटों पर जीत मिली थी, जबकि कांग्रेस को इस क्षेत्र से बड़ा भरोसा था। कमलनाथ का किला कहे जाने वाले महाकौशल में सेंध लग गई। वहां भाजपा को 24 और कांग्रेस को 13 सीटें मिलीं। तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया के संसदीय क्षेत्र झाबुआ में तो कांग्रेस खाता तक नहीं खोल पाई थी। लेकिन इस बार स्थिति बदली हुई नजर आ रही है। फिर भी भाजपाईयों को उम्मीद है कि शिवराज का जादू मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में कर लेगा। भाजपा नेताओं का कहना है कि शिवराज जैसा जनता का हमदर्द और कोई नहीं हैं। गर्भवती मांओं से लेकर बुजुर्गों तक, हर उम्र के लोगों के लिए ढेर सारी योजनाएं लाकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने प्रदेश के गरीब तबके का दिल जीतने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने खुद को प्रदेश की बेटियों के मामा के तौर पर भी अच्छी तरह स्थापित कर लिया। उधर किसानों के खाते में सीधे 3200 करोड़ रुपए डालकर खुद को उनका भी सबसे बड़ा हमदर्द साबित कर दिया है।
सवाल उठता है इन तमाम दावों के बाद भी क्या कारण हैं कि भाजपा को लेकर न तो मिडिल क्लास खुश है, न किसान और न हमेशा से भाजपा का पारंपरिक वोटर रहा सवर्ण तबका। पदोन्नति में आरक्षण का मामला ऐसा उछला कि सामान्य, पिछड़ा एवं अल्पसंख्यक वर्ग के अधिकारी कर्मचारी संस्था (सपाक्स) ने सपाक्स समाज नाम से पार्टी बनाकर प्रदेश की सारी विधानसभा सीटों पर चुनाव लडऩे के लिए ताल ठोक डाली।
सत्ता विरोधी लहर दिग्विजय कार्यकाल जैसी: संघ पिछले डेढ़ साल से कहते आ रहा है कि प्रदेश सरकार के खिलाफ जनता में आक्रोश पनप रहा है। लेकिन न तो सरकार और न ही भाजपा संगठन ने इसे गंभीरता से लिया है। इसलिए इस बार मध्य प्रदेश में सत्ता विरोधी लहर उसी तरह है, जैसे दिग्विजय सिंह के 10 साल के कार्यकाल के बाद थी। लेकिन उस वक्त कांग्रेस और दिग्विजय सिंह दोनों का ही तगड़ा विरोध था, जबकि इस बार शिवराज के चेहरे को वोट करने वाला एक अलग तबका है, जो सरकारी योजनाओं से लाभान्वित हुआ है। लेकिन शिवराज ने अपने ही काम करने के तरीके को अपना दुश्मन बना लिया है। एक कांग्रेसी नेता तो यहां तक कहते हैं कि दिग्विजय सिंह ने दूसरी बार सीएम बनने के बाद जो गलतियां की थीं, वही शिवराज दोहरा रहे हैं। कार्यकर्ताओं की अनदेखी करना इसमें सबसे बड़ी गलती है। स्थिति यह है कि पूरे प्रदेश में कार्यकर्ता से लेकर मंत्री तक ज्यादातर लोग मुख्यमंत्री से नाराज हैं। कार्यकर्ताओं की बेरुखी और अनमनाहट का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कार्यकर्ता महाकुंभ स्थल जम्बूरी मैदान पर कार्यक्रम से एक दिन पहले भी कार्यकर्ता कम और सरकार के लोग ज्यादा नजर आ रहे थे। कार्यकर्ताओं में वैसा उत्साह ही नहीं था, जैसा होना चाहिए था, क्योंकि उनके कोई काम ही नहीं हो रहे हैं।
सपाक्स और अजाक्स…
सपाक्स और अजाक्स के मामले में तो सरकार इधर कुआं, उधर खाई की स्थिति में आ गई है। समाज में दो तरह के लोग होते हैं। एक वो तबका होता है, जो केवल वोट देता है, दूसरा वर्ग ऐसे लोगों का होता है, जो समाज को इन्फ्लूएंस करता है। ब्राम्हण, क्षत्रिय, जैन और बनिया ऐसी ही कम्युनिटी हैं, जो समाज को इन्फ्लूएंस करती हैं। प्रदेश में 23 फीसदी सामान्य वर्ग है। सवर्ण खुलकर अपना विरोध जता रहे हैं। हमेशा से भाजपा के लिए वोट बैंक जुटाने में मदद करने वाले साधु-संत भी शिवराज सरकार से नाराज चल रहे हैं। कम्प्यूटर बाबा ने हाल ही में राज्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है। पदोन्नति में आरक्षण का विरोध और एट्रोसिटी एक्ट में बदलाव की मांग कर रही सपाक्स समाज पूरे प्रदेश में अपने उम्मीदवार उतार रही है। जाहिर है, नाराज सवर्णों के लिए यह एक विकल्प की तरह होगा। इसके अलावा, प्रदेश में भाजपा के विधायकों के खिलाफ भी वातावरण है, क्योंकि उन्होंने काम ही नहीं किए। ये नाराजगी कार्यकर्ताओं की भी है और आम जनता की भी है। भाजपा कार्यकर्ताओं को अपनी सरकार होने के बाद भी छोटे-मोटे काम कराने के लिए भटकना पड़ता है, वहीं आम जनता के काम तो बिना रिश्वत के हो ही नहीं रहे हैं। केवल शिवराज सिंह की योजनाओं और उनके इमोशनल भाषणों के दम पर तो हर तबके के लोग भाजपा को वोट नहीं देंगे। जाहिर है, इसका बड़ा नुकसान इस साल भाजपा को मध्य प्रदेश में झेलना पड़ सकता है।