पार्टियों में आंतरिक अनुशासन और एकता की समीक्षा का समय

चुनावी तंत्र पर मीडिया मंत्र
नजरिया… 
महेश श्रीवास्तव: लेखक मप्र के सबसे वरिष्ठ पत्रकार हैं
मैदान में कांग्रेस के पास एंटी इनकम्बेंसी का अलीबाबा का खजाना है, मगर सिम-सिम का दरवाजा खोलने का मंत्र वह सिद्ध नहीं कर पाई। बसपा हो या सपा, गोंडवाना पार्टी हो या जयस सभी चाबियां ताले के आकार से बड़ी निकल गईं। असंतुष्ट अब विभाजित होंगे और बिल्लियों के झगड़े में बंदर का भला होने की संभावना बढ़ेगी।


पार्टियों में आंतरिक अनुशासन और एकता की परीक्षा शुरू होती है, टिकट वितरण के बाद। टिकट की स्वाति बूंद हर सीपी में गिरकर मोती नहीं दे सकती। टिकट विरही यक्ष बादलों से बात करते हुए टूटे मन से चुनावी बारात में शामिल होता और यह भरोसा नहीं रहता कि कब वह किसी दूसरी पार्टी के पंडाल में भोजन करने चला जाएगा। इसी आशंका में पार्टियों ने विरहियों का मन समझाने के लिए सर्वेक्षण ही नहीं, कार्यकर्ताओं की रायशुमारी भी करवा रखी है। कांग्रेस के लिए भय बड़ा है, क्योंकि उसका उपनेता अविश्वास प्रस्ताव के समय अपने ही नेता पर अविश्वास जताकर भाजपा में शामिल हो चुका है और उसका भागीरथ टिकट की गंगा मिलने के बाद भी भाजपा की गंगा में आचमन कर चुका है। भाजपा थोड़ी आश्वस्त है, क्योंकि उसके विद्रोही प्राय: खेत रहे और बाद में उन्हें खलिहान में भी जगह नहीं मिली।
खोजी खबर लाने वाले बताते हैं कि चुनाव समिति वाला कांग्रेस का अखाड़ा गुलजार है। इसमें कई पहलवान हैं, जो अपने-अपने समर्थकों को अधिक से अधिक टिकट दिलाने के मल्लयुद्ध में शामिल हैं। जिसके अधिक समर्थकों को टिकट मिलेगा और जीतेंगे, वहीं यदि कांग्रेस जीती तो भावी मुख्यमंत्री पद का सबल दावेदार होगा, क्योंकि किसी नेता को भावी मुख्यमंत्री घोषित नहीं किया गया है। बताते हैं कि पचौरी या अरुण यादव जैसे नेता परेशान हैं, क्योंकि उनके समर्थकों को भाव नहीं मिल रहा है। कहा जा रहा है कि कमलनाथ में दिग्विजय सिंह की पराशक्ति समा गई है और इन्हीं दो नेताओं के समर्थकों को अधिक टिकट दिए जा रहे हैं।
ऐसा हो भी सकता है, क्योंकि कमलनाथ के पास पूरे प्रदेश के कांग्रेसियों की जन्म कुंडली नहीं है और दिग्विजय ने तो जन्मपत्रियां बनाई तथा बदली भी हैं। पूर्व में दोनों भरोसेमंद दोस्त भी सिद्ध हो चुके हैं और दिग्विजय की सुई से सिंधिया का कांटा भी निकल सकता है। भाजपा के अखाड़े में एक पहलवान है, इसलिए टिकट मिलता या नहीं मिलता इससे फर्क नहीं पड़ता। भाजपा जीती तो घोषित ही मुख्यमंत्री बनेगा। हां, असंतुष्ट चुनाव में चिंगारियां अवश्य छोड़ सकते हैं।
मैदान में कांग्रेस के पास एंटी इनकम्बेंसी का अलीबाबा का खजाना है, मगर सिम-सिम का दरवाजा खोलने का मंत्र वह सिद्ध नहीं कर पाई। बसपा हो या सपा, गोंडवाना पार्टी हो या जयस सभी चाबियां ताले के आकार से बड़ी निकल गईं।
असंतुष्ट अब विभाजित होंगे और बिल्लियों के झगड़े में बंदर का भला होने की संभावना बढ़ेगी। भाजपा ने पचास रथ पूरे प्रदेश में उतार दिए हैं-हर शहर-गांव में विकास की बांसुरी बजाएंगे और विकास के सुझाव मांगकर मतदाता को भागीदारी का अहसास कराकर संतुष्ट करेंगे। असंतोष के विभाजन सेे आश्वस्त भाजपा संतुष्टि का सम्मोहन मंत्र भी पढ़ेगी। मंत्र का प्रभाव ग्यारह दिसंबर को दिखेगा। कांग्रेस चुनाव तक हर दिन एक सवाल करेगी और भाजपा कांग्रेस शासन के आंकड़ों से जवाब देकर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करेगी। इन सवालों-जवाबों के पचड़े में जनता पड़ेगी भी या नहीं पड़ेेगी, कहा नहीं जा सकता, क्योंकि सवाल और जवाब जब आते हैं तो वह सोचती है कि दोनों ही उसे पहले से पता हैं। यह बात भी है कि मप्र की जनता भाषा की शालीनता पर बहुत ध्यान देती है और कांग्रेस के समर्थन में गुजरात से प्रचार करने आए हार्दिक पटेल का पहले ही दिन भाजपा के शीर्ष नेताओं को गुंडा कहना शायद उसे पसंद नहीं आएगा। अपने चुनाव प्रचार में जब राहुल गांधी प्रार्थना, इबादत या अरदास कुछ भी नहीं छोड़ रहे, तब हार्दिक का यह कहना कि हम चुनावी भक्त नहीं हैं, कांग्रेस पर विपरीत प्रभाव डालता है। अतिउत्साही कांग्रेस समर्थक भी कांग्रेस के लिए कष्टकारी हो सकते हैं।