जाते-जाते 2018 किस किसके लिए साबित होगा टर्निंग प्वाइंट!

कांग्रेस के लिए खोने को कुछ नहीं तो सत्ता वापसी के दबाव में भाजपा

नजरिया… 
राकेश अग्रिहोत्री: लेखक अनादि चैनल के संपादक एवं नया इंडिया के कॉलमिस्ट हैं.


कांग्रेस और भाजपा भले ही सीधे मुकाबले में हो और दूसरे संगठन व तीसरे मोर्चे की गंभीरता पर सवाल खड़े किए जा रहे हो… बड़ा सवाल यह है कि यदि टिकट वितरण के बाद कांग्रेस-भाजपा में घमासान मचा और बागी मैदान में उतरे तो डैमेज कंट्रोल दोनों के लिए बड़ी चुनौती होगी… स्थानीय मुद्दे पीछे छूट गए तो प्रचार के निर्णायक दौर में सियासत का यह ऊंट आखिर किस करवट बैठेगा, कहना फिलहाल जल्दबाजी होगी। सवाल है कि क्या राहुल लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी के जादू और अमित शाह के मैनेजमेंट को चुनौती दे पाएंगे..?
मध्यप्रदेश का विधानसभा चुनाव इस बार राज्य में शिवराज तो केंद्र में भाजपा की मोदी सरकार के रहते होने जा रहा है.. इसलिए कांग्रेस से ज्यादा भाजपा चर्चा में है, जिसके पास अमित शाह जैसा प्रबंधन का धनी और संगठन को बदल देने वाला जुझारू व्यक्तित्व तो आक्रामक राजनीति करने वाला करिश्माई नेता मौजूद है। तमाम उपलब्धियों के बावजूद उनकी नेतृत्व क्षमता और साख दोनों कसौटी पर होगी। अमित शाह अघोषित तौर पर भाजपाशासित राज्यों की कमान भी संभाले हुए हैं तो मोदी से देश के मतदाताओं की ही नहीं खास तौर से संघ प्रमुख की अपेक्षाएं बढ़ गई है, क्योंकि इस जोड़ी का बड़ा लक्ष्य लोकसभा चुनाव जीतकर नरेंद्र मोदी को एक बार फिर प्रधानमंत्री बनाना है… इसके लिए भी तीनों भाजपाशासित राज्यों में शामिल मध्य प्रदेश कुछ खास मायने रखता है… जो विरोधियों के लिए ही नहीं पार्टी की इनर पॉलिटिक्स को भी प्रभावित करने वाला है… इस वजह से मोदी और शाह के लिए ही नहीं शिवराज के लिए भी यह चुनाव किसी टर्निंग प्वाइंट से कम नहीं होगा… जहां अपने दम पर दो विधानसभा चुनाव जिता चुके शिवराज जैसा बड़ा चेहरा खुद चुनाव मैदान में मुख्यमंत्री के दावेदार के तौर पर है… भाजपा पर यदि सरकार में एक बार फिर लौटकर दिखाने का दबाव है तो कांग्रेस के लिए खोने को ज्यादा कुछ नहीं है। लेकिन यदि इस बार गलतियों से सीख नहीं ली और वह चूक गई तो फिर बिहार, उत्तर प्रदेश की तरह मध्य प्रदेश में कांग्रेस अस्तित्व के संकट से सोचने को मजबूर होगी… यही नहीं रफाल सौदे पर पर लगातार सवाल खड़े कर आक्रामक राजनीति कर नरेंद्र मोदी का विकल्प बनने की कोशिश में जुटे राहुल गांधी का सपना भी चूर-चूर होने से इनकार नहीं किया जा सकता… क्योंकि यदि भाजपाशासित राज्यों में वह वसुंधरा, रमन सिंह के साथ शिवराज को सत्ता से बाहर नहीं कर पाए तो फिर नरेंद्र मोदी के खिलाफ राहुल गांधी की गोलबंदी की हवा निकल जाना भी तय है, जो इस बार भाजपा सरकार को उखाड़ फेंककर राष्ट्रीय राजनीति में मोदी विरोधियों को न सिर्फ एकजुट कर सकते है बल्कि अपने नेतृत्व पर सहयोगियों का भरोसा भी जीत सकते हैं… इसके लिए अभी तक कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया जिस समन्वय, सामंजस्य की सियासत का दावा कर रहे हैं उनके लिए भी यह चुनाव किसी टर्निंग प्वाइंट से कम नहीं होगा… क्योंकि दोनों लोकसभा का चुनाव लडक़र राष्ट्रीय राजनीति में खुद को सीमित रखते रहे हैं… पहली बार दोनों का एक साथ मध्य प्रदेश की कुर्सी पर दावा बना है। इन्हें सीएम-इन-वेटिंग माना जा रहा है। ज्योतिरादित्य के पास भले ही समय हो, लेकिन बदलाव के इस दौर में मध्य प्रदेश का तो दूर कांग्रेस के युवा और स्वीकार्य नेता के तौर पर खुद को साबित करने का तो उनके पास यह अंतिम मौका होगा… कमलनाथ ने भले ही अनुभव और प्रबंधन की महारत के दम पर ज्योतिरादित्य को प्रदेश अध्यक्ष नहीं बनने दिया लेकिन मुख्यमंत्री के लिए उन्हें न सिर्फ राहुल गांधी का भरोसा जीतना होगा बल्कि ज्योतिरादित्य का सहयोग भी लेना होगा तभी वह मोदी-शाह और शिवराज से सीधे दो-दो हाथ कर उम्र के इस पड़ाव में अपना मिशन मुख्यमंत्री पूरा कर सकते हैं। कुल मिलाकर कांग्रेस और भाजपा भले ही सीधे मुकाबले में हो और दूसरे संगठन और तीसरे मोर्चे की गंभीरता पर सवाल खड़े किए जा रहे हो… बड़ा सवाल यह है कि यदि टिकट वितरण के बाद कांग्रेस और भाजपा में घमासान मचा और बागी मैदान में उतरे तो डैमेज कंट्रोल दोनों दलों के लिए बड़ी चुनौती होगी… ऐसे में यदि स्थानीय मुद्दे पीछे छूट गए तो प्रचार के निर्णायक दौर में सियासत का यह ऊंट आखिर किस करवट बैठेगा, कहना फिलहाल जल्दबाजी होगी। सवाल यह भी है कि क्या बदले-बदले नजर आ रहे राहुल गांधी इस बार लोकसभा चुनाव से ठीक पहले हिंदुत्व के प्रतीक और राष्ट्रवाद के प्रणेता के तौर पर खुद को प्रोजेक्ट कर रहे नरेंद्र मोदी के जादू और अमित शाह के मैनेजमेंट को चुनौती दे पाएंगे… यह भी देखना होगा कि पिछले चुनाव में बड़ी भूमिका निभाता रहा शिवराज फेक्टर इस बार भाजपा की ताकत बनेगा या या कमजोरी…
शायद यह कहना गलत नहीं होगा कि यह चुनाव भाजपा और कांग्रेस के लिए ही नहीं बल्कि क्षेत्रीय दलों और गठबंधन की राजनीति के लिए किसी टर्निंग प्वाइंट से कम नहीं है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ के मुकाबले में मध्यप्रदेश में जीत-हार सीधे तौर पर मिशन लोकसभा को प्रभावित करेगी। इस जीत में यदि मोदी-शाह और शिवराज की भविष्य की सियासत छिपी है तो मोदी विरोधियों के लिए महागठबंधन की अंदरूनी धुरी बनने के लिए यह राहुल गांधी के लिए अंतिम मौका होगा.. तभी भाजपा के साथ एनडीए का हिस्सा रह चुकी मायावती और ममता बनर्जी के मुकाबले खुद को राहुल एक बेहतर विकल्प के तौर पर पेश कर सकेंगे… मायावती और शरद पवार के दबाव से भी कांग्रेस को बाहर निकाल सकते हैं… तो यह चुनाव विधानसभा का है लेकिन राजनीतिक दलों को ही नहीं बल्कि प्रदेश और देश के कई कद्दावर नेताओं को भी व्यक्तिगत तौर पर निर्णायक मोड़ पर लाकर खड़ा कर देगा… यह सवाल खड़ा होना लाजमी है जाते-जाते 2018 किस किसके लिए टर्निंग प्वाइंट साबित होगा….
मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव 2018 पिछले चुनावों की तरह कुछ अलग और बदले माहौल में तो नई चुनौतियों के बीच होने जा रहे हैं। यदि सीधे मुकाबले में राजनीतिक दल के तौर पर कांग्रेस और भाजपा ही आमने-सामने हैं तो व्यक्ति विशेष चाहे फिर वह नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी हो या फिर अमित शाह ही नहीं शिवराज सिंह चौहान, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य के लिए भी कुछ ज्यादा ही मायने रखते हैं… लोकसभा चुनाव 2019 से पहले सेमीफाइनल के नाते इसका अपना महत्व तो कांग्रेस, भाजपा के चुनावी गणित व समीकरणों को बिगाडऩे का दावा करने वाले छोटे क्षेत्रीय दल और संगठन बसपा, सपा, गोंगपा, सपाक्स, जयस का हस्तक्षेप भी सूबे की सियासत की दशा और दिशा को इंगित करने वाला है… इलेक्शन पॉलिटिक्स को पार्टी की मैथमेटिक्स तो पॉलीटिशियन की केमिस्ट्री दोनों ने रोचक बना दिया है… दो बड़े राजनीतिक दलों के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और राहुल गांधी की रणनीति को समझा जाए तो इस बार मुद्दा विकास बनाम भ्रष्टाचार तक सीमित नहीं रहने वाला… क्योंकि कैलाश मानसरोवर से लौटकर सीधे मध्य प्रदेश पहुंचे राहुल गांधी पहले ही सॉफ्ट हिंदुत्व की ओर बढ़ चुके हैं तो संघ प्रमुख भागवत ने अयोध्या में राम मंदिर का राग अलाप दिया है…
नरेंद्र मोदी की एंट्री से पहले अमित शाह का घुसपैठियों का मध्य प्रदेश की धरती से मुद्दा बनाने की कोशिश करने का मतलब साफ है कि उम्मीदवारों के ऐलान के साथ ही इस चुनाव को मोदी-शाह हाईजैक करने में अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ेंगे… ऐसे में यदि बात निकली है तो फिर दूर तलक जाना भी तय है… सेकुलर शिवराज के राज में जो राष्ट्रवाद, हिंदुत्व की लाइन को आगे बढ़ाएगा… जिसका बड़ा मकसद स्थानीय मुद्दे चाहे फिर वह व्यापमं, ई-टेंडरिंग घोटाला, किसान आंदोलन पीछे छोडऩा तो धर्म और आस्था की लाइन जातीय समीकरणों को ध्वस्त करने की सामथ्र्य साबित करना भी होगा… इससे विधानसभा चुनाव से माहौल लोकसभा का बन जाएगा… विपक्ष के नाते कांग्रेस और राहुल गांधी या दूसरे दल और संगठन नहीं बल्कि परिणाम कुछ भी हो चुनाव का एजेंडा मोदी और साथ ही सेट करेंगे… वह बात और है कि संघ की सोच मोदी शाह की रणनीति से ज्यादा नीति और नियत को भांपते हुए राहुल गांधी की कांग्रेस ने अपने को बदलते हुए दिखाया और उसकी नजर भी हिंदू वोटबैंक पर लग गई है। खास तौर से अयोध्या मंदिर विवाद को लेकर शुरू हुई उठापटक को लेकर वह पहले ही सतर्क हो चुकी है… इस चुनाव के परिणाम यदि लोकसभा से पहले कांग्रेस और राहुल गांधी को ताकत दे सकते हैं.. बशर्ते मोदी के मैजिक और शाह के मैनेजमेंट को वह एक्सपोज कर सके… देश की राजनीति को नई दिशा देने वाले मोदी और शाह की जोड़ी भी सवालों के घेरे में आ सकती है… क्योंकि गुजरात में बमुश्किल अपनी सत्ता बचाने में सफल रही भाजपा की छत्तीसगढ़, राजस्थान के साथ-साथ मध्य प्रदेश में भी सरकार है… जहां तमाम स्थानीय क्षेत्रीय और राष्ट्रीय राजनीति के ज्वलंत मुद्दों के साथ एंटी-इनकम्बेंसी यदि राज्य में नगरीय निकाय से लेकर विधायक, सांसद, मंत्री सरकार के साथ शिवराज और नरेंद्र मोदी के लिए भी किसी सिर दर्द से कम नहीं… इस चुनाव में मतदाता को यह भी फैसला करना है कि वह शिवराज और उनकी सरकार के फैसलों से कितना इत्तेफाक रखते हैं… क्या योजनाओं और कार्यक्रमों का व्यक्तिगत आर्थिक फायदा उठाने वाले मतदाता सब कुछ भूलकर शिवराज के चेहरे को देखते हुए कमल खिलाएंगे या फिर विकास की आड़ में भ्रष्टाचार बेहतर विकल्प तलाशने को मजबूर करेगा… तो केंद्र की सरकार रहते नरेंद्र मोदी की नीतियों और नियत भी सवालों के घेरे में आ चुकी है। बात सिर्फ देश के स्वाभिमान हिंदुत्व की नहीं बल्कि वादों से आगे इरादों की होने लगी तो मतदाताओं को यह भी सोचना है कि नरेंद्र मोदी को एक बार फिर प्रधानमंत्री बनाने के लिए शिवराज की भाजपा को पुन: सत्ता में लाना कितना जरूरी है… यानी मोदी और शिवराज की पुण्याई के साथ दोनों सरकार के साइड-इफेक्ट अंतिम समय में मतदाता की सोच बदल सकता है… तो राहुल गांधी के बढ़ते कदम, सियासत में आक्रामक अंदाज, उनकी गंभीरता गौर करने लायक होगी… क्या राहुल गांधी ने संघ, मोदी और शाह के हिंदुत्व के एजेंडे को भांपते हुए पहले ही खुद को शिव भक्त साबित कर उनकी रणनीति की हवा निकाल दी है… जो नोटबंदी, जीएसटी जैसे मोदी सरकार के फैसलों पर सवाल खड़ा कर उनके ही अंदाज में रफाल को एक बड़ा मुद्दा बनाने की फिराक में है… तो सवाल मोदी और शाह आखिर किन मुद्दों के साथ मध्य प्रदेश के मतदाताओं के बीच जाएंगे… राहुल जिन्होंने शिवराज के खिलाफ किसी एक चेहरे पर दांव ना लगाते होगे नाथ-सिंधिया की जोड़ी को अनुभवी और ऊर्जावान मानकर मतदाताओं के सामने रखा… विपक्ष जिसे नेतृत्व और चेहराविहीन बताता रहा… क्या इस बार कांग्रेस के क्षत्रप जो अभी तक कमजोर कडिय़ां साबित होते रहे, पार्टी की ताकत बनकर सामने आएंगे… जहां तक बात राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन की, सुगबुगाहट अस्तित्व में आने से पहले ही दम तोड़ चुकी है और इसके असर से मध्य प्रदेश बच नहीं पाया… यह भी याद रखना होगा कि मध्यप्रदेश में सबसे बुरी हालात से गुजर रही कांग्रेस इससे पहले भी अफवाह छेड़ दें तो बीजेपी के सीधे मुकाबले में मैदान में नजर आती रही बसपा, सपा, गोंगपा जैसे दल जरूर विधानसभा में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने में सफल रहेंगे.. बावजूद इसके भाजपा और कांग्रेस मध्य प्रदेश में अल्टरनेट बनकर ही टिके रहेंगे… अलबत्ता इस बार एट्रोसिटी एक्ट और पदोन्नति में आरक्षण जैसे मुद्दों को लेकर सवर्णों को लामबंद करने में जुटी अजाक्स ने सत्ता में रहते भाजपा की ज्यादा परेशानी बढ़ाई है… लेकिन वह अपने नाराज मतदाताओं को सीधे कांग्रेस के खेमे में नहीं जाने देने की रणनीति पर भी काम कर रही है… भाजपा इस समीकरण में अपने हित तलाश रही है। दूसरी ओर कभी कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक अनुसूचित जाति और जनजाति के वर्ग को पिछले तीन चुनाव में अपने साथ लेकर चलने में सफल रही भाजपा के लिए इस बार इस वोटबैंक को संभालना किसी चुनौती से कम नहीं होगा… न घर के और ना घाट के, यह कहावत चरितार्थ हो जाएगी यदि वह अपने सवर्ण वोटबैंक का एकतरफा समर्थन खो दें तो वहीं दूसरी ओर दलित व आदिवासियों का उनसे मोहभंग न हो जाए… यदि महाकौशल में गोंगपा तो मालवा-निमाड़ में जयस जैसे आदिवासी संगठन भी भाजपा की जमीनी जमावट में सेंध लगा चुके हैं। यह संघ के लिए किसी सिरदर्द से कम नहीं होंगे। यह बात और है कि इन संगठनों के साथ तालमेल बनाने की इच्छुक कांग्रेस को जो झटका बसपा और सपा ने दिया, उसके बाद इन संगठनों की चुनाव मैदान में मौजूदगी गौर करने लायक होगी। कांग्रेस और उनके उम्मीदवारों पर दबाव होगा कि वह खुद को भाजपा के मुकाबले बेहतर विकल्प साबित करें… यदि पहले चुनाव हार चुके उन्हीं चेहरों को फिर कांग्रेस ने मैदान में उतारा तो फिर इसका खामियाजा उसे ही भुगतना पड़ सकता है… भाजपा, खास तौर से अमित शाह की रणनीति को समझा जाए तो कांग्रेस के अलावा दूसरे उम्मीदवारों की मौजूदगी भाजपा को रास आती है… इससे विधायक ही नहीं राज्य और केंद्र सरकार से नाराज मतदाता बिखर जाएंगे और उनका एक-तरफा समर्थन कांग्रेस को नहीं मिलेगा। इस रणनीति को भाजपा ने 2008 विधानसभा चुनाव में बखूबी भुनाया था। तब भाजपा से बाहर निकाल दिए जाने के बाद उमा भारती की भारतीय जनशक्ति ने कई सीटों पर उम्मीदवार उतारकर जनता की सहानुभूति और समर्थन हासिल किया… लेकिन अंतत: इसका नुकसान कांग्रेस को ज्यादा हुआ क्योंकि वह शिवराज और भाजपा नाराज वोटरों को अपने पाले में नहीं ला सकी… जहां तक बात मध्य प्रदेश में सरकार किसकी होगी? इसका बेहतर आकलन कांग्रेस और भाजपा ही नहीं तीसरे दलों की मौजूदगी और उसके उम्मीदवार घोषित किए जाने के बाद बेहतर होगा यदि 70 से ज्यादा भाजपा विधायकों के टिकट काटकर नए चेहरे सामने लाए जाए तो कांग्रेस के लिए राह आसान नहीं होगी और भाजपा के जीत के दावे को नजरअंदाज करना भी गलत नहीं होगा… तो टिकट वितरण के बाद भाजपा से ज्यादा कांग्रेस उम्मीदवारों के खिलाफ बागियों की मौजूदगी भी गौर करने लायक होगी… वैसे पीढ़ी परिवर्तन के इस दौर में भाजपा के लिए भी डैमेज कंट्रोल किसी चुनौती से कम नहीं होगा… क्योंकि टिकट से वंचित भगवाधारियों के लिए भी इस बार सत्ता से दूर रहना आसान नहीं होगा। बेहतर विकल्प की तलाश उन्हें चुनाव मैदान तक ले जाए तो कोई बड़ी बात नहीं… कुल मिलाकर देखना दिलचस्प होगा कि शिवराज की पुण्याई, मेहनत और समर्पण पर सरकार के खिलाफ एंटी-इनकम्बेंसी और टिकट वितरण में चूक भारी पड़ती है तो मोदी और शाह की कार्यशैली और नेतृत्व क्षमता भाजपा, शिवराज के लिए मध्यप्रदेश में ताकत बनेगी या फिर इनके खिलाफ गुस्सा, कांग्रेस की राह आसान करेगा… नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए बेहद जरूरी हो गया है कि मध्य प्रदेश में भाजपा सत्ता में लौटे। वे यह भी जानते हैं कि यदि गुजरात के मुकाबले यहां भाजपा को अनपेक्षित तौर पर सीट ज्यादा मिलती है और एक नया कीर्तिमान बनता है ..तो इसका श्रेय शिवराज को देना ही होगा… क्योंकि मोदी और शाह अपने गुजरात में 100 पार नहीं कर पाए थे… क्या मिशन 2019 को ध्यान में रखते हुए भाजपा की इस ताकतवर जोड़ी के लिए यह आसान होगा? यदि भाजपा चौथी बार सत्ता में लौटी तो शिवराज पार्टी के अंदर नरेंद्र मोदी न सही अमित शाह के मुकाबले तो दूसरे बड़े नेता बन चुके होंगे… शायद संघ को भी यह अब रास आएगा… जो लोकसभा में भाजपा को पूर्ण बहुमत न मिलने पर गठबंधन की स्थिति में पार्टी का राष्ट्रीय चेहरा भी बन सकते हैं… तो इस चुनाव में भाजपा की राष्ट्रीय नेतृत्व की कोशिश मध्य प्रदेश को शिवराज के आभामंडल से बाहर निकालकर पूरी तरह से अपने कब्जे में लेने की जरूर होगी… जिसकी स्क्रिप्ट राकेश सिंह को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनाकर लिखी जा चुकी… तो सावधान भाजपा के नेताओं को पार्टी पॉलिटिक्स को ध्यान में रखते हुए रहना ही होगा.. जो कुछ भाजपा में ऊपर दिख रहा है शायद वह पूरा सच नहीं है क्योंकि सरसंघचालक मोहन भागवत अयोध्या मंदिर के मुद्दे को हवा दे चुके हैं… दूसरी ओर अभी तक 2024 लोकसभा चुनाव का इंतजार करती रही कांग्रेस के लिए भाजपाशासित राज्यों के साथ खासतौर से मध्य प्रदेश में सत्ता का वनवास खत्म करना जरूरी हो चुका है क्योंकि मोदी के खिलाफ देश के दूसरे विरोधी नेताओं की तुलना में ज्यादा मुखर और आक्रामक राजनीति कर रहे… राहुल गांधी को यदि सीधी ताकत देना है तो यह संजीवनी उसे मध्य प्रदेश से मिल सकती है.. जो न सिर्फ शिवराज बल्कि नरेंद्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व पर सवाल खड़ा करेगा। जहां तक बात प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ की है तो राज्य की राजनीति से अभी तक दूर रहे नाथ के लिए यह अंतिम मौका होगा कि वह अपने दीर्घ अनुभव और बेहतर प्रबंधन को साबित कर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे या फिर बड़ा दिल दिखाकर नई पीढ़ी का भरोसा जीतने के लिए वह खुद ज्योतिरादित्य को सामने रख अपना दावा छोड़ दें… इससे मध्यप्रदेश में कांग्रेस का कायाकल्प हो सके… ज्योतिरादित्य के पास समय है लेकिन यदि कांग्रेस इस बार चूक गई तो फिर लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का गढ़ माने जाने वाली सिंधिया की गुना-शिवपुरी ही नहीं, नाथ की छिंदवाड़ा सीट के साथ भूरिया की झाबुआ लोकसभा सीट खतरे में पड़ सकती है… और नाथ-सिंधिया की जोड़ी का टूटना ही नहीं बल्कि कांग्रेस के भी बिखरने से इनकार नहीं किया जा सकता… तो देखना दिलचस्प होगा कि उम्मीदवारों के नाम घोषित होने के बाद प्रचार के निर्णायक दौर में फिलहाल कांटे की टक्कर नजर आ रहे मुकाबले में कौन किस पर भारी पड़ता है… तो यह कहना गलत नहीं होगा कि मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव न सिर्फ कांग्रेस और भाजपा के लिए टर्निंग प्वाइंट होगाबल्कि इस चुनाव के अहम किरदार माने जाने वाले नरेंद्र मोदी, अमित शाह, शिवराज सिंह चौहान के साथ-साथ राहुल गांधी, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य के लिए व्यक्तिगत तौर पर किसी टर्निंग प्वाइंट से कम नहीं होगा। जीत और हार दोनों में इन नेताओं की बंद मुट्ठी खुलने वाली है…