शिवराज अकेले कांग्रेस के आक्रमण का सामना करने को मजबूर

भोपाल । प्रदेश में अब चुनावी प्रचार पूरे उफान पर पहुंच गया है। स्थानीय के अलाव दलों के बड़े नेताओं के उडऩखटोले आसमान में उडऩे लगे हैं। जगह- जगह सभाओं व जनसंपर्क को दौर पूरे जोर-शोर से जारी है। ऐसे में सत्ता को करीब आते देखे कांग्रेस के कई दिग्गज एक साथ भाजपा के खिलाफ पूरी ताकत से आक्रमक होकर चुनावी मैदान में दिख रहे हैं तो ऐन वक्त पर भाजपा की ओर से मुकाबला करते सिर्फ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ही दिख रहे हैं। दरअसल चौहान को चुनावी मोर्र्चाे पर अपने लोगों का साथ पूरी तरह नहीं मिल रहा है। यह हाल प्रदेश में जब है तब केन्द्र में प्रदेश से कई सांसद मंत्री हैं। यह मंत्री देश व प्रदेश में बड़े नेता की पहचान भी रखते हैं। इनमें उमा भारती, थावरचंद गहलोद और सुषमा

स्वाराज जैसे नाम शामिल हैं। हालांकि यह नेता दिखावे के लिए ही सक्रिय नजर आ रहे हैं। प्रदेश में इस अन्य राज्यों की तुलना में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभाओं का भी कम आयोजन किया जा रहा है, जबकि उन्होंने कर्नाटक विधानसभा चुनाव के लिए 21 जनसभाएं तथा गुजरात चुनाव में 34 रैलियां की थीं। शिवराज सिंह चौहान की पत्नी साधना सिंह को रेहटी के बाद अब नसरुल्लागंज में भी जनता के गुस्से का शिकार होना पड़ा। यहां जनसंपर्क के दौरान लोगों ने विकास कार्यों और वादों के पूरा न होने पर उनके सामने अपनी भड़ास निकाली , जिसके वीडियो वायरल होने के बाद से भाजपा परेशान है।
खल रही अनिल दवे की कमी
अनिल दवे के निधन का असर भी भाजपा की प्रदेश की राजनीति पर असर साफ नजर आ रहा है। भाजपा में दवे जिस जिम्मेदारी को संभालते थे, उसे संभालने के लिए केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, धर्मेद्र प्रधान, भाजपा के प्रवक्ता डॉ. संबिता पात्रा सहित कई प्रमुख नेताओं को भोपाल में लाना पड़ा है। इसके बाद भी पार्टी में न तो सामंजस्य बन पा रहा है और न ही बगावत को थामा जा पा रहा है। चुनाव करीब आते ही भाजपा की राज्य इकाई को संचालित करने की कमान पूरी तरह दिल्ली के नेताओं के साथ सौंप गई है। राज्य के नेता वही कर रहे हैं जो पार्टी हाईकमान द्वारा भेजे गए नेता निर्देश दे रहे हैं। इस तरह राज्य के नेताओं की हैसियत सिर्फ आदेश का पालन करने वाले कार्यकर्ताओं की होकर रह गई है।
ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस का मुख्यमंत्री उम्मीदवार माना जा रहा था। मगर 72 वर्षीय कमलनाथ ने जिस आक्रामक अंदाज में प्रचार किया है, उससे मुकाबला रोचक हो गया है। उम्मीदवार तय करने के अहम भूमिका अदा करने वाले अहमद पटेल, मुकुल वासनिक, मधुसूदन मिस्त्री, वीरप्पा मोइली और अशोक गहलोत जैसे दिग्गिज कमलनाथ के साथ हैं। नाथ के ही सहयोगी दिग्विजय सिंह ने बागियों को किनारे करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। राहुल ने कई बार कहा है कि कांग्रेस के लिए करो या मनो की इस लड़ाई में एकता जरूरी है। अगर पार्टी बिना किसी सहयोग के जीत दर्ज करती है तो 2019 में प्रमुख विपक्षी दल के तौर पर उसकी भूमिका पुष्ट हो जाएगी। दूसरी तरफ भाजपा शायद यह नहीं समझ रही कि राज्य में सत्ता पर काबिज रहना उसके लिए कितना अहम है। लोकसभा चुनाव से पहले विधानसभा चुनावों में हार उसे बैक-फुट पर ला देगी।