पत्रकार बलराम पांडेय
भोपाल इस बार कांटे की टक्कर है- मध्य प्रदेश में इन दिनों यह बात ज्यादातर लोगों की जुबान पर है। सूबे के मौजूदा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अब तक के सबसे मुश्किल चुनाव का सामना कर रहे हैं, जबकि कांग्रेस पहले के मुकाबले ज्यादा संगठित नजर आ रही है । 15 सालों से सत्ता में रहने की वजह से स्वाभाविक तौर पर बीजेपी अपेक्षाएं पूरी न होने के आरोपों का सामना कर रही है। हालांकि, बीजेपी के लिए राहत की बात यह है कि उसके खिलाफ जाने वाली इन तमाम बातों के बीच शिवराज की लोकप्रियता काफी हद तक बरकरार है और इसी वजह से 13 सालों से मुख्यमंत्री रहने के बावजूद उनकी पार्टी कांटे की लड़ाई में बनी हुई है।
कौन-सा मुद्दा भारी ?
इस चुनाव में पूरे प्रदेश में कोई एक बड़ा मुद्दा हावी नहीं है। अलग-अलग जगहों और समूहों के अपने-अपने मुद्दे हैं, चाहे वह किसानों में असंतोष हो या फिर सवर्णों की नाराजगी। मुद्दों के साथ-साथ अलग रीजन में भी हवा का रुख एक जैसा नहीं है। किसी रीजन में बीजेपी में तो किसी में काग्रेस बढ़त लेती दिख रही है।
पूरे देश की तरह मध्य प्रदेश में भी सबसे बड़ा वोटर वर्ग किसान है, तो लिहाजा इसको लेकर ही सबसे ज्यादा दावे-प्रतिदावे हैं और इन्हें ही सबसे ज्यादा लुभाने की कोशिश हो रही है। कांग्रेस ने सरकार बनने पर 10 दिनों के भीतर किसानों का 2 लाख रुपये तक का कर्ज माफ करने का वादा किया है। इसका असर किसानों के बीच दिख भी रहा है। मंदसौर फायरिंग की बरसी पर इस साल जून में आयोजित सभा में जब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने यह वादा किया था उसके बाद से कई किसानों ने कर्जमाफी की उम्मीद में लोन चुकाने बंद कर दिए हैं।
दूसरी तरफ, शिवराज सरकार पहले से ही किसानों को छोटी अवधि के कर्ज बिना ब्याज के दे रही है और सरकार का मानना है कि 80% किसान इसके दायरे में आ जाते हैं। भावांतर और फसलों पर बोनस जैसी स्कीम्स से भी सरकार को किसानों की नाराजगी दूर होने का भरोसा है। इसके अलावा, कांग्रेस के कर्जमाफी के वादे की काट के लिए प्रधनामंत्री नरेंद्र मोदी अपनी सभाओं में यह आरोप लगाने से नहीं चूकते कि कर्नाटक और पंजाब में भी ऐसे ही वादे किए गए थे लेकिन, अब लोन न चुकाने वाले किसानों के खिलाफ वॉरंट निकल रहे हैं।
एससी-एसटी ऐक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने को लेकर सवर्णों में बीजेपी से नाराजगी है। इस फैसले के विरोध से उभरी सपाक्स पार्टी (सामान्य, पिछड़ा एवं अल्पसंख्यक वर्ग अधिकारी कर्मचारी संस्था ) भी मैदान में है, लेकिन जमीन पर इसका बहुत असर नहीं दिख रहा है। सपाक्स के ज्यादातर उम्मीदवार वोट काटने वाले की भूमिका में ही हैं और इस बात की उम्मीद कम ही है कि इस पार्टी का खाता भी खुले।
एससी और एसटी वर्ग में बीजेपी को अच्छा समर्थन मिलता दिख रहा है। पिछले विधानसभा चुनाव में भी जनजातियों के लिए आरक्षित कुल 47 सीटों में से बीजेपी को 32 पर सफलता मिली थी और कांग्रेस की झोली में महज 15 सीटें गई थीं, जबकि एससी के लिए रिजर्व 35 सीटों में से 28 बीजेपी के पास, 4 कांग्रेस के पास और तीन सीटों पर बहुजन समाज पार्टी के विधायक हैं । एससी-एसटी वर्ग के समर्थन के पीछे शिवराज सरकार की लोक कल्याणकारी योजानाएं बताई जा रही हैं। अगर बीजेपी रिजर्व 82 सीटों पर 2013 की सफलता को दोहरा लेती है, तो उसे सरकार बनाने से रोकना मुश्किल होगा।
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक एनके सिंह कहते हैं कि ग्रामीण इलाकों में ही नहीं, शहरी क्षेत्रों में भी गरीबों के बीच शिवराज की लोक कल्याणकारी योजनाओं का गहरा असर है। हालांकि, मध्य प्रदेश विधानसभा के पूर्व मुख्य सचिव भगवान देव इसराणी कहते हैं कि शिवराज की मंशा और योजनाएं अच्छी हैं लेकिन कई स्कीम्स जमीन पर ठीक से लागू नहीं हुई हैं। वह इसके लिए नौकरशाहों और बीजेपी से संबंध रखने वाले स्थानीय प्रभावशाली लोगों को जिम्मेदार मानते हैं।
भगवान देव को लगता है कि शिवराज को सरकारी कर्मचारियों की नाराजगी भी झेलनी पड़ सकती है। उनका मानना है कि प्रमोशन अटकने की वजह से सूबे के सरकारी कर्मचारियों की नाराजगी से बीजेपी को नुकसान हो सकता है। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने 30 अप्रैल 2016 को मप्र लोक सेवा (पदोन्नति ) अधिनियम 2002 को खारिज कर दिया था, इसके खिलाफ प्रदेश सरकार सुप्रीम कोर्ट में सशर्त प्रमोशन की इजाजत लेने के लिए अपील कर चुकी है लेकिन अभी तक इस पर फैसला नहीं आया है। इस दौरान पिछले दो सालों में हजारों लोग बिना प्रमोशन पाए रिटायर हो गए और हजारों सेवारत कर्मचारियों का प्रमोशन अटका हुआ है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान लगातार यह आश्वासन देते रहे हैं कि प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए नए नियम बनाएंगे । उनके इस बयान से भी सामान्य वर्ग के वोटर नाराज हैं।
समस्याएं दोनों तरफ
इसमें कोई शक नहीं है कि पिछले डेढ़ दशक में कांग्रेस इस बार सबसे अच्छा चुनाव लड़ रही है। टिकट बंटवारे के समय शुरुआती खींचतान के बाद प्रदेश कांग्रेस के दिग्गज नेताओं में तालमेल भी ठीकठाक है। 2008 और 2013 के चुनाव में सार्वजनिक रूप से सक्रिय न दिखने वाले दिग्विजय सिंह भी इस बार अपने स्तर पर प्रयास करते दिख रहे हैं। लेकिन, कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसके किसी भी नेता का शिवराज सिंह की तरह पूरे प्रदेश में प्रभाव नहीं है। ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ, सुरेश पचौरी और नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह अपने-अपने क्षेत्र में प्रभावशाली हैं।
दूसरी तरफ, बीजेपी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि 15 सालों से उसकी सरकार है और लोगों में बदलाव की चाह भी है। बीजेपी उम्मीदवारों को कई इलाकों में काफी विरोध का भी सामना करना पड़ा है। भोपाल में पार्टी के एक नेता में बताया कि टिकट बंटवारे की वजह से भी कई जगहों पर असंतोष है। उनके मुताबिक,दूसरी समस्या यह है कि योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए सरकार पूरी तरह से नौकरशाहों पर निर्भर रही, जिसकी वजह से कार्यकर्ताओं में नाराजगी है और वे उतने सक्रिय नहीं दिख रहे हैं।
हालांकि, उन्हें यह भी भरोसा है कि पार्टी समय रहते कार्यकर्ताओं और बागियों को मना लेगी। चुनाव विश्लेषक सुदीप श्रीवास्तव भी मानते हैं कि शिवराज की तीसरी सरकार पूरी तरह से नौकरशाहों पर निर्भर रही और इस वजह से कार्यकर्ताओं में संदेश गया कि उनकी कहीं सुनी नहीं जा रही है और वे घर बैठ गए हैं।
बीजेपी के लिए राहत की बात यह है कि सवर्णों और किसानों के एक हिस्से की नाराजगी के बीच एससी-एसटी समुदाय मोटे तौर पर पार्टी के साथ है। इसके अलावा शहरी क्षेत्रों के कमजोर तबके में भी बीजेपी के लिए अच्छा समर्थन दिख रहा है।
क्षेत्रों का गणित
राज्य में विधानसभा की 230 सीटों में से बीजेपी को पिछली बार 165 सीटें मिली थी और 58 पर कांग्रेस के उम्मीदवार जीते थे। चार पर बीएसपी और तीन पर अन्य उम्मीदवार जीते थे। जानकारों का मानना है कि इस बार जीत-हार का अंतर इतना विशाल नहीं होने जा रहा है। कांटे के मुकाबले को देखते हुए भविष्यवाणी की जा रही है कि नंबर एक और नंबर दो की पार्टी के बीच अधिकतम 25-35 सीटों का अंतर हो सकता है। क्षेत्रवार बात करें तो पिछले चुनाव में बीजेपी सभी इलाकों में आगे रही थी।
महाकौशल की 38 सीटों में से 24 पर बीजेपी जीती थी और कांग्रेस को महज 13 सीटें मिली थीं। इस बार भी यहां से कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री पद के दावेदार माने जा रहे कमलनाथ की प्रतिष्ठा दांव पर है। कमलनाथ के प्रभाव को कम करने के लिए बीजेपी ने अपने प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह को लगाया है, जो इसी इलाके से हैं। मालवा यानी इंदौर के आसपास के इलाके लंबे समय से बीजेपी के गढ़ रहे हैं। मालवा और निमाड़ को मिला दें तो 66 में से 56 पर बीजेपी को सफलता मिली थी। कैलाश विजयवर्गीय इस बार मैदान में नहीं है, लेकिन उनका बेटा आकाश विजयवर्गीय इंदौर की तीन नंबर सीट से मैदान में हैं।
नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह के प्रभाव वाले विंध्य और एक और मुख्यमंत्री पद के दावेदार ज्योतिरादित्य सिंधिया के प्रभाव वाले ग्वालियर-चंबल संभाग में भी बाजी बीजेपी के हाथ लगी थी। इस बार विंध्य में कांग्रेस के स्थिति मजबूत बताई जा रही है और उम्मीद जताई जा रही है कि पिछले बार के 30 में से 12 सीटों पर जीत के प्रदर्शन को वह सुधार सकती है। ग्वालियर-चंबल में ज्योतिरादित्य सिंधिया का दबदबा है और वह मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी हैं, तो कांग्रेस को उम्मीद है कि यहां की 34 सीटों में से आधे से अधिक पर उसे जीत मिल सकती है। पिछली बार इस क्षेत्र से उसे महज 12 सीटें मिली थीं।