पांच राज्यों में से तीन में जहां मतदान हो चुके हैं क्या कोई लहर थी? अब तक किसी भी मीडिया रिपोर्ट में या नेताओं के श्रीमुख से सुनने को नहीं मिला कि मध्यप्रदेश में कोई लहर थी. मतदाता खामोश है. कशमकश हर सीट में है. माई के लाल नाराज हैं. कुलजमा यही सुनने को मिला.
अब यदि 11 दिसंबर तक अखबारों में वर्ग पहेली न भी छपे, तो पाठकों को कोई ऐतराज नहीं होगा. चुनाव आयोग ने बैठे-ठाले गुणा-भाग लगाने का मौका दे दिया है. परिणाम आने के पहले तक एक-एक बार सभी प्रत्याशियों की पतंगें चंग पर चढ़ेंगी, हमारे शहर के प्रत्याशी छोटेलाल की भी. छोटे भाई खटिया चुनाव चिह्न के साथ निर्दलीय मैदान पर थे और उनके नारे ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया- ‘समूची व्यवस्था घटिया है, उसका विकल्प खटिया है’.
है कि लड़ने वाला हर छोटे से छोटा उम्मीदवार चौबीस घंटे में कुछ सेकेंड के लिए ही सही खुद को जीता हुआ मान लेता है. जीतने का गणित सबका अपना-अपना होता है और उस हिसाब से उसके अपने निष्कर्ष.
वोटर का भी अपना गुणा-भाग होता है. आप पूछिए तो जीतने वाले उम्मीदवार में उसी का नाम निकलेगा, जिसे उसने वोट दिया है. फिर वह अपने उम्मीदवार के पक्ष में तर्कों की ऐसी झड़ी लगाएगा कि उसे आप तब तक सही मानते रहेंगे, जब तक कि प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार का कोई वोटर अपने गणित के साथ न मिल जाए. जहां त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय मुकाबला है वहां चार वोटरों से बात करिए तो आपका दिमाग फिरंगी की तरह घूमने लगेगा.
आखिर हम मीडिया के लोग भी पहले एक वोटर हैं. अपनी भी पसंद नापसंद है. सो हम जो आंकलन पेश करेंगे वह भी कोई ब्रह्म वाक्य नहीं होगा. औसतन होता यह है कि हम मीडिया के लोग ज्यादा पक्षपाती तरीके से निष्कर्ष देने लगते हैं. वर्षों से जो पसंद या नापसंद होती है उसी को अपने तर्कों का जामा पहनाने में लग जाते हैं.
आजकल ज्यादातर मीडिया हाउस अपने-अपने हिसाब से सत्ता सापेक्ष या उसके विरुद्ध होते हैं. सत्ता या विपक्ष से ‘संबंधों’ के हिसाब से अपने-अपने एजेंडे तय करते हैं और जब तक आखिरी परिणाम नहीं आता तब तक अपने-अपने तर्कों को लेकर डटे रहते हैं.
यहां हम जीत हार का आंकलन नहीं, बल्कि पुराने दृष्टांत और बेजान संख्यकीय आंकड़े रखेंगे ताकि आपको अपने-अपने तथ्यों और तर्कों को मजबूत करने के लिए कुछ और मसाला मिल सके.
सबसे पहले एक बड़ा हल्ला वोटिंग परसेंट के बढ़ने का है. इसे लेकर दो मत स्पष्ट मत हैं. एक पूर्व स्थापित मत है कि बढ़ा हुआ वोटिंग परसेंट सत्ता के खिलाफ जाता है. दूसरा यह सत्ता को और मजबूत करता है. दोनों के अलग-अलग दृष्टांत हैं. हमने 77 की जनता लहर में और फिर 89 की जनमोर्चा लहर में ऐसा देखा. एक लहर सहानुभूति की भी होती है, इंदिरा की हत्या के बाद 1985 में हुए लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव में देख लिया. एक भावनात्मक लहर भी होती है. 2003 के चुनाव में मध्यप्रदेश में दिग्विजय विरोधी लहर वोटरों के सिर पर सवार होकर चलती दिखी. 2014 के चुनाव में मोदी लहर सभी ने महसूस की.
अब सवाल यह उठता है कि देश के पांच राज्यों में से तीन में जहां मतदान हो चुके हैं क्या कोई लहर थी? अब तक किसी भी मीडिया रिपोर्ट में या नेताओं के श्रीमुख से सुनने को नहीं मिला कि मध्यप्रदेश में कोई लहर थी. मतदाता खामोश है. कशमकश हर सीट में है. माई के लाल नाराज हैं. कुलजमा यही सुनने को मिला. ये वक्त है बदलाव का या माफ करो महाराज-मेरा नेता शिवराज सिर्फ़ इश्तहारों में ही जोर मारता दिखा. वक्त है बदलाव का प्रचारकों की जुबान से निकल कर वोटरों के दिमाग में कितना चढ़ा इसकी ज्यादा ध्वनि सुनने को नहीं मिली.
तो अब जो ये वोट परसेंट बढ़ा है इसकी सांख्यिकी क्या कहती है यह भी जानिए. हमारे पास मध्यप्रदेश के पिछले 4 चुनावों के आंकड़े हैं. संक्षेप में- 1998 में वोटिंग परसेंट था 60.72. संयुक्त मध्यप्रदेश में भाजपा को 119 और कांग्रेस को 172 सीटें मिलीं. 2003 का चुनाव दिग्विजय विरोधी लहर में लड़ा गया तो वोट परसेंट 7 फीसदी उछलकर 67.25 पहुंच गया. कांग्रेस इतिहास के निम्नतम आंकड़े 38 में चली गई. 2008 के चुनाव में 2 परसेंट वोट बढ़े भाजपा कुछ घटी पर 143 सीटों पर ठहर गई. कांग्रेस को 71 सीटें मिलीं. इस चुनाव में उमा भारती की पार्टी जनशक्ति भी मैदान पर थी उसने काफी वोट कटाए थे.
2013 में वोट परसेंट ने पहली बार सत्तर का आंकड़ा पार किया. 72.05 परसेंट की वोटिंग में भाजपा ने अपनी सीटों को पिछली मर्तबा के मुकाबले लगभग दूना करते हुए 71 तक पहुंचा दिया. इस बार 3 परसेंट वोट बढ़े हैं यानी कि 75 पार हो गए. यह अब तक का एक रिकॉर्ड है. 2003 में जब दिग्विजय सिंह सरकार के खिलाफ एंटीइनकंबेंसी थी तो वोट परसेंट का उछाल 7 परसेंट का है. यदि इस बार भी वैसी ही स्थिति मानें और परसेंट से वोटरों के गुस्से को नापें तो शिवराज सिंह के खिलाफ यह दिग्विजय के मुकाबले आधा ही है.
तो वोट परसेंट क्यों बढ़ा? इसका सरल जवाब है कि वोटर ज्यादा निर्भय हुए हैं, चुनाव आयोग का कैंपेन प्रभावी रहा. कांग्रेस और भाजपा दोनों ने लगातार वोटरों को ज्यादा से ज्यादा मतदान करने की अपील की. आखिरी दिन भाजपा का 90 फीसदी तक वोटिंग करने की अपील वाला बड़ा विज्ञापन अखबारों में छपा. तो इस लिहाज से यदि दोनों प्रमुख दल बढ़े हुए वोट परसेंट को अपने-अपने हक में मानें तो यह उनका सास्वत अधिकार बनता है.
पिछले कुछ चुनावों के ट्रेंड देखें, तो दो धाराएं साफ दिखेंगी. एक जहां वोटर वोकल-एग्रेसिव होता है, दूसरी शांत चुपचाप रहस्यमयी मुस्कान लिए हुए. याद करिए यूपीए-2, मनमोहन सिंह के नेतृत्व में 2009 में जब यूपीए और भी ताकत से लोकसभा पहुंची तो मीडिया भी सन्न रह गया. उस बार आडवाणी ‘पीएम इन वेटिंग’ थे. यूपीए-2 के बाद फिर खोज खबर ली गई, तो पता चला कि यह कमाल मनरेगा का था, सोशल सेक्टर की योजनाओं का था. यूपीए-1 में मनमोहन सिंह ने जिस तरह सूचना के अधिकार, शिक्षा और काम के अधिकार समेत आम आदमी को सशक्त करने वाली योजनाओं और कार्यक्रमों की झड़ी लगा दी थी यह उसका असर था.
इस चुनाव में सोशल वेलफेयर की योजनाओं का रंग अभी नहीं दिख रहा है. पीएम मोदी ने मनरेगा से प्रभावी एक के बाद एक सोशल वेलफेयर योजनाओं की झड़ी लगा दी है. उनमें से बड़ा तुरुप प्रधानमंत्री आवास योजना का है. रसोई गैस, पेंशन, जनधन है. एक झुग्गी वाले को फ्लैट मिल जाना उसे ताजमहल मिल जाने जैसा है. शिवराज सिंह चौहान की कुलजमा राजनीतिक पूंजी ही सोशल सेक्टर की योजनाएं हैं.
इसलिए गुणा-भाग में वो तो सब शामिल है जो सामने दिखता है, लेकिन जो ढंका मुदा है उसका आंकलन लगाना चुनाव के माहिर गणितबाजों के पास भी नहीं. यहां मेरे प्रिय शायर निदा फाजली की एक नसीहत याद रखने लायक है-.