प्रदेश की राजनीति में इन दिनों श्रीमंत को लेकर कई तरह
की चर्चाएं आम हैं। कहा जा रहा है कि वे अपने गृह अंचल ग्वालियर -चंबल को छोडक़र मालवा निमाड़ अंचल को अपना नया राजनैतिक ठिकाना बना सकते हैं। इसके लिए लोगों के अपने-अपने तर्क हैं। बताया जा रहा है कि श्रीमंत ने अपनी लोकप्रियता पता करने के लिए कुछ दिनों पहले एक सर्वे कराया था, जिसके बाद से ही वे खासतौर पर इंदौर में सक्रिय हुए हैं। इसके तहत उनके द्वारा वहां लोगों से मिलना जुलना व सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी भाग लेना शुरु किया जा चुका है। दरअसल अपने परिवार की राजशाही इलाके में आने वाली गुना सीट उनकी परंपरागत सीट रही है, लेकिन बीते चुनाव में उन्हें उनके ही पूर्व एक अदने से कार्यकर्ता केपी यादव ने लोकसभा चुनाव में भाजपा के टिकट पर उतर कर हारने पर मजबूर कर दिया था। यह बात अलग है कि अब वहां राजनैतिक परिदृश्य बदल चुका है। इसकी वजह है कि अब खुद श्रीमंत भाजपाई हो चुके हैं। उधर, इंदौर में भी संशय की स्थिति बनने लगी है तो श्रीमंत के करीबी उनके रतलाम से चुनाव लडऩे की बात कहने लगे हैं। खैर यह तो समय ही बताएगा कि वे कहां से चुनाव लड़ेंगे या फिर लोकसभा चुनाव से दूर ही रहेंगे। वे अभी राज्यसभा के सदस्य हैं और उनका कार्यकाल लोकसभा चुनाव के बाद ही समाप्त होगा। श्रीमंत का राज्यसभा का कार्यकाल 9 अप्रैल 1926 तक है। कहा तो यह भी जा रहा है कि वे आसान जीत की गारंटी पर ही लोकसभा का चुनाव लड़ेंगे। यह बात अलग है कि बदली हुई परिस्थियों में अब वे अपने साथ कांग्रेस छोडक़र भाजपा में आने वाले विधायकों से उतनी गर्मजोशी से नहीं मिलते हैं, जिस तरह से वे पहले मुलाकात किया करते थे।उनके करीबी यह कहने में भी पीछे नहीं रहते हैं कि अब महाराज बदल गए हैं। दरअसल श्रीमंत के लिए बीते लोकसभा चुनाव में हारना अब तक का सबसे बड़ा झटका था। गुना लोकसभा सीट सिंधिया राजघराने की पांरपरिक सीट मानी जाती रही है। इस सीट से उनके परिवार की तीन पीढिय़ों को 14 बार सांसद के तौर पर जनता ने चुनकर भेजा है। श्रीमंत की दादी विजयाराजे सिंधिया 6 बार गुना से सांसद रहीं, तो उनके पिता माधवराव 4 बार चुने गए थे। ज्योतिरादित्य ने भी चार बार इस क्षेत्र का संसद में प्रतिनिधित्व किया। बीजेपी ने बीते लोकसभा चुनाव से पहले उन्हें मात देने के लिए जयभान सिंह पवैया, नरोत्तम मिश्रा को मैदान में उतारा था, लेकिन उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा था। इसके बाद भी उन्हें खास सिपहसालार रहे बीजेपी उम्मीदवार कृष्णपाल (केपी) यादव से सवा लाख वोटों से पराजित होना पड़ा था। केपी यादव के पिता रघुवीर सिंह यादव चार बार जिला पंचायत अध्यक्ष रह चुके थे। पेशे से डॉक्टर केपी ने 2004 में राजनीति में एंट्री ली और वह जिला पंचायत सदस्य चुने गए थे। राजनीति के साथ-साथ सामाजिक कार्यों में रुचि लेने वाले यादव धीरे-धीरे श्रीमंत की पसंद बन गए और जल्द ही वे सांसद प्रतिनिधि की भूमिका निभाने लगे थे। इस बीच बीते चुनाव में यादव अशोकनगर जिले की मुंगावली विधानसभा सीट से 2018 के विधानसभा चुनावों में अपने लिए कांग्रेस से टिकट मांग रहे थे। सिंधिया ने भी केपी के लिए हामी भर दी थी और उनसे क्षेत्र में प्रचार करने को कह दिया गया था, लेकिन ऐन मौके पर उनका टिकट काट दिया गया था, जिसके बाद नाराज केपी यादव ने बीजेपी का दामन थाम लिया था, लेकिन उसके बाद यादव को विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के बृजेंद्र सिंह यादव से करीबी हार का सामना करना पड़ा था। इसके बाद बीजेपी ने उनको लोकसभा चुनाव में श्रीमंत के खिलाफ उतारा, जिसमें वे जीतने में सफल रहे थे।
परिवारवाद को लेकर हलचल मौजूदा समय में प्रदेश भाजपा में परिवारवाद को लेकर बड़ी हलचल मची हुई है। संगठन इस असमंजस के दौर से गुजर रहा है कि नेता पुत्रों को टिकट दिया जाए या नहीं, इस बीच श्रीमंत ने बगैर आलाकमान से अनुमति लिए अपने बेटे महाआर्यमन को अपना राजनैतिक उत्तराधिकारी बनाने के लिए अभी से सक्रिय कर दिया है। कहा जाता है कि श्रीमंत चाहते हैं कि ग्वालियर से उनके बेटे को टिकट मिले। यही वजह है कि महाआर्यमन लगातार अपनी विधानसभा में घूम रहे हैं। भाजपा अगर आर्यमन को टिकट देती है तो उसे उन दो दर्जन नेता पुत्रों को भी टिकट देना पड़ेगा, जो बीते चुनाव में भी टिकट के दावेदार बने हुए थे। उनमें से कई नेता पुत्र तो ऐसे हैं, जिनकी पकड़ अपने -अपने इलाकों में बेहद मजबूत मानी जाती है और वे सालों से क्षेत्र में सक्रिय भी बने हुए हैं।
पटरी नहीं बैठ पाना है मुसीबत
भाजपा में आने के बाद से श्रीमंत और उनके समर्थकों की मूल भाजपाईयों से पटरी नहीं बैठ पा रही है। तमाम प्रयासों के बाद भी पुराने भाजपा कार्यकर्ताओं से पटरी नहीं बैठ पा रही है। पुराने कार्यकर्ता भी उन्हें अपना मानने को तैयार नहीं हैं। यही नहीं उनके समर्थक विधायक जो अब मंत्री बन चुके हैं वे भी अपने समर्थकों को ही अधिक महत्व देते हैं, जिसकी वजह से भी दिक्कतें खड़ी हो रही हैं। ऐसे में मूल भाजपा कार्यकर्ताओं व नेताओं में श्रीमंत को लेकर नाराजगी है। यही वजह है कि अब कांग्रेस के साथ ही मूल भाजपा नेताओं से भी श्रीमंत को चुनाव के समय भितरघात का खतरा बना हुआ है।