छत्तीसगढ़: पुलिस मुठभेड़ पर उठते प्रश्न, नक्सलियों ने की शांति वार्ता की पेशकश

नक्सलियों की सेंट्रल कमेटी ने एक बयान में कहा है कि अगर सरकार नक्सलियों के ख़िलाफ़ चल रहे अभियानों को रोक देती है, तो वे बिना शर्त शांति वार्ता के लिए तैयार हैं. पिछले 15 महीनों में हुई पुलिस मुठभेड़ों में 400 से अधिक लोग मारे गए हैं, जिसके बाद जनता के हित में वे अब शांति वार्ता की दिशा में कदम बढ़ाना चाहते हैं.

नई दिल्ली: बस्तर का लहूलुहान जंगल पिछले महीनों में कहीं अधिक हिंसा का शिकार होता गया है. केंद्र और छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा मिलकर चलाये जा रहे ‘ऑपरेशन कगार’ के तहत बेहिसाब मुठभेड़ हो रही हैं, जिनमें नक्सलियों के साथ कई आम आदिवासी भी मारे जा रहे हैं. आरोप लग रहे हैं कि मृतक नक्सलियों में से कई मुठभेड़ में नहीं मारे गए, बल्कि पुलिस ने हिरासत में लेकर उनकी हत्या कर दी.

ऐसे में नक्सलियों की ओर से शांति वार्ता का एक प्रस्ताव आया है. बुधवार (2 अप्रैल) को प्रतिबंधित संगठन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की सेंट्रल कमेटी ने सरकार की पेशकश की है.

शांति वार्ता का प्रस्ताव कितना सफल होगा?

माओवादियों द्वारा यह प्रस्ताव पिछले कई वर्षों में इस तरह का पहला प्रस्ताव है. नक्सलियों की सेंट्रल कमेटी के प्रवक्ता अभय ने एक बयान में कहा है कि अगर सरकार नक्सलियों के खिलाफ चल रहे अभियानों को रोक देती है, तो वे बिना शर्त शांति वार्ता के लिए तैयार हैं.

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के 5 अप्रैल के प्रस्तावित बस्तर दौरे से पहले सेंट्रल कमेटी का ये प्रस्ताव बेहद अहम माना जा रहा है.

इस बयान में प्रवक्ता अभय ने कहा, ‘अब हम जनता के हित में केंद्र और राज्य सरकार के सामने शांति वार्ता का प्रस्ताव रख रहे हैं. इसके लिए हमारी मांग है कि छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र (गढ़चिरौली), ओडिशा, झारखंड, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में ऑपरेशन के नाम पर हत्याएं और नरसंहार बंद हों. नए सशस्त्र बलों के कैंप की स्थापना रोकी जाए.’

उन्होंने आगे कहा कि अगर सरकार इन प्रस्तावों पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देती है, तो नक्सली तुरंत युद्धविराम की घोषणा कर देंगे.

अभय के अनुसार पिछले 15 महीनों में ‘विभिन्न राज्यों, खास तौर पर छत्तीसगढ़ में हमारी पार्टी के कई नेताओं और कार्यकर्ताओं, पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) के कमांडरों और सदस्यों समेत 400 से ज़्यादा लोग मारे गए.’

अभय ने जोड़ा कि इसके अलावा ‘बहुत सारे निर्दोष आदिवासी भी मारे गए हैं. मृतकों में एक तिहाई लोग सामान्य आदिवासी हैं.’

गौरतलब है कि बीते शनिवार (29 मार्च) सुकमा जिले में सुरक्षा बलों के नक्सल विरोधी अभियान में 11 महिलाओं समेत 17 माओवादी मारे गए थे. पुलिस के अनुसार इस साल की शुरुआत से अब तक बस्तर में 117 से अधिक माओवादी मुठभेड़ में मारे गए हैं.

मुठभेड़ या हिरासत में हत्या?

पुलिस के अनुसार, 31 मार्च की मुठभेड़ में मारे गए नक्सलियों में दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी की सदस्य गुम्मडावेल्लि रेणुका उर्फ रेणुका उर्फ भानू उर्फ चैते भी शामिल थीं.

इसके तुरंत बाद माओवादियों ने एक अन्य बयान में दावा किया कि ‘दंतेवाड़ा-बीजापुर जिला के बार्डर, इंद्रावती नदी के किनारे’ रेणुका को ‘मुठभेड़ में मार गिराने’ का दावा झूठा है. माओवादियों के अनुसार ‘चैते बीजापुर जिला के भैरमगढ़ ब्लॉक, बेलनार गांव के एक घर में अस्वस्थता के कारण अकेले रुकी हुई थीं. ‘पुलिसवालों ने मार्च 31 को सबेरे 4 बजे इस घर को घेर लिया और चैते को गिरफ्तार कर लिया,’ और इसके बाद ‘सुबह 9 से 10 बजे के बीच उन्हें इंद्रावती नदी के किनारे ले गए’ और उनकी हत्या कर दी.पचपन वर्षीय गुम्मडावेल्लि रेणुका तेलंगाना के जंगम ज़िले के कडवेंडि गांव की निवासी थीं. तिरूपति से एलएलबी पहली श्रेणी में उत्तीर्ण कर वे करीब 35 वर्षों से नक्सल आंदोलन से जुड़ी हुई थीं.

माओवादियों के आरोप लगाया कि इसी तरह 25 मार्च को पुलिस ने इंद्रावती एरिया कमेटी के सदस्य लंकेश्वरपु सारय्या उर्फ सुधीर और कुछ ग्रामीणों को गिरफ्तार किया था, और कुछ घंटे बाद सुधीर और दो ग्रामीण युवकों को गांव के बाहर ले जाकर हत्या कर दी.

बस्तर में कार्यरत कार्यकर्ता बेला भाटिया द वायर हिंदी से कहती हैं, ‘बस्तर के आदिवासी पिछले दो दशकों से दर्द के साथ जी रहे हैं. सुरक्षा बलों की गतिविधियों में आई तेजी की वजह से लोग लगभग प्रतिदिन मारे जा रहे हैं. पुलिस बड़ी संख्या में आदिवासियों को पकड़ कर ले जाती है, कई दिन तक हिरासत में रखती है और उनके परिवार के सदस्यों को पता तक नहीं चल पाता कि वे जीवित हैं या उनकी मृत्यु हो गई.’

आदिवासी आवाज़ों को दबाने के आरोप

बीते 27 फरवरी को राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने सुकमा जिले के परलागट्टा गांव के निवासी मिड़ियामी मूलवासी बचाओ मंच (एमबीएम) के संस्थापक सदस्यों में से एक रघु मिड़ियामी को गिरफ्तार किया था. आरोप लगाया गया कि वे प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) संगठन से जुड़े हुए हैं.

मूलवासी बचाओ मंच एक जन संगठन है जो इस क्षेत्र में सरकार की दमनकारी नीतियों के जवाब में बनाया गया है.

मिड़ियामी समेत क्षेत्र के कई आदिवासी बस्तर के हाल के इतिहास में सबसे शक्तिशाली और शायद सबसे लंबे प्रतिरोध प्रदर्शन का हिस्सा रहे हैं. वे अर्धसैनिक बलों द्वारा क्षेत्र में स्थापित किए जाने वाले शिविरों के खिलाफ आवाज़ उठाते रहे हैं.

उल्लेखनीय है कि अक्टूबर 2024 में छत्तीसगढ़ सरकार ने एक अधिसूचना के ज़रिये एमबीएम को प्रतिबंधित संगठन घोषित किया था. हालांकि, अधिसूचना में राज्य सरकार ने संगठन पर किसी आपराधिक कृत्य का आरोप नहीं लगाया था. सिर्फ़ यह लिखा था कि यह संगठन ‘माओवादी प्रभावित क्षेत्रों’ में राज्य और केंद्र सरकार की पहलों का विरोध कर रहा है और सुरक्षा शिविरों की स्थापना का विरोध करके क्षेत्र में विकास परियोजनाओं में बाधा बन रहा है.

इससे पहले पिछले साल जून में बीजापुर पुलिस ने एक अन्य एमबीएम नेता, 25 वर्षीय आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता सुनीता पोट्टम को गिरफ्तार किया था. उन्हें एक मामले के तहत हिरासत में लिया गया और फिर 12 मामलों में आरोपी घोषित कर दिया गया.

बेला भाटिया कहती हैं, ‘बस्तर के आदिवासी न तो शांति से जी पा रहे हैं, न ही उन्हें शांतिपूर्ण मृत्यु नसीब हो रही है. इस हिंसा पर विराम लगना चाहिए. हिंसा से पैदा हुई इस त्रासदी का समाधान और अधिक हिंसा नहीं, बल्कि संवाद है. बिना शर्त संवाद.’

सुरक्षाबलों पर लगते रहे हैं फ़र्ज़ी मुठभेड़ के आरोप

अगर कुछ समय से मुठभेड़ में मारे गए नक्सलियों का सरकारी आंकड़ा बढ़ता गया है, तो इन मुठभेड़ों पर आरोप भी लगते रहे हैं. 1 फरवरी को बीजापुर ज़िले के गंगालूर इलाके में पुलिस ने तोड़का-कोरचेली गांवों के पास जंगल में मुठभेड़ में आठ इनामी माओवादियों को मारने का दावा किया था. हालांकि, ग्रामीणों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने इसे फ़र्ज़ी बताते हुए कहा था कि मारे गए लोग सामान्य ग्रामीण थे.
इससे पहले नारायणपुर और बीजापुर जिलों की सीमा पर स्थित अबूझमाड़ के कुम्मम-लेकावड़ा गांवों में 11 और 12 दिसंबर 2024 को सुरक्षा बलों ने सात माओवादियों को मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया था. लेकिन स्थानीय ग्रामीण और आदिवासी कार्यकर्ताओं का कहना था कि उनमें से पांच माओवादी नहीं बल्कि ग्रामीण थे. इसके अलावा कम से कम चार नाबालिग ग्रामीण भी घायल हुए थे.

ग्रामीणों के अनुसार, मारे गए 7 कथित माओवादियों में 5 ग्रामीण (चार पुरुष, एक महिला) थे – मासा, मोटू, गुड़सा, कोहला और सोमारी. इस कथित मुठभेड़ में एक लड़की समेत चार नाबालिगों के घायल होने की पुष्टि हुई थी.

गौरतलब है कि ये सभी माड़िया आदिवासी समुदाय से थे, जिन्हें सरकार ने विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (पीवीटीजी) में वर्गीकृत किया है.

इससे पहले कांकेर जिले में 25 फरवरी 2024 को हुई मुठभेड़ को लेकर पुलिस ने दावा किया था कि नक्सल विरोधी अभियान के दौरान सुरक्षाकर्मियों के साथ मुठभेड़ में कोयलीबेड़ा थानाक्षेत्र के भोमरा-हुरतराई गांवों के बीच एक पहाड़ी पर तीन ‘नक्सली’ मारे गए थे. हालांकि, स्थानीय लोगों और मृतकों के परिजनों ने पुलिस पर फ़र्ज़ी मुठभेड़ का आरोप लगाया था.

मृतकों की पहचान – मरदा गांव के मूल निवासी रामेश्वर नेगी, सुरेश तेता और क्षेत्र के पैरवी गांव के अनिल कुमार हिडको के रूप में की गई थी.

इसी तरह छत्तीसगढ़ के बीजापुर ज़िले में सुरक्षा बलों ने 10 मई 2024 को एक मुठभेड़ में 12 कथित माओवादियों को मारने का दावा किया था. मृतकों के परिजन फर्जी मुठभेड़ का आरोप लगाया था और कहा था कि 12 में से 10 मृतक पीडिया और ईतावर गांव के निवासी थे और खेती-किसानी किया करते थे.

ऐसे प्रश्न पिछली मुठभेड़ों पर भी उठते रहे हैं.

7 फरवरी 2019 को पुलिस ने अबूझमाड़ के ताड़बल्ला में हुई एक कथित मुठभेड़ में दस माओवादियों को मारने का दावा किया था. ग्रामीणों ने इसे एक सुनियोजित हमला बताया था. उन्होंने मारे गए 10 युवाओं के शवों के क्षत-विक्षत होने और मृतक लड़कियों के साथ संभावित यौन शोषण की बात कही थी.

इससे पहले बीजापुर के एड्समेट्टा गांव में मई 2013 में तकरीबन 1,000 सुरक्षाबलों ने ‘बीज पंडुम’ पर्व मना रहे आदिवासियों पर गोली चला दी थी, जिसमें 8 आदिवासी मारे गए थे. सुरक्षाबलों ने कहा था कि ये सभी माओवादी थे और यह कार्रवाई उन्होंने माओवादियों द्वारा की गई गोलीबारी के जवाब में की थी.

हालांकि, हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की जांच में सामने आया था कि यह एनकाउंटर फ़र्ज़ी था और एक भी मृतक माओवादी नहीं था.

जून 2012 में एक अन्य मामले में बीजापुर जिले के सारकेगुड़ा में सुरक्षाबलों द्वारा 6 नाबालिग समेत 17 लोगों की हत्या कर दी गई थी. उस साल 28 जून की रात आदिवासी एक पर्व के लिए एकत्र हुए थे. सुरक्षाबलों ने उसे नक्सलियों की बैठक समझकर फायरिंग शुरू कर दी. जांच में सामने आया था कि एक भी मृतक नक्सली नहीं था.

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