जन-आशीर्वाद यात्रा में होर्डिंग्स के लिए मारामारी
सत्तारूढ़ दल के कई विधायकों के लिए मुख्यमंत्री की जन-आशीर्वाद यात्रा मुसीबत के रूप में सामने आ रही है। दरअसल, प्रभुत्व को लेकर भाजपा के नेताओं में स्थानीय स्तर पर जमकर गुटबाजी है। इसमें सर्वाधिक विवाद की स्थिति निकायों के अध्यक्षों व विधायकों के बीच है। अब यात्रा के पहले स्वागत व अभिनंदन के लगाए जाने वाले होर्डिंग्स विवाद की वजह बन रहे हैं। ऐसे में कई विधायक तो ऐसे हैं, जिन्हें अपने इलाके में इनके लिए जगह नहीं मिल पा रही है। इस मामले में निकायों के अध्यक्षों ने पहले से ही अपने बैनर व होर्डिग्ंस से पाट दिया है। एक विधायक तो इससे इतने परेशान हैं कि उन्होंने बैठक में कलेक्टर सेे अपने बैनर व होर्डिग्स लगाने के लिए जगह बताने को कहा है। यह पूरा मामला गुना जिले का है जहां पहले से ही भाजपा के सामने कांग्रेस की मुश्किल चुनौती है। दरअसल, इस जिले की एक निकाय पर पूर्व विधायक का कब्जा है और उन्हें काफी तेजतर्रार नेता माना जाता है। बेचारे विधायक सीधे व सरल हैं जिसकी वजह से वे ऐसे मामलों में पीछे रह जाते हैं।
तोगडिय़ा ने बढ़ाई वीएचपी की चिंता
चुनावी माहौल के बीच मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में हिंदू नेता प्रवीण तोगडिय़ा के संगठन अंतरराष्ट्रीय हिंदू परिषद की पहली प्रांतीय बैठक का आयोजन किया गया। इस मीटिंग में उम्मीद से ज्यादा संख्या दिखाई दी। एएचपी की दहशत इतनी थी कि अपने कार्यकर्ताओं को बांधे रखने के लिए वीएचपी में इस मीटिंग के एक दिन पहले अपनी मीटिंग का आयोजन किया गया और हिंदू नेताओं को वीएचपी में बनाए रखने का प्रयास किए गए। अंतराष्ट्रीय हिंदू परिषद के कुछ अनुषांगिक संगठन भी सक्रिय हो गए हैं जिनमें राष्ट्रीय बजरंग दल, राष्ट्रीय किसान परिषद, राष्ट्रीय महिला परिषद, राष्ट्रीय छात्र परिषद, राष्ट्रीय मजदूर परिषद, हिंंदू हेल्पलाइन, हिंदू एडवोकेट फोरम व इंडिया हेल्थ लाइंस शामिल हैं। इस बैठक में सभी संगठनों के पदाधिकारियों उपस्थित हुए। अंतरराष्ट्रीय हिंदू परिषद की इस मीटिंग के कई मायने निकाले जा रहे हैं। यह हिंदू वोटों का धु्रवीकरण हो सकता है। बता दें कि पीएम नरेन्द्र मोदी से विवाद के चलते प्रवीण तोगडिय़ा विश्व हिंदू परिषद से अलग हुए एवं अंतरराष्ट्रीय हिंदू परिषद का गठन किया गया। उम्मीद नहीं थी कि इस नए संगठन को इतनी जल्दी कार्यकर्ताओं का समूह मिल जाएगा लेकिन इस मीटिंग में वीएचपी के कई पुराने नेता नजर आए।
लॉ एंड ऑर्डर के नाम पर अफसरों की मौज
प्रदेश के एक बड़े शहर में पदस्थ आला पुलिस अफसर को अपराध नियंत्रण से अधिक इन दिनों सिर्फ लॉ एंड ऑर्डर की ही चिंता रहती है। अधीनस्थ अफसरों की बैठक में अब अपराध से अधिक लॉ एंड ऑर्डर पर ही चर्चा होती है। यही वजह है कि पुलिस का भी पूरा ध्यान जिले में अपराध नियंत्रण से अधिक लॉ एंड ऑर्डर पर रहता है। इससे पुलिसकर्मी व अफसर भी खुश हैं। दरअसल, जिले में पदस्थापना होते ही उक्त अफसर ने अपने अधीनस्थों के सामने तीन साल तक बने रहने की मंशा जाहिर की थी। इसका फायदा वे अफसर व कर्मचारी भी खूब उठा रहे हैं जो पहले विवादों के चलते हटाए जा चुके हैं। इनमें से कई कर्मचारी फिर से पुरानी जगहों पर आ गए तो कई ने मनमाफिक पदस्थापना भी पा ली। अपने अफसर की कार्यप्रणाली के चलते वे अफसर परेशान हैं जिन्हें अपराध पर प्रभावी कार्रवाही करने में महारत हासिल है। अब उनकी पूछ-परख ही नहीं होती है।
जुलानिया ने डॉक्टरों को दिया डोज
प्रदेश के वरिष्ठ नौकरशाह राधेश्याम जुलानिया को ईमानदार के साथ ही सख्त मिजाज अफसर के रूप में जाना जाता है। यही वजह है कि उनकी अफसरों और कर्मचारियों से कम ही पटरी बैठती है। जिसकी वजह से यह लोग उनकी कार्यशैली पर सवाल उठाते रहते हैं। वे जिस विभाग में जाते हैं उस विभाग की कार्यप्राणाली में सुधार होने लगता है यही वजह है कि तमाम विरोधों के बाद भी सरकार उनकी अनदेखी नहीं कर पाती है। हाल ही में उन्होंने जिस तरह से जूडा हड़ताल का पटाक्षेप किया उससे वे आमजन के मन में हीरो बन कर उभरे हैं। श्री जुलानिया ने जिस तरह से इस मामले में सख्ती दिखाते हुए कठोर निर्णय लिया उससे जूडा की मनमर्जी पर न केवल रोक लगी, बल्कि वे माफी मांगने तक के लिए मजबूर हो गए। इस दौरान सरकार व प्रशासन की जगह जूडा हड़ताल समात करने के बहाने तलाशने मे लगा रहा। इसे कहते हैं अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे। आम लोग कहने लगे हैं कि सरकार को ऐसे अफसरों को ही खराब व्यवस्था का शिकार हो चुके विभागों का जिम्मा दे देना चाहिए।
और लूट लिया मंच
राजधानी में हाल ही में एक समाज का सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में कांग्रेस व भाजपा के बड़े नेताओं को भी आंमत्रित किया गया था, लेकिन भाजपा के एक बड़े नेता ने ऐन वक्त पर इससे किनारा कर लिया। कांग्रेस ने इसका फायदा उठाते हुए समाज के लोगों द्वारा की गई तीनों मांगों को सरकार बनने पर पूरा करने की घोषणा कर उनका समर्थन हासिल कर लिया। ऐसा नहीं कि भाजपा का कोई नेता इसमें शामिल नहीं हुआ, लेकिन एक मंत्री शामिल हुए, मगर वे इस स्थिति में नहीं थे कि कोई आश्वासन दे सकें, इसका फायदा उठाते हुए कमलनाथ ने उनकी मांगों को पूरा करने की घोषणा कर दी। वैसे बताया जा रहा है कि इस सम्मेलन की भूमिका जबलपुर के एक पूर्व कांग्रेसी नेता जी ने बनाई थी, देखना है कि वे अपने मकसद में कामयाब होते हैं या नहीं। दरअसल, यह नेता जी जबलपुर शहर की एक सीट से चुनाव में टिकट पाने की इच्छा रखते हैं।
बावरिया का विवाद
कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव और प्रदेश प्रभारी दीपक बावरिया को जब से प्रदेश का प्रभार मिला है तभी से प्रदेश में विवादों की वजह से वे हमेशा सुर्खियों में बने रहते हैं। वे शायद प्रदेश के पहले ऐेसे प्रभारी है जिनका आए दिन विवाद होता ही रहता है। दरअसल श्री बावरिया का बड़बोलापन कांग्रेस कार्यकर्ताओं को रास नहीं आ रहा है। वे कभी भी कही भी कुछ भी घोषणा कर देते हैं। प्रदेश का प्रभार सम्हालते ही उन्होंने जिस तरह से टिकट के दावेदारों से पचास हजार रुपए जमा कराना शुरु किया था , तभी से इस तरह की स्थिति बनी हुई है। बीते एक हफ्ते में वे दो बार हाथापाई का शिकार भी हो चुके हैं। दरअसल, वे ऐसे पहले प्रभारी है जिनका प्रभाव न तो पीसीसी पर दिखाई देता है और न ही कार्यकर्ताओं पर। यही वजह है कि वे जहां भी जाते हैं कुछ गड़बड़ कर देते हैं जिससे विवाद की स्थिति बन जाती है।
अपने नेताओं से मुश्किल में कांग्रेसी…
चुनावी साल और सत्ता से डेढ़ दशक तक दूर रहने के बाद भी प्रदेश कांग्रेस के नेता जनता फ्रेंडली तो दूर कार्यकर्ता फे्रंडली होने को भी तैयार नहीं दिख रहे हैं। दरअसल, इन दिनों प्रदेश कांग्रेस में ऐसे नेताओं की भरमार हो गई है जो अपनी पारिवारिक या फिर निजी पृष्ठभूमि से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। बची हुई कमी के लिए पूर्व नौकरशाहों को जिम्मा देकर पूरा कर दिया गया है। इन सभी को चुनावी साल में बगैर पूर्व अनुमति के किसी से मिलना पसंद नहीं आता है, जिसकी वजह से कार्यकर्ताओं का अपने ही नेताओं से संपर्क होना मुश्किल भरा होता जा रहा है। खास बात यह है कि इसमें दो नेता तो ऐसे हैं जिनके सहायक स्वयं को अपने नेता से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। अगर इन सहायकों की कृपा हो गई तो फिर कार्यकर्ता को किसी से मिलने की जरूरत नहीं रहती है, वजह साफ है पार्टी की कृपा अपने आप आनी शुरू हो जाती है।
सरकार पर भारी पड़े एएसपी
राजधानी में विभिन्न शाखाओं मेें पदस्थ तीन एएसपी पूरी सरकार पर भारी पड़ गए। जिसकी वजह से लंबे समय तक तबादला सूची जारी नहीं हो सकी। यह वे एएसपी हैं जिनकी पसंद व नापसंद का ख्याल सरकार को रखना पड़ता है। इनमें से एक एएसपी ने अब तक की पूरी नौकरी भोपाल में पदस्थ रहकर पूरी की है। वैसे बता दें कि इन अफसर के एक करीबी रिश्तेदार की पदस्थापना भी उनकी मर्जी से ही होती है। वे कांग्रेस के जमाने में भी सरकार की पसंद थे तो भाजपा की सरकार में भी उसकी आंखों का तारा बने हुए हैं। दूसरे एएसपी सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री के करीबी रिश्तेदार हैं सो वे भी मनमर्जी की पदस्थापना चाहते हैं। पद एक और दावेदार दो होने की वजह से सरकार की तबादला सूची अटकने से खूब किरकरी हो चुकी है। इसी तरह से एक अन्य एएसपी भी हैं जो सरकार के लिए मुसीबत बने रहे। उनकी पदस्थापना को लेकर भी लंबा मंथन करना पड़ा है।
टिकट के लिए दो नावों की सवारी…
भाजपा के एक नेता अपनी मनपंसद सीट से टिकट पाने के लिए अपनी मूल पार्टी भाजपा के साथ ही कांगे्रेस के बड़े नेताओं के संपर्क में बने हुए हैं। यह नेता जी पहले एक बार विधायक रह चुके हैं। अब उनकी एक बार फिर चुनाव लडऩे की इच्छा जागृत हो गई है। समय का फेर देखें कि अब उनके इलाके से भाजपा के विधायक सरकार में मंत्री हैं। मंत्री को भी सत्ता व संगठन में काफी पावरफुल माना जाता है। लिहाजा नेता जी को टिकट मिलना मुश्किल लग रहा है। ऐसे में नेता जी ने अभी से कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं से संपर्क साध लिया है। अगर भाजपा से टिकट नहीं मिलता है तो ऐन वक्त पर वे संगठन को अलविदा कह कांग्रेस का दामन थाम सकते हैं। वैसे बता दें कि उक्त नेता जी महाकौशल अंचल से आते हैं। अगर ऐसा होता है तो यह भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष के लिए बड़ा झटका माना जाएगा। वैसे कई और भी ऐसे नेता हैं जो इन दिनों कांग्रेस के संपर्क में बने हुए हैं।
अपनी मर्जी से बनवा रहे शाह का ठिकाना
प्रदेश में इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा आलाकमान अमित शाह के चुनावी ठिकाने को लेकर रोज -रोज नई खबरें आ रही हैं। कोई उनका ठिकाना भोपाल तो कोई इंदौर बनवा रहा है। भोपाल के 74 बंगले के एक बंगले में तेजी से काम चल रहा है जिससे अनुमान लगाया जा रहा है कि उनका चुनावी ठिकाना भोपाल ही रहेगा। इंदौर के ठिकाने के पीछे जो तर्क दिया जा रहा है वह किसी के गले नहीं उतर रहा है। कहा जा रहा है कि भोपाल से बेहतर एयर कनेक्टिविटी नहीं है। इस तरह के तर्क देने वालों को कौन समझाए कि वे निजी विमान से यात्रा करते हैं। वैसे भी चुनावी वक्त में राजधानी से बेहतर कोई स्थान नहीं होता है, क्योंकि कार्यकर्ता से लेकर नेता सभी के लिए भोपाल ही मुफीद बैठता है। फिलहाल जब तक अधिकृत घोषणा नहीं हो जाती है तब तक तो इसी तरह के दावे होते रहेंगे।
फिर लगा झटका
प्रदेश के तेरह नगरीय निकायों के वार्डों में हाल ही में उपचुनाव ने एक बार फिर भाजपा को बड़ा झटका दे दिया है। यह झटका ऐसे समय लगा है जब विधानसभा के आम चुनाव होने में चंद माह रह गए हैं। इसके पहले पचमढ़ी में भी भाजपा को पूरी परिषद गंवानी पड़ी है। इन परिणामों से जहां कांग्रेस के खेमे में खुशी का माहौल है तो भाजपा के खेमे में निराशा है। भाजपा को पहले से ही इस तरह की स्थिति की भनक थी तभी पहले सहकारिता और फिर मंडी के चुनाव तय समय पर नहीं कराए गए हैं। चुनाव बानगी के परिणामों से अगर अब भी सरकार और उसका संगठन नहीं चेता तो उसके लिए विधानसभा के परिणाम घातक हो सकते हैं। दरअसल आम लोग सरकार से कम उसके अफसरों व नेताओं से ज्यादा नाराज हैं। वैसे बीते एक साल में जहां भी उपचुनाव हुए हैं भाजपा को हार का सामना ही करना पड़ा है।
विधायक निधि को लेकर परेशान हैं माननीय…
चुनावी साल में अफसरों ने ऐसा दांव चला कि करीब एक सैकड़ा माननीय देखते ही रह गए। अब यह माननीय परेशान हैं। खास बात यह है कि इनमें अधिकांश माननीय सत्तारूढ़ दल भाजपा के हैं। अफसरों के दांव के चलते इनकी विधायक निधि का उपयोग न होने की वजह से वह लैप्स हो गई। इसका खुलासा हाल ही में आर्थिक सांख्यिकी विभाग की रिपोर्ट से हुआ है। इसकी वजह बने हैं जिलों में पदस्थ सरकार की पसंद के अफसर। सरकार में सीधी पकड़ होने की वजह से वे कार्यकर्ताओं को छोड़ो जन-प्रतिनिधियों की उपेक्षा करने से भी पीछे नहीं रहते हैं। विधायक निधि के खर्च के लिए पत्र लिखकर भेजते रहे और अफसर उसे रोकते रहे। मामले की जानकारी मिलने पर बीते दिनों करीब एक दर्जन से अधिक विधायकों ने सीएम से इस मामले की शिकायत की लेकिन अफसरों पर कार्रवाई की जगह उन्हें चुप रहने की घुट्टी पिला दी गई। बेचारे एमएलए अपना सा मुंह लेकर लौट आए। उनकी दिक्कत यह है कि पार्टी कहती है कि अपने कामों की गिनती जनता में करवाओ, लेकिन जब काम ही नहीं हुए तो बेचारे विधायक जनता के बीच जाकर बताएं क्या।