ना विकास, ना भ्रष्टाचार, केवल दांवपेंच से सरकार .

नजरिया… 
लेखक मनीष द्विवेदी प्रबंध संपादक मंगल भारत राष्ट्रीय समाचार पत्रिका.
लोगों में नाराजगी बीजेपी की सरकार से जरूर है पर यह किसने कह दिया कि जनता कांग्रेस से बहुत ज्यादा खुश है…


अपनी सरकार के पतन के अंतिम दिनों में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने खुलकर कहा था कि चुनाव विकास के मुद्दे पर नहीं, मैनेजमेंट से लड़े जाते हैं और जीते जाते हैं। दिग्विजय सिंह 2003 में चुनाव हार गए। बीजेपी की सरकार बन गई इसके बाद बीजेपी ने भले ही खुलकर न कहा, लेकिन उसने पिछले तीन चुनाव में मौन रहकर यह कर दिखाया। फर्क इतना है, दिग्विजय सिंह बोले थे। उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान ने कभी यह बात खुलकर नहीं कहीं। दिग्विजय सिंह को बंटाढार बताने वाली बीजेपी ने बाजी मार ली। जरा! दुर्भाग्य देखिए, तीन बार से सत्ता का वनवास काट रही कांग्रेस का। दिग्विजय का साथ देने के बजाय जिम्मेदार दबी जुबान बंटाढार के नाम पर बीजेपी के सुर में सुर मिलाते हुए नजर आ रहे हैं। कांग्रेस के खिलाफ कोई खास मुद्दे नहीं होने पर भी बीजेपी ने उनको बड़ी होशियारी के साथ खेला। सालों तक विपक्ष में रहने के कारण विरोध की तासीर ने उसे सरकार में ला दिया और जो कांग्रेस सरकार में वर्षों तक रही, उसने चुनाव दर चुनाव हारने पर खुद को कभी सत्ता से अलग समझा ही नहीं। सरकार सरकार में फर्क होता है, बात सौ फीसदी सच है पर विपक्ष विपक्ष में फर्क होता है, यह बात भी उतनी ही सही है। कांग्रेस डंपर से लेकर व्यापमं तक गला फाडक़र चिल्लाती रही। भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाती रही पर हर बार सरकार बनाने में बाजी मार गई बीजेपी, क्यों? कहते हैं लोहा लोहे को काटता है, तब इलेक्शन मैनेजमेंट से लेकर बूथ मैनेजमेंट तक कांग्रेस बिना बीजेपी का दांव-पेंच आजमाएं उसे कैसे पटखनी दे सकती है। कांग्रेस ने फर्जी मतदाता सूची का मुद्दा भोपाल से लेकर दिल्ली तक खूब उछाला। चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक दमदारी से दम भरा। क्या हुआ? इस चुनाव के लिए ऐसे मुद्दे से कांग्रेस की हवा तो नहीं बनी, बल्कि उल्टी मुद्दे की ही हवा निकल गई। इलेक्शन कमीशन से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक हार गई कांग्रेस। भले ही कांग्रेस के रणनीतिकार अब इस बात को पचा नहीं पाए, हकीकत तो यही है कि चुनाव से पहले ही रणनीतिक तौर पर उनकी यह पहली हार है। जाहिर है भ्रष्टाचार और विकास के मुद्दे पर क्या कांग्रेस अपना सत्ता का वनवास खत्म करने की स्थिति में है। कांग्रेस खुद रोज पानी पी-पीकर सरकार और शिवराज को इस बात के लिए कोस रही है कि घोषणाओं की झड़ी तो जमकर लगाई है लेकिन ज्यादातर घोषणाएं पूरी ही नहीं की है। बस इतनी-सी बात कांग्रेस के रणनीतिकार, जिम्मेदार समझ जाए, तो जो एंटी-इनकम्बेंसी बीजेपी को नजर नहीं आ रही है, वह कांग्रेस के हाथ की बाजी बन सकती है। बीएसपी इस बात का इंतजार करती रही कि कांग्रेस हाथी का साथ देगी। समाजवादी पार्टी की साइकिल लेकर अखिलेश यादव यूपी से चलकर मध्यप्रदेश तक आए पर पीसीसी चीफ कमलनाथ ने उसकी सवारी करना मुनासिब नहीं समझा। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी इंतजार करती रही पर कांग्रेस के नेता मध्यप्रदेश में टूर प्रोग्राम बनाकर पहले की तरह ज्यादातर दिल्ली में ही डेरा डाले रहे। कांग्रेस चाहती तो सपाक्स और जयस के साथ भी मिलकर सियासी समीकरण हल कर सकती थी, लेकिन लगता है रस्सी जल गई पर बल नहीं गया। बीजेपी की तीन सरकारों के दौरान मुख्य विपक्षी दल कमजोर से कमजोर होता चला गया और अब पार्टी संगठन भी जस का तस बना हुआ है। भला हो राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी का, जिन्होंने मध्यप्रदेश की कांग्रेस की नब्ज को सही समय पर टटोल लिया। एमपी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के मुकाबले जो दमखम दिखाया है, उससे कम से कम कार्यकर्ता बूस्ट तो हुआ है। मंदसौर से लेकर ग्वालियर तक जो कांग्रेस का जादू नजर आ रहा है, माफ करना श्रेय न तो कमलनाथ ले, न ही ज्योतिरादित्य सिंधिया। अभी भी कमलनाथ और सिंधिया की जोड़ी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष राकेश सिंह के मुकाबले मैदान में कहीं नजर नहीं आ रही है। कांग्रेस के क्षत्रपों को यह बात भी थोड़ी असहज जरूर कर सकती है, लेकिन मध्यप्रदेश के लिहाज से अगर देखा जाए तो आज भी दिग्विजय सिंह कांग्रेस के सर्वमान्य नेता हैं, जो दुर्भाग्य से इस समय दरकिनार किए हुए हैं। भाजपा अपनी रणनीति में सफल होते हुए दिखाई दे रही है, क्योंकि भले ही वह यह बताने की कोशिश करें कि कांग्रेस पर हमलावर होने के लिए दिग्विजय सिंह सॉफ्ट टारगेट है, मगर हकीकत यह है कि दिग्विजय सिंह की आक्रामक शैली कांग्रेसियों को और ऊर्जावान बनाए रखती है। इधर, कांग्रेस के जिम्मेदार दिग्विजय को टारगेट कर बीजेपी का काम और आसान करते हुए नजर आ रहे हैं। कांग्रेस के अंदरखाने में रह रहकर इस बात की खुशी जाहिर की जा रही है कि इस बार लोग परिवर्तन चाह रहे हैं। कांग्रेस का यह स्लोगन वक्त है बदलाव का, चुनावी तौर पर आकर्षक और रिझाने वाला है, लेकिन लाख टके का सवाल? जो कुछ अंदरखाने घट रहा है, क्या वाकई वह कांग्रेस का वक्त बदल देगा? लोगों में नाराजगी बीजेपी सरकार को लेकर है पर यह किसने कह दिया कि जनता कांग्रेस से बहुत ज्यादा खुश है। यूं तो कांग्रेस ने किसी भी पिछले विधानसभा चुनाव में मेहनत कम नहीं की, लेकिन टिकटों की बंदरबांट और कमजोर इलेक्शन और बूथ मैनेजमेंट ने हर बार उसकी लुटिया डुबो दी। कांग्रेस अभी भी पूरी तरह जागी नहीं है लेकिन वह बराबर जागने का उपक्रम कर रही है। यह जानकर भी कि उसका मुकाबला उस बीजेपी से है जिसने कांग्रेस के दांव-पेंच आजमाकर ही उसे हर बार मात दी है। इस चुनाव में भी विकास, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों से इतर सियासी दांव-पेंच की जंग होगी, तब इस लिहाज से कांग्रेस समझ ले कि उसकी कितनी और कैसी तैयारी है। बेशक! चुनाव में विकास और भ्रष्टाचार की बात होगी, अंतत: सरकार तो दांव-पेच से ही बनेगी!