वास्को डी गामा 1498 में भारत आए और इसके 12 वर्षों के भीतर पुर्तगालियों ने गोवा पर कब्ज़ा जमा लिया.
1510 से शुरू हुआ पुर्तगाली शासन गोवा के लोगों को 451 सालों तक झेलना पड़ा. 1961 में 19 दिसंबर को उन्हें आज़ादी मिली यानी भारत के आज़ाद होने के करीब साढ़े 14 साल बाद.
आज़ादी के लिए गोवा के संघर्ष को मानो भुला दिया गया है. गोवा, दमन और दीव के भारत में शामिल होने के पीछे अनेक लोगों की भूमिका थी जिनके बारे में लोगों के शायद ही पता हो.
ओमप्रकाश दीपक और अरविंद मोहन की किताब ‘लोहिया एक जीवनी’ में गोवा में लोहिया के संघर्ष के बारे में इस तरह लिखा गया है, “उनका इरादा तो बीमार शरीर को आराम देने का था, लेकिन गोवा जाकर उन्होंने देखा कि पुर्तगाली शासन, ब्रितानियों से भी अधिक वहशी है. लोगों के किसी भी तरह के नागरिक अधिकार नहीं थे. डॉक्टर लोहिया ने 200 लोगों को जमा करके एक बैठक की, जिसमें तय किया गया कि नागरिक अधिकारों के लिए आंदोलन छेड़ा जाए.”
ोबा में लोहिया की पहली चुनौती
18 जून 1946 को बीमार राम मनोहर लोहिया ने पुर्तगाली प्रतिबंध को पहली बार चुनौती दी. तेज़ बारिश के बावजूद उन्होंने पहली बार एक जनसभा को संबोधित किया, जिसमें उन्होंने पुर्तगाली दमन के विरोध में आवाज़ उठाई. उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और मड़गांव की जेल में रखा गया.
महात्मा गांधी ने ‘हरिजन’ में लेख लिखकर पुर्तगाली सरकार के दमन की कड़ी आलोचना की और लोहिया की गिरफ़्तारी पर उन्होंने सख़्त बयान दिया, जिसके बाद पुर्तगालियों ने माहौल गर्माता देखकर लोहिया को गोवा की सीमा से बाहर ले जाकर छोड़ दिया.
रिहाई के बाद लोहिया के गोवा में प्रवेश पर पांच साल का प्रतिबंध लगा दिया गया, लेकिन वे अपना काम कर चुके थे, पुर्तगाली दमन से परेशान गोवा के हिंदुओं और कैथोलिक ईसाइयों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरणा ली और ख़ुद को संगठित करना शुरू किया.
गोवा से पुर्तगालियों को हटाने के काम में एक क्रांतिकारी दल सक्रिय था, उसका नाम था- आज़ाद गोमांतक दल. विश्वनाथ लवांडे, नारायण हरि नाईक, दत्तात्रेय देशपांडे और प्रभाकर सिनारी ने इसकी स्थापना की थी.
इनमें से कई लोगों को पुर्तगालियों ने गिरफ़्तार करके लंबी सज़ा सुनाई और इनमें से कुछ लोगों को तो अफ्ऱीकी देश अंगोला की जेल में रखा गया. विश्वनाथ लवांडे और प्रभाकर सिनारी जेल से भागने में कामयाब रहे और लंबे समय तक क्रांतिकारी आंदोलन चलाते रहे.
भारतीय सेना के ऑपरेशन विजय के 36 घंटों के भीतर पुर्तगाली जनरल मैनुएल एंटोनियो वसालो ए सिल्वा ने “आत्मसमर्पण” के दस्तावेज़ पर दस्तख़त कर दिए, लेकिन ऑपरेशन विजय इस लड़ाई का अंतिम पड़ाव था. आज़ादी की अलख गोवा में डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने 1946 की गर्मियों में जलाई थी.
डॉक्टर लोहिया अपने मित्र डॉक्टर जूलियाओ मेनेज़ेस के निमंत्रण पर गोवा गए थे. लोहिया गोवा के असोलना में डॉ. मेनेज़ेस के घर पर रुके, जहां उन्हें पता चला कि पुर्तगालियों ने किसी भी तरह की सार्वजनिक सभा पर रोक लगा रखी है.
लोहिया को गांधी का समर्थन
1954 में लोहिया की प्रेरणा से गोवा विमोचन सहायक समिति बनी, जिसने सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा के आधार पर आंदोलन चलाया. महाराष्ट्र और गुजरात में आचार्य नरेंद्र देव की प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के सदस्यों ने भी उनका भरपूर साथ दिया.
‘लोहिया एक जीवनी’ बताती है कि गोवा छोड़ने से पहले डॉक्टर साहब ने आह्वान किया कि गोवा के लोग अपना संघर्ष जारी रखें.
लोहिया ने तीन महीने बाद गोवा लौटने का वादा किया लेकिन दिसंबर 1946 आते-आते भारत के दूसरे हिस्सों में सांप्रदायिक हिंसा की आग भड़क उठी और लोहिया गोवा नहीं जा सके क्योंकि वे गांधी के साथ हिंसा की आग बुझाने में लगे थे.
किताब के मुताबिक, “लोहिया अपने वादे को नहीं भूले, वे दोबारा गोवा गए लेकिन उन्हें रेलवे स्टेशन पर ही गिरफ़्तार कर लिया गया. इस बार भी गांधी लोहिया की गिरफ़्तारी पर लगातार बोलते रहे. दस दिन तक जेल में रखे जाने के बाद लोहिया को दोबारा गोवा की सीमा से बाहर ले जाकर छोड़ दिया गया.”
ग़ौर करने की बात ये भी है कि गोवा की आज़ादी की लड़ाई में लोहिया की भूमिका को सिर्फ़ गांधी का समर्थन मिला, कांग्रेस पार्टी के बड़े नेताओं नेहरू और पटेल का ध्यान गोवा की तरफ़ नहीं था, वे समझते थे कि इससे अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ चल रही मुख्य लड़ाई से ध्यान भटकेगा.
इस बीच, लोहिया ने गोवा से लगे कई ज़िलों का दौरा किया. उन्होंने गोवा की आज़ादी की भावना रखने वाले लोगों को संगठित करने का काम शुरू किया.
उन्होंने मुंबई में बसे गोवा के लोगों को जुटाया और आंदोलन की तैयारी में जुट गए. ‘लोहिया एक जीवनी’ बताती है कि “गोवा वाले चाहते थे कि लोहिया ही उनका नेतृत्व करें, लेकिन गांधी जी की राय थी कि गोमान्तक लोगों को अपनी लड़ाई ख़ुद लड़नी चाहिए. इसके बाद गांधी ने लोहिया को अपने पास बुला लिया.”गोवा की लड़ाई में शामिल गोवा लिबरेशन काउंसिल के सदस्य
‘गोवा की पराधीनता भारत के गाल पर फुंसी‘
‘लोहिया एक जीवनी’ में लिखा है, “फ़रवरी 1947 में नेहरू ने यहां तक कह दिया कि गोवा का प्रश्न महत्वहीन है. उन्होंने इस पर भी संदेह जताया कि गोवा के लोग भारत के साथ आना चाहते हैं. इसके बाद गोवा की स्वतंत्रता का आंदोलन मुरझाने लगा. लेकिन गोवा के लोगों का मन बदल चुका था, उनकी स्वतंत्र आत्मा के प्रतीक बन चुके थे डॉक्टर राममनोहर लोहिया.”
मुख्तार अनीस ने अपनी किताब ‘समाजवाद के शिल्पी’ (पेज-142) पर लिखा है कि “तब भारत में कांग्रेस और मुस्लिम लीग की अस्थायी सरकार थी, उस सरकार के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने एक बयान में कहा कि गोवा की पराधीनता भारत के गाल पर एक छोटी-सी फुंसी है, जिसे अंग्रेज़ों के जाते ही आसानी से मसलकर हटाया जा सकता है.”
मुख्तार अनीस लिखते हैं कि “सरदार पटेल ने भी साफ़ कह दिया कि गोवा से (अस्थायी) सरकार का कोई वास्ता नहीं है लेकिन लोहिया को गांधी जी का आशीर्वाद प्राप्त था.”
भारत के साथ आज़ाद नहीं हुआ गोवा
बँटवारे और भयावह सांप्रदायिक हिंसा के बाद भारत को आज़ादी मिल गई लेकिन गोवा पुर्तगाल के ही कब्ज़े में रहा. यहां तक कि 1954 में फ़्रांसीसी पांडिचेरी छोड़कर चले गए मगर गोवा आज़ाद नहीं हो पाया.
भारत सरकार ने 1955 में गोवा पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए. इन प्रतिबंधों के जवाब में पुर्तगाल ने क्या किया, इसकी जानकारी गोवा में रहने वाले एक बुज़ुर्ग होटल व्यवसायी ने बीबीसी को दी थी. तब हिगिनो रोबेलो की उम्र 15 साल थी.
उन्होंने बताया, “हम वास्को में रहते थे जो मुख्य पोर्ट था. भारतीय प्रतिबंध के बाद नीदरलैंड्स से आलू, पुर्तगाल से वाइन, पाकिस्तान से चावल और सब्ज़ियां और श्रीलंका (तब सीलोन) से भेजा जाने लगा.”
भारत और पुर्तगाल के बीच तनाव गहरा रहा था. डॉक्टर लोहिया के कई युवा समाजवादी शिष्य गोवा की आज़ादी का आंदोलन में कूद पड़े.
इन लोगों में सबसे अहम नाम मधु लिमये का है जिन्होंने गोवा की आज़ादी के लिए 1955 से 1957 के बीच दो साल पुर्तगाली जेल में बिताए, जहां उन्हें कई तकलीफ़ों का सामना करना पड़ा. उन दिनों गोवा की जेलें सत्याग्रहियों से भर गई थी और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इन आंदोलनकारियों की रिहाई के लिए पोप से हस्तक्षेप करने की अपील की थी.20 दिसंबर 1961 को गोवा से प्रकाशित अख़बार में लिखा था, ‘हिंदुस्तान जिंदावाद’
आख़िरकार आज़ादी कैसे मिली?
गोवा को 19 दिसंबर 1961 को कैसे आज़ादी मिली, इसकी कहानी बहुत दिलचस्प है. जिस फुंसी की बात नेहरू कर रहे थे, उसे मसलना उतना आसान नहीं था जितना उन्होंने सोचा था.
पुर्तगाल आसानी से गोवा को छोड़ने के मूड में नहीं था, वह नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन (नेटो) का सदस्य था और नेहरू किसी सैनिक टकराव से हिचक रहे थे.
1961 के नवंबर महीने में पुर्तगाली सैनिकों ने गोवा के मछुआरों पर गोलियां चलाईं जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई, इसके बाद माहौल बदल गया. भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री केवी कृष्णा मेनन और नेहरू ने आपातकालीन बैठक की.
इस बैठक के बाद 17 दिसंबर को भारत ने 30 हज़ार सैनिकों को ऑपरेशन विजय के तहत गोवा भेजने का फ़ैसला किया, इस ऑपरेशन में नौसेना और वायुसेना भी शामिल थी.
भारतीय सेना की बढ़त को रोकने के लिए पुर्तगालियों ने वास्को के पास का पुल उड़ा दिया. लेकिन 36 घंटे के भीतर पुर्तगाल ने कब्ज़ा छोड़ने का फ़ैसला कर लिया.
इस तरह डॉक्टर लोहिया का आज़ाद गोवा को देखने का सपना पूरा हुआ, लेकिन वैसे नहीं जैसे वे चाहते थे. गांधी की तरह लोहिया भी चाहते थे कि गोवा सत्याग्रह से आज़ाद हो, न कि बंदूक की ताक़त से.