भोपाल/मंगल भारत।मनीष द्विवेदी। दो साल पहले ही
कांग्रेसी से भाजपाई बने श्रीमंत अब जिस तरह से सधे कदम और संतुलित सर्वव्यापी आचरण कर रहे हैं, उससे वे अब संघ दीक्षित खांटी भाजपाई नजर आने लगे हैं। उनके द्वारा इतने कम समय में भाजपा के अनुकूल सक्रियता और छवि बदलने के तेजी से किए जा रहे प्रयासों से सभी अंचभित हैं। वे अब लगातार सूबे में आते- जाते रहते हैं और पार्टी नेताओं से संवाद और संपर्क में भी पीछे नहीं रह रहे हैं। इस बीच वे खुद की बनी ग्वालियर -चंबल अंचल के नेता की छवि को भी तोड़ने के प्रयास करते नजर आ रहे हैं। यही वजह है कि अब उनका ध्यान बुंदेलखंड, विंध्य और महाकौशल इलाके पर बना हुआ है। उन्होंने अपने इस अभियान की शुरूआत हाल ही में सागर जिले से की जा चुकी है। उनके हाल ही में किए गए सागर के दौरे को बुंदेलखंड की सियासत के समीकरण बदलने की शुरुआत के रूप में तो देखा जा रहा है साथ ही यह भी माना जा रहा है कि अब वे उन इलाकों में भी खुद को मजबूत करने का प्रयास कर रहे हैं, जिन इलाकों में पहले कभी उनके द्वारा ध्यान नहीं दिया गया है। श्रीमंत की इस सक्रियता से अब प्रदेश की सियासत में नए समीकरण बनते दिखना शुरू हो गए हैं।
ग्वालियर चंबल अंचल के अलावा श्रीमंत का प्रभाव अभी मालवा निमाड़ अंचल के कुछ इलाकों तक ही सीमित बना हुआ था। मालवा इलाके में भी अपनी पकड़ और मजबूत करने के लिए हाल ही में श्रीमंत और कैलाश विजयवर्गीय एक साथ खड़े नजर आए। पूर्व में यह दोनों नेता एक-दूसरे के घोर विरोधी रह चुके हैं। विजयवर्गीय भी प्रदेश में सरकार और संगठन से उपेक्षित चल रहे हैं। अपनी अन्य अंचलों में पकड़ बनाने के लिए श्रीमंत द्वारा अपने विश्वासपात्र और करीबी नेताओं को सक्रिय किया गया है। अपनी बदली हुई कार्यशैली की वजह से वे बुंदेलखंड अंचल के दिग्गज भाजपा नेता गोपाल भार्गव को अपने से जोड़ने में कामयाब नजर आ रहे हैं। मौका था रहस लोकोत्सव के आयोजन का, जिसमें श्रीमंत न केवल शामिल हुए , बल्कि भार्गव को अत्याधिक महत्व देते भी नजर आए हैं। दरअसल इन दिनों भार्गव अपनी ही सरकार में उपेक्षा से खुश नही हैं। उन्हें जिले में पार्टी के ही दूसरे मंत्री से मिल रही चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। बताया जा रहा है कि श्रीमंत खेमे की नजर इन दिनों पार्टी के ऐसे विधायकों पर लगी हुई है जो मौजूदा समय में सरकार से खुश नही हैं। भार्गव की गिनती भी ऐसे ही नेताओं में होती है। वे 1985 से लगातार विधानसभा पहुंच रहे हैं, लेकिन इसके बाद भी उन्हें उनकी योग्यता के अनुसार कभी भी उन्हें संगठन और सरकार में महत्व नहीं मिल पाया है।
प्रदेश में 17 साल पहले जब भाजपा की सरकार बनी तो उनका महत्व बड़ा, लेकिन जैसे ही सरकार के मुखिया बदले उसके बाद से लगातार उनको कमजोर करने के प्रयास शुरू हो गए थे, जो अब तक जारी हैं। इस बीच उनके द्वारा संगठन में अपने बेटे अभिषेक को बड़ी जिम्मेदारी दिलाने के भी कई प्रयास किए गए, लेकिन हर बार उन्हें असफलता का ही सामना करना पड़ा। उनके द्वारा बीते दो लोकसभा चुनावों के समय बेटे के लिए लोकसभा के टिकट के लिए भी प्रयास किए गए, लेकिन पार्टी में ही मौजूद उनके विरोधियों ने उनकी इस मंशा को भी पूरी नहीं होने दिया। इन स्थितियों के चलते ही भार्गव ने श्रीमंत के खेमें में जाना ही बेहतर समझा है। मौजूदा विधानसभा में सबसे अधिक विधानसभा चुनाव जीतने का खिताब गोपाल भार्गव के पास ही है।
एक समय अकेले चलने वाले भार्गव 2003 में उमा भारती के करीब आ गए थे, जिसकी वजह से उन्हें कई महत्वपूर्ण विभागों का मंत्री बनाया गया था। इसके बाद उनकी वरिष्ठता और लगातार अजेय रहने की वजह से उन्हें शिवराज मंत्रिमंडल में तो लिया जाता रहा, लेकिन उन्हें खुलकर काम करने का मौका कभी नहीं मिल सका। अगर बुंदेलखंड अंचल की बात की जाए तो कांग्रेस में रहते हुए बुंदेलखंड में श्रीमंत के सिर्फ एकमात्र समर्थक गोविंद सिंह राजपूत हुआ करते थे।
श्रीमंत भी बुंदेलखंड में अपनी पकड़ मजबूत करने में रुचि नहीं दिखाते थे, लेकिन भाजपा में आने के बाद उन्होंने बुंदेलखंड में अपने गुट को मजबूत करना शुरू कर दिया है। खासबात यह है कि भले ही पहले राजपूत और भार्गव अलग-अलग दलों में रहे, लेकिन स्थानीय राजनीतिक समीकरणों के चलते दोनों नेताओं में अघोषित गठबंधन दिखता रहा है। जो पंचायतों और अन्य चुनाव में नजर भी आता था। दोनों दिग्गजों की विधानसभा भी आपस में लगी हुई हैं। ऐसी स्थिति में गोपाल भार्गव की सियासी परिस्थितियों को देखते हुए गोविंद सिंह राजपूत ने श्रीमंत और गोपाल भार्गव के बीच सूत्रधार की भूमिका निभाई है।
श्रीमंत के आने से बदल चुके है समीकरण
श्रीमंत की बीजेपी में आमद के बाद एमपी बीजेपी की सियासत के समीकरण पूरी तरह से बदल चुके हैं। भाजपा की सरकार तो बन गई , लेकिन बीजेपी में रहकर भविष्य में मुख्यमंत्री बनने का सपना संजो रहे नेताओं को श्रीमंत से कड़ी चुनौती मिल रही है। एक तरफ श्रीमंत बीजेपी में अपने आप को मजबूत करने में जुटे हुए हैं। तो बीजेपी के वो नेता जो प्रदेश भाजपा के सियासी समीकरण के कारण पार्टी और सरकार से नाराज चल रहे हैं, वह श्रीमंत के करीबी बनने में गुरेज नहीं कर रहे हैं।
पार्टी की सियासत पर दिख सकता है असर
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के बेहद करीबी होने की वजह से बुंदेलखंड में भूपेंद्र सिंह सबसे मजबूत और प्रभावशाली नेता बनकर उभरे हैं। भार्गव को भूपेंद्र सिंह से जिले में लगातार चुनौती भी मिलती है और पूर्व में उमा भारती के करीबी होने की वजह से भार्गव को सियासी नुकसान भी उठाना पड़ा है। लेकिन अब जिस तरह से नए समीकरण बनते दिख रहे हैं, उसे भार्गव के विरोधी नेताओं के लिए चिंता के रुप में देखा जा रहा है। वजह है भार्गव का बुंदेलखंड में मजबूत जनाधार वाला नेता होना। अब श्रीमंत का साथ मिलने की वजह से वे भाजपा की केंद्रीय राजनीति तक में पैठ बढ़ा सकते हैं। ऐसे में बुंदेलखंड में उनका विरोधी गुट कमजोर होगा। रहस लोकोत्सव के दौरान जब भार्गव भावुक हुए, तो श्रीमंत ने उनका साथ देने की घोषणा कर दी। बीते चुनाव में जब भाजपा को सत्ता से बाहर होना पड़ा तो भाजपा आलाकमान का अनुमान था कि प्रदेश में ब्राह्मणों ने पार्टी का साथ नहीं दिया है, जिसके चलते भार्गव को नेता प्रतिपक्ष जरूर बनाया गया था। प्रदेश की सत्ता में फिर से पार्टी की वापसी होने के बाद नेता प्रतिपक्ष रहे भार्गव को पीडल्यूडी और लघु कुटीर उद्योग जैसे विभागों से संतोष करना पड़ा। भार्गव की उम्र अब करीब 70 साल हो चुकी है और उनके बेटे की उम्र करीब 40 साल है। इसकी वजह से ही वे लगतार एक दशक से बेटे के राजनीतिक भविष्य को लेकर सक्रिय बने हुए हैं , लेकिन उनकी कोशिशों को भाजपा के ही दिग्गजों ने कभी साजिशों तो कभी सियासत के जरिए परवान नहीं चढ़ने दिया।