ओबीसी वर्गीकरण मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा- आरक्षण धर्म के आधार पर नहीं हो सकता

सुप्रीम कोर्ट कलकत्ता हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें उच्च न्यायालय ने मई 2023 में पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा 77 समुदायों, जिसमें ज़्यादातर मुस्लिम थे, को अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में वर्गीकृत करने के फैसले को रद्द किया था.

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (9 दिसंबर) को एक अहम टिप्पणी करते हुए कहा कि धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, यह टिप्पणी शीर्ष अदालत ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के उस फैसले के संदर्भ में की, जिसमें पश्चिम बंगाल में 2010 से कई जातियों को दिए गए अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के दर्जे को रद्द कर दिया गया था.

सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस केवी विश्वनाथन की पीठ कलकत्ता हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें उच्च न्यायालय ने मई 2023 में पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा 77 समुदायों, जिसमें ज्यादातर मुस्लिम थे, को अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में वर्गीकृत करने फैसले को रद्द कर दिया था.

मालूम हो कि अदालत की ये टिप्पणी आरक्षण के लिए धर्म को एक मानदंड के रूप में उपयोग करने की संवैधानिकता पर एक बड़े सवाल के रूप में सामने आई है, जो संविधान पीठ के समक्ष लंबित है.

पश्चिम बंगाल सरकार और अन्य याचिकाकर्ताओं ने 22 मई को कलकत्ता हाईकोर्ट के इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, जिसमें अदालत ने 2010 के बाद से राज्य सरकार द्वारा जारी किए गए सभी ओबीसी प्रमाणपत्रों को रद्द करने का आदेश दिया था. हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि 77 समुदायों को ओबीसी का दर्जा देने के लिए ‘वास्तव में धर्म ही एकमात्र मानदंड प्रतीत होता है.’

सोमवार को जब वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने राज्य सरकार के फैसले को सही ठहराने की कोशिश की, तो जस्टिस गवई ने कहा, ‘आरक्षण धर्म के आधार पर नहीं हो सकता.’

इसके जवाब में सिब्बल ने कहा कि पश्चिम बंगाल सरकार का निर्णय ‘धर्म पर नहीं बल्कि पिछड़ेपन पर आधारित है, जिसे न्यायालय ने बरकरार रखा है.’ उन्होंने कहा कि पिछड़ापन सभी समुदायों में मौजूद है.

इसके बाद जस्टिस गवई ने बताया कि पिछड़ापन दिखाने के लिए ‘मात्रात्मक डेटा की आवश्यकता है’, जिस पर सिब्बल ने कहा कि हमारे पास यह डेटा है. सिब्बल ने ये भी कहा कि यह मुद्दा छात्रों सहित बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित करता है.

सिब्बल के अनुसार, ‘पश्चिम बंगाल पिछड़ा वर्ग (अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अलावा) (सेवाओं और पदों में रिक्तियों का आरक्षण) अधिनियम, 2012’ के प्रावधानों को रद्द करने में, कलकत्ता हाईकोर्ट ने आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के फैसले पर बहुत अधिक भरोसा किया था, जिसने मुस्लिम ओबीसी के लिए आरक्षण को रद्द कर दिया.

हालांकि, उन्होंने आगे ये भी बताया कि आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी और अभी भी अंतिम निर्णय लंबित है.

ज्ञात हो कि सिब्बल का इशारा आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के नवंबर 2005 के उस फैसले की ओर था, जिसमें राज्य में मुसलमानों को दिया जाने वाला 5 फीसदी कोटा खत्म कर दिया गया था. हाईकोर्ट के उस फैसले को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष चुनौती दी गई है.

शीर्ष अदालन ने जनवरी 2006 में हाईकोर्ट के पूरे आदेश के क्रियान्वयन पर रोक लगाने से इनकार कर दिया और शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों के संबंध में यथास्थिति जारी रखने की अनुमति दी. इसमें शामिल कानून के महत्वपूर्ण प्रश्न पर विचार करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि मामले को संविधान पीठ के समक्ष रखा जाए. अभी यह अंतिम निर्णय के लिए लंबित है.

गौर करें कि केरल में पूरे मुस्लिम समुदाय को ओबीसी के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जबकि तमिलनाडु में उन्हें 3.5 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है.

द हिंदू के अनुसार, इससे पहले की सुनवाई में शीर्ष अदालत ने राज्य से इन समुदायों के सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन और राज्य की सार्वजनिक सेवाओं में उनके प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता की पहचान करने के लिए किए गए सर्वेक्षण की प्रकृति और दायरे को स्पष्ट करने के लिए कहा था, जिसके कारण इन समुदायों को सूची में शामिल करना जरूरी था.

अदालत ने राज्य से इन आरोपों का भी जवाब देने को कहा था कि इन समुदायों को ओबीसी के रूप में नामित करने से पहले राज्य द्वारा पश्चिम बंगाल पिछड़ा वर्ग आयोग के साथ कोई सार्थक परामर्श नहीं किया गया था. अदालत ने पश्चिम बंगाल से यह विवरण भी शामिल करने को कहा था कि क्या आरक्षण के उद्देश्य से इन जातियों को उप-वर्गीकृत करते समय परामर्श किया गया था.

77 समुदायों को ओबीसी का दर्जा देने के बंगाल सरकार के फैसले का बचाव करते हुए सिब्बल ने यह भी कहा कि जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग ने मुसलमानों (साथ ही दलित ईसाइयों) के लिए आरक्षण का समर्थन किया था. उन्होंने कहा कि बंगाल के इन 77 समुदायों में से 44 केंद्रीय ओबीसी सूची में हैं जबकि बाकी को मंडल आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त है.

सिब्बल की दलीलों का विरोध करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता पीएस पटवालिया- जो उत्तरदाताओं की ओर से पेश हुए- ने कहा कि कलकत्ता हाईकोर्ट ने पाया कि पिछड़ेपन का पता लगाने के लिए कोई सर्वेक्षण नहीं किया गया था और कोई डेटा नहीं था. उन्होंने कहा कि इसमें राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग को नजरअंदाज कर दिया गया और 2010 में तत्कालीन मुख्यमंत्री (बुद्धदेव भट्टाचार्य) के एक बयान के बाद आरक्षण दिया गया. उन्होंने कहा कि हाईकोर्ट ने कहा था कि राज्य ऐसा कर सकता है लेकिन उचित प्रक्रिया का पालन करने के बाद ही.

इस बीच, पीठ ने आश्चर्य जताया कि कलकत्ता उच्च न्यायालय अधिनियम की धारा 12 को कैसे रद्द कर सकता है जो राज्य को आरक्षण के लिए वर्गीकृत करने में सक्षम बनाती है.

जस्टिस गवई ने कहा, ‘इंदिरा साहनी (निर्णय) से ही, यह माना गया था कि आरक्षण के लिए पहचान करना और वर्गीकृत करना कार्यपालिका की शक्ति है.’

उन्होंने आगे पूछा, ‘क़ानून के उस प्रावधान को कैसे ख़त्म किया जा सकता है, जो राज्य को शक्ति प्रदान करता है? क्या किसी प्रावधान का संभावित दुरुपयोग उसे ख़त्म करने के लिए पर्याप्त आधार है?’

जस्टिस विश्वनाथन ने कहा, ‘यह एक सक्षम प्रावधान था.’ जस्टिस गवई ने भी इस पर आपत्ति जताते हुए कहा, ‘हां. बिना किसी परामर्श के उप-वर्गीकरण को ख़राब ठहराया जा सकता है, लेकिन किसी वैधानिक प्रावधान को कैसे ख़त्म किया जा सकता है?’

सिब्बल ने अंतरिम राहत के लिए दबाव डाला लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कोई राहत नहीं दी और मामले की अगली सुनवाई 7 जनवरी, 2025 को तय की.