5 करोड़ वोटर मौन, आखिर… कौन बनाएगा सरकार?

मप्र के जमीनी हालात: न लहर, न हवा…!

15 साल से सत्ता में बैठी भाजपा प्रदेश में लगातार चौथी बार सरकार बनाने के लिए शिवराज, मोदी के चेहरे और करिश्मे के साथ ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की रणनीति से आस है तो सत्ता में वापसी की कोशिश कर रही कांग्रेस को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के आक्रामक चुनाव अभियान, प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ की रणनीति और ज्योतिरादित्य सिंधिया के हमलावर अंदाज पर भरोसा है। लोगों में सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार और धीमी गति से काम को लेकर लोगों में रोष है, मगर भ्रष्टाचार और कुशासन को मुद्दा बनाकर कांग्रेस शिवराज सिंह चौहान को घेरने में कामयाब नहीं हो रही है।

लेखक :-मनीष द्विवेदी प्रबंध संपादक मंगल भारत राष्ट्रीय समाचार पत्रिका.

भोपाल । मप्र में 28 नवंबर को मतदान होगा। भाजपा लगातार चौथी बार सरकार बनाने का दावा कर रही है। कांग्रेस 15 साल बाद सत्ता में वापसी का ताना-बाना बुन रही है। वहीं बसपा सहित अन्य क्षेत्रीय पार्टियों को किंगमेकर बनने का सपना आ रहा है। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि प्रदेश में न कोई लहर है और न कोई हवा। नेताओं के दौरे हो रहे हैं, परन्तु माहौल में चुनावी बसंत जैसी रंगत नजर नहीं आ रही। प्रदेश के 5,03,94,086 मतदाताओं की खामोशी के चलते रंग जम नहीं पा रहा। 11 दिसंबर के बाद सरकार कौन बनाएगा इसका संकेत अभी तक नहीं मिल पाया है।
प्रदेश के शहरी क्षेत्रों में विकास से जुड़े मुद्दों और समस्याओं की चर्चा जरूर है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों और कस्बों में जातीय समीकरण ही हावी दिख रहा है। किसानों की परेशानी, पेयजल संकट या स्थानीय समस्याओं से जुड़े मसले ज्यादा प्रभावी नहीं दिख रहे। वोट बैंक के दायरे से बाहर अनिर्णय की स्थिति वाले मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए किसी पार्टी के पास कोई मुद्दा नहीं है। सत्ता की कुंजी इन्हीं मतदाताओं के पास है, जो अब तक यह तय नहीं कर पाए हैं कि वे किसे मत देंगे?
मुद्दों के बजाय चेहरों पर भरोसा
15 साल से सत्ता में बैठी भाजपा प्रदेश में लगातार चौथी बार सरकार बनाने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे और करिश्मे के साथ ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की रणनीति से आस है तो सत्ता में वापसी की कोशिश कर रही कांग्रेस को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के आक्रामक चुनाव अभियान, प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ की रणनीति और ज्योतिरादित्य सिंधिया के हमलावर अंदाज पर भरोसा है। लोगों में सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार और धीमी गति से काम को लेकर लोगों में रोष है, मगर भ्रष्टाचार और कुशासन को मुद्दा बनाकर कांग्रेस शिवराज सिंह चौहान को घेरने में कामयाब नहीं हो रही है। कांग्रेस भाजपा और शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ आक्रामक अभियान चला रही है, लेकिन हवा अपने पक्ष में करने में उसे दिक्कतें आ रही हैं। जनता मौन है मगर वह भाजपा सरकार के विकास के दावों और उसके कामकाज की तुलना भी कर रही है। शिवराज सिंह चौहान और भाजपा को जीत के लिए विकास योजनाओं पर भरोसा है तो कांग्रेस को उम्मीद है कि शिवराज सरकार के खिलाफ सुप्त सत्ता विरोधी भावना अंतिम क्षणों मेें उसके लिए मददगार साबित होगी। विभिन्न सर्वे में भाजपा को भले ही बढ़त मिलती दिख रही है लेकिन उसकी राह आसान नहीं होगी। भाजपा को ग्रामीण मतदाताओं को नाराजगी झेलनी पड़ सकती है तो कांग्रेस को अपने परंपरागत मतदाताओं का साथ मिल सकता है। प्रदेश में जिस तरह के जमीनी हालात दिख रहे है उससे ऐसा लग रहा है कि भाजपा और कांग्रेस के बीच सीटों का अंतर 10 से 20 सीटों का ही रहेगा।
4 से 6 फीसदी मत बदलेगा नतीजा
प्रदेश में इस बार के चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच नेक टू नेक फाइट नजर आ रही है। 2003, 2008 और 2013 से शुरू से भाजपा के पक्ष में माहौल रहा, जबकि इस बार के चुनाव में सत्ता के विरुद्ध जबरदस्त माहौल है। लेकिन भाजपा के रणनीतिकारों को उम्मीद है कि अभी भी प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान का जादू कायम है और सरकार के खिलाफ कोई एंटी इंकमबेंसी नहीं है। भाजपा प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह कहते हैं कि यह कांग्रेस द्वारा फैलाई गई अफवाह है। जबकि कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ का दावा है कि भाजपा की हार का काउंटडाउन शुरू हो गया है। प्रदेश में जिस तरह की जमीनी हालात नजर आ रहा है उससे विश्लेषकों का मानना है कि चुनाव में दो से तीन फीसदी मतों के इधर-उधर होने से नतीजों पर काफी असर पड़ेगा। हालांकि साल 2013 में मध्यप्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच वोट प्रतिशत का अंतर काफी बड़ा था। भाजपा को जहां 44.88 प्रतिशत वोट मिले थे तो कांग्रेस को 36.38 प्रतिशत वोट ही मिले थे। यानी दोनों पार्टियों के बीच 8.5 प्रतिशत का अंतर है। यह कोई मामुली अंतर नहीं है। लेकिन राजनीतिक विश£ेषकों का आकलन है कि इस बार चुनाव परिणाम चौकाने वाला हो सकता है। जिस तरह सत्ता के खिलाफ माहौल है उससे ऐसा लगता है कि भाजपा को 2013 की अपेक्षा कम वोट मिलेंगे। ऐसे में 4 से 6 फीसदी मत सत्ता का समीकरण बदल सकते हैं। प्रदेश में सत्ता का जो जादुई आंकड़ा 116 का है उस पाने के लिए कांग्रेस को 4 से 6 फीसदी मतों की जरुरत पड़ेगी। सत्ता विरोधी माहौल और कांग्रेस की सक्रियता को देखकर लगता है यह कोई बड़ा लक्ष्य नहीं है। लेकिन शिवराज के जादू के आगे यह लक्ष्य पाना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा। चुनाव की घोषणा से पहले और बाद में आए अधिकांश सर्वेक्षणों में भाजपा और कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर बताई गई है। वहीं बसपा, सपा सहित कुछ और पार्टिया करीब दो दर्जन सीटों पर मजबूत नजर आ रही हैं। ऐसे में प्रदेश में त्रिशंकु विधानसभा की संभावना भी जताई जा रही है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अधिकांश सर्वे एक सीमित संख्या में मतदाताओं से बातचीत और पिछले चुनावों के आंकड़ों के जोड़-तोड़ पर आधारित हैं। लिहाजा ये सर्वे मतदाताओं की सही नब्ज नहीं पकड़ पा रहे। मझधार में रहने वाले मतदाता काफी निर्णायक साबित होंगे। चुनाव की घोषाणा से पहले ही कांग्रेस आक्रामक रही और उसने मुद्दे तय कर भाजपा को रक्षात्मक होने को विवश किया।
2 करोड़ आबादी की नाराजगी पड़ सकती है भारी
2 करोड़ आबादी या तो खेती करती है या तो खेती से जुड़े काम करती है। किसान आंदोलन के बाद किसानों का गुस्सा भी यहां काफी बढ़ा है। प्रदेश में किसानों के हाल किसी से छिपे नहीं हैं। किसानों के मुद्दे पर भाजपा इस बार कांग्रेस के निशाने पर है। कांग्रेस आरोप लगा रही है कि किसानों को पानी तक नहीं मिल रहा। भाजपा कहती है किसानों का ये हाल पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने बनाया। ये हाल तब हैं जब मध्य प्रदेश विधानसभा में मुख्यमंत्री सहित दो दर्जन मंत्री और 156 विधायक खुद को किसान कहते हैं। प्रदेश में किसानों का मुद्दा विपक्ष के लिए हमेशा से मुफीद रहा है। बीते कुछ साल में प्रदेश में किसानों की आत्महत्या के केस लगातार बढ़े। कांग्रेस का कहना है पिछले 5 साल में 4 हजार से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की। वह भाजपा सरकार को किसान विरोधी बताकर अपना वोटबैंक मजबूत करने में जुटी हुई है। कांग्रेस ने सत्ता में आते ही 10 दिन के अंदर कर्जमाफी का वादा कर दिया है। ऐसे में किसानों की आत्महत्या, गोलीकांड और भ्रष्टाचार सरीखे तमाम मुद्दे चुनाव में कितना असर डालते हैं देखना दिलचस्प होगा। भाजपा के लिए परेशानी की वजह यह भी है कि पिछले साल मंदसौर में भडक़े किसान आंदोलन के दौरान शिवराज सिंह चौहान सरकार को संकट से उबारने वाले गुणवंत पाटीदार ने विधानसभा चुनाव से ऐन पहले भाजपा छोड़ दी है। पार्टी से अलग होने के बाद पाटीदार ने आरोप लगाया कि सरकार के इशारे पर पुलिस उन्हें परेशान कर रही है। यही नहीं उन्होंने भाजपा के खिलाफ अभियान भी शुरू कर दिया है। नौजवान किसान सभा से जुड़े गुणवंत पाटीदार ने केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार पर आरोप लगाया कि वो किसानों से वादाखिलाफी कर रही है जो उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान किया था। उन्होंने कहा कि यदि कांग्रेस या कोई अन्य पार्टी किसानों के लिए पक्का वादा करती है तो वो उसे आने वाले चुनावों में समर्थन देने पर विचार कर सकते हैं।
एससी/एसटी एक्ट बिगाड़ेगा चुनावी खेल
केंद्र की मोदी सरकार द्वारा एससी, एसटी एक्ट में किए गए संशोधन से सवर्ण वर्ग मोदी सरकार और भाजपा से काफी खफा चल रहा है। मध्य प्रदेश में एससी/एसटी एक्ट का व्यापक विरोध हुआ था। इसके चलते अगड़ी जातियों में भी नाराजगी बढ़ी है। मध्य प्रदेश में सवर्ण वर्ग की जनसंख्या भारी तादाद में मानी जाती है। भाजपा के लिए चिंता की बात यह भी है कि सवर्ण समाज उसके खिलाफ दिख रहा है। सवर्ण भाजपा के कोर वोटर हैं यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है और भाजपा को राज्य तथा केंद्र की सत्ता में आसीन कराने में सवर्ण वर्ग का बड़ा योगदान रहा है। ऐसे में सवर्ण वर्ग का इस तरह भाजपा से खफा होना भाजपा को चुनावों में नुकसान पहुंचा सकता है। शिवराज सिंह चौहान को हाल के दिनों में अगड़ी जातियों एवं अनुसूचित जातियों दोनों के विरोध-प्रदर्शनों का सामना करना पड़ा है। पहले एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ दलित संगठनों ने प्रदर्शन किया जबकि इस एक्ट में संशोधन के खिलाफ अगड़ी जातियों ने अपना विरोध जताकर शिवराज सिंह को मुश्किल में डाल दिया। इन विरोध-प्रदर्शनों के बीच शिवराज सिंह को भाजपा के चुनाव अभियान को आगे बढ़ाने और पार्टी को सत्ता में वापसी कराने की चुनौती है। इसके अलावा 15 साल की सत्ता विरोधी लहर भी कहीं न कहीं शिवराज के खिलाफ है। इन सबके बावजूद भाजपा को उम्मीद है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों से राजनीतिक फिजा बदलेगी और वह दोबारा सत्ता में काबिज होगी।
भाजपा की 3 चुनौतियां: किसान, एट्रोसिटी एक्ट और सत्ता विरोधी लहर
मध्य प्रदेश इन दिनों देश की सियासत का केंद्र्र बना हुआ है। प्रदेश में भाजपा पिछले 15 साल से सत्तारूढ़ है और चौथी बार सरकार बनाने के अभियान में जुटी हुई है। लेकिन भाजपा के सामने तीन बड़ी चुनौतियां- किसान संकट, एससी/एसटी एक्ट असंतोष और सत्ता विरोधी फैक्टर है। भाजपा को इस विधानसभा चुनाव में इन तीन बड़े मुद्दों से पार पाना बड़ी चुनौती होगी। वहीं कांग्रेस की चुनौती पार्टी में गुटबाजी खत्म कर इन मुद्दों को भुना कर इन तीनों राज्य में सत्ता पाने की होगी। गौरतलब है कि किसान भाजपा का पारंपरिक वोट बैंक रहे हैं। लेकिन हाल के वर्षों में कम होती आय के चलते सरकार को किसानों के गुस्से का भी सामना करना पड़़ा है। आय में कमी के चलते हाल के वर्षों में कई बार किसान आंदोलन हुए हैं। प्रदेश के मंदसौर में किसान अंदोलन के दौरान कई लोगों की मौत भी हो गई थी। वहीं राजस्थान में भी कई बार किसान आंदोलन कर चुके हैं।
एससी-एसटी एक्ट पर विवाद और इस मुद्दे पर भाजपा नेताओं के अलग-अलग रुख के चलते जनजातीय और अगड़ी जातियों के वोटरों को एकजुट रखना मुश्किल हो रहा है। सरकार की ओर से मुद्दे को हल करने के तरीके से एससी/एसटी मतदाता खुश नहीं हैं। वहीं भाजपा के अगड़ी जाति के मूल वोटर भी पार्टी से नाराज हैं। किसानों के प्रदर्शन, एससी/एसटी एक्ट के साथ इन तीनों राज्यों में भाजपा के लिए सत्ता विरोधी फैक्टर भी काफी अहम होगी। क्योंकि भाजपा इन राज्यों में सत्तारूढ़ है।
ग्वालियर, मंदसौर, उज्जैन मध्यप्रदेश के वे तीन शहर हैं, जहां से एससी-एसटी एक्ट, किसान आंदोलन और सवर्ण आंदोलन ने जन्म लिया और पूरे प्रदेश में इनकी आंच पहुंच चुकी है। इस आंच में चौथी पारी की आस झुलस न जाए इसके लिए भाजपा पूरी तैयारी के साथ जुट गई है। भाजपा में बेहतर प्रबंधन के लिए चुनाव वाले राज्यों में दूसरे राज्यों के नेता प्रदेश और जिला संगठन मंत्रियों के साथ मिलकर काम कर रही है। बता दें कि स्थानीय नेताओं को नाराजगी उनके दखल पर नाराजगी थी। इसको देखते हुए शीर्ष नेतृत्व ने यह कदम उठाया गया है।
15 साल बाद सत्ता विरोधी लहर
मध्य प्रदेश में भाजपा 15 साल से सत्ता में है। लेकिन पहली बार सत्ता विरोधी लहर भाजपा के लिए परेशानी का कारण बनी हुई है। हालांकि, भाजपाई यह मानने को तैयार नहीं है कि प्रदेश में सत्ता विरोधी लहर है। लेकिन जिस तरह विधायकों का टिकट काटा गया है उससे तो यह बात साफ है कि भाजपा अंदर ही अंदर डैमेज कंट्रोल में जुटी हुई है। जो इस बात का संकेत है कि प्रदेश में जीत को लेकर भाजपा फिलहाल कोई खतरा मोल लेने को तैयार नहीं है।
राजनीतिक जानकार मानते हैं कि लगातार इतने साल सरकार चलाने के बाद किसी भी पार्टी या सरकार के लिए उसकी साख बरकार रखना एक बड़ी चुनौती होती है। ऐसा ही कुछ शिवराज सरकार के साथ भी है। अगर किसी पार्टी की पांच साल की सरकार हो तो भी अगले चुनाव में उस पार्टी को सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ता है, तो फिर मध्य प्रदेश में तो भाजपा की पंद्रह साल की सरकार है। जाहिर है कि सरकार इन सालों में राज्य के हर तबके को खुश नहीं कर सकती और इन्हीं असंतुष्ट लोगों की नाराजगी पार्टी और सरकारों को चुनावों में उठानी पड़ती है। मध्य प्रदेश में शिवराज सरकार के द्वारा किए गए कामों का व्याख्यान केंद्रीय नेतृत्व से लेकर तमाम भाजपा के नेता करते हैं लेकिन हाल के हालात को देखें तो मध्य प्रदेश में कानून व्यवस्था चरमा सी गई है। इसका असर चुनाव में जरूर दिखेगा।
हालांकि सत्ता विरोधी माहौल को बदलने के लिए भाजपा की पहले से ही कोशिश युवाओं को अपने साथ लाने की रही है। पार्टी ने पहले से ही नए वोटर को अपने साथ जोडऩे के लिए ‘मिलेनियम वोटर ड्राइव’ नाम से अभियान शुरू किया है। इस अभियान में उन युवा मतदाताओं को वोटर लिस्ट में नाम जोडऩे के लिए अभियान चलाया गया है जिनका जन्म साल 2000 में हुआ है। 2018 में इनकी उम्र 18 साल की हो गई है। भाजपा ने ‘वन बूथ, टेन यूथ’ नाम से भी कार्यक्रम चलाया है। बूथ मैनेजमेंट के माहिर खिलाड़ी अमित शाह भी इस बात को समझते हैं कि घर से पोलिंग बूथ पर मतदाताओं को लाने का काम यूथ ही करता है, लिहाजा बूथ मैनेजमेंट की जिम्मेदारी में युवाओं को पूरा स्थान दिया जा रहा है। हालांकि ऐसा करते वक्त उन दस युवाओं में समाज के हर वर्ग के लोगों को शामिल किया गया रहा है जिससे बूथ मैनेजमेंट और बेहतर हो सके।
शिवराज से ज्यादा मोदी के खिलाफ लहर!
कांग्रेस जनता के बीच डीजल-पेट्रोल, रफाल डील और अन्य कई मुद्दे उठाने में सफल रही है। कांग्रेस ने पूरे देश में लोगों के दिमाग में भाजपा सरकार को लेकर भ्रम पैदा कर दिया है। ऐसी स्थिति में कई सीटों पर जीत का अंतर काफी कम हो जाएगा। इसलिए दोनों राजनीतिक पार्टिया न केवल इस मतों के अंतर को बढ़ाने के लिए रणनीति पर काम कर रहे हैं बल्कि बेहतर प्रबंधन भी कर रहे हैं, जिससे यह कम मार्जिन उनकी पक्ष में आ सके। सूत्रों का कहना है कि मध्यप्रदेश में भाजपा अन्य चीजों के अलावा चुनाव प्रबंधन पर अधिक ध्यान केंद्रित कर रही है क्योंकि राज्य में लगभग 50 सीटों पर दोनों पक्षों के उम्मीदवारों के बीच अंतर 1000-2000 वोट का अंतर रहने की संभावना है। पिछले चुनाव में इसी तरह की स्थिति रही थी, जहां लगभग 50 सीटों पर कांग्रेस प्रत्याशी 2,500 वोटों के अंतर से हारे थे। साफ पता चलता है कि कांग्रेस का प्रबंधन इन सीटों पर अच्छा नहीं था, जबकि भाजपा ने इसे अच्छी तरह से मैनेज किया।
इसमें काई शक नहीं है कि प्रदेश में भाजपा के खिलाफ माहौल नहीं है। भाजपा प्रदेश में सत्ता विरोधी लहर से निपटने के लिए चुनाव प्रबंधन पर अधिक ध्यान केंद्रित करने की योजना बना रही है। पार्टी द्वारा किए गए तीन-चार सर्वेक्षणों ने सुझाव दिया है कि भाजपा बड़े पैमाने पर सत्ता विरोध का सामना कर रही है। इस सर्वेक्षण की सबसे दिलचस्प बात यह है कि सर्वे में बताया गया है कि राज्य की तुलना में केंद्र के प्रति अधिक सत्ता विरोध दिखाई दे रहा है। सूत्रों का कहना है कि, भाजपा यह अच्छी तरह जानती है कि विरोध पार्टी के खिलाफ है न कि किसी व्यक्तिगत के खिलाफ। वहीं हाल ही में मप्र पुलिस की इंटेलिजेंस शाखा की रिपोर्ट में भी प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की सरकार से ज्यादा केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ लहर होना बताया गया है। इससे पूर्व के सर्वेक्षणों में सुझाव दिया गया है कि सत्ता विरोधी लहर सबसे अधिक केंद्र सरकार के खिलाफ है। कांग्रेस जनता के बीच डीजल-पेट्रोल, रफाल डील और अन्य कई मुद्दे उठाने में सफल रही है। कांग्रेस ने पूरे देश में लोगों के दिमाग में भाजपा सरकार को लेकर भ्रम पैदा कर दिया है। ऐसी स्थिति में कई सीटों पर जीत का अंतर काफी कम हो जाएगा। इसलिए दोनों राजनीतिक पार्टिया न केवल इस मतों के अंतर को बढ़ाने के लिए रणनीति पर काम कर रहे हैं बल्कि बेहतर प्रबंधन भी कर रहे हैं, जिससे यह कम मार्जिन उनकी पक्ष में आ सके।
सूत्रों का कहना है कि मध्यप्रदेश में भाजपा अन्य चीजों के अलावा चुनाव प्रबंधन पर अधिक ध्यान केंद्रित कर रही है क्योंकि राज्य में लगभग 50 सीटों पर दोनों पक्षों के उम्मीदवारों के बीच अंतर 1000-2000 वोट का अंतर रहने की संभावना है। ऐसी स्थिति में बेहतर चुनाव प्रबंधन करने वाली पार्टी को फायदा मिलेगा। भाजपा सूत्रों का कहना है कि पिछले चुनाव में इसी तरह की स्थिति रही थी, जहां लगभग 50 सीटों पर कांग्रेस उम्मीदवार 2500 वोटों के अंतर से चुनाव हार गए थे। इससे साफ तौर पर पता चलता है कि कांग्रेस का प्रबंधन इन सीटों पर अच्छा नहीं था, जबकि भाजपा ने इसे अच्छी तरह से मैनेज किया था। इस बार सामने आई रिपोर्ट में साफ हो चुका है कि भाजपा और कांग्रेस के बीच 10-20 सीटों का ही अंतर होगा। ऐसे में दोनों पक्षों के लिए प्रबंधन को बेहतर रखना जरूरी है। भाजपा यह चुनाव फिर से तभी जीत सकती है अगर वह चुनावों को अच्छी तरह से मैनेज करेगी। उसने इस पर काम करना शुरू कर दिया है।
मोदी-शाह की जोड़ी करेगी कमाल?
देश में होने वाले हर छोटे-बडे चुनावों में भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी को साथ लेकर ही लड़ती है। मोदी और शाह की जोड़ी ने भाजपा को कई चुनाव जिताए हैं। जहां कभी भाजपा की सरकार नहीं थी वहां भी इस जोड़ी ने अपनी मेहनत से भाजपा को सत्ता का स्वाद चखाया। ऐसे में क्या मोदी-शाह की ये जोड़ी भाजपा को चौथी बार मध्य प्रदेश में सत्ता पर काबिज कर पाएगी? हम सभी जानते हैं कि अमित शाह का चुनावी गणित अक्सर सटीक बैठता है, और मोदी भाजपा के सबसे बड़े स्टार प्रचारक हैं। ऐसे में अगर इन दोनों की जोड़ी ने फिर कमाल कर दिया तो कांग्रेस के लिए यह लोकसभा चुनाव से पहले बड़ा झटका साबित होगा। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मोदी-शाह की जोड़ी के लिए यह मध्यप्रदेश का विधानसभा चुनाव अब तक का सबसे कठिन चुनाव साबित होगा। दरअसल, कई मायनों में अहम इस चुनाव को आगामी लोकसभा चुनावों के सेमीफाइनल के रूप में में भी देखा जा रहा है, और इसमें बेहतर करने के लिए देश के दोनों ही प्रमुख पार्टियां और कांग्रेस एड़ी, चोटी का जोर लगा रहे हैं। जहां कांग्रेस के लिहाज से वर्तमान परिस्थिति भाजपा को टक्कर देने के लिहाज से सबसे मुफीद है तो वहीं मोदी और शाह के चुनावी रण में यह सबसे मुश्किल चुनाव है। वैसे तो मोदी और शाह की जोड़ी का चुनावी प्रदर्शन काफी बेहतर रहा और इस जोड़ी ने अपने नेतृत्व में लड़े ज्यादातर चुनावों में बेहतर नतीजे ही दिए है, हां साल 2015 जरूर इस जोड़ी को चुनावी जीत नहीं दिला सका था, जब भाजपा को बिहार और दिल्ली में मुंह की खानी पड़ी थी। और अगर इन दो चुनावों को छोड़ दें तो यह जोड़ी अपने नेतृत्व में कम से कम एक दर्जन राज्यों में भाजपा को सत्ता में लाने में कामयाब रही है। हालांकि, इन एक दर्जन राज्यों में 2 राज्य गुजरात और गोवा ही वो राज्य थे जहां भाजपा पहले से सत्ता में काबिज थी और अन्य राज्यों में अन्य पार्टियों की सरकारें थी। मगर हालिया चुनावी दौर में ऐसा पहली बार होगा जब 5 राज्यों के चुनावों में 3 राज्य भाजपा के कब्जे में हैं, जहां भाजपा मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पिछले 15 सालों से सत्ता में है तो वहीं राजस्थान में भाजपा 2013 में कांग्रेस को हराकर सत्ता में आई थी। यानी ऐसा पहली बार होगा जब मोदी और शाह की जोड़ी को 3 राज्यों में सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ेगा। इससे पहले गुजरात चुनावों में भी भाजपा को सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ा था। उन चुनावों में भाजपा जीत जरूर गई थी, मगर इसके लिए भाजपा को काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। अब फिर से भाजपा को ऐसी ही चुनौतियों का सामना मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में करना पड़ रहा है। मोदी और शाह की जोड़ी के लिए परेशानी इस बात की भी है कि 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद शायद ऐसा पहली बार हो रहा है जब देश के मध्यम वर्ग में केंद्र सरकार को लेकर रोष है। देश का मध्यम वर्ग जहां पेट्रोल, डीजल के बढ़ते दामों को लेकर नाराज है तो वहीं अगड़ी जातियों का एक तबका भी एससी-एसटी एक्ट को लेकर सरकार से नाराज है और इसका असर मध्य प्रदेश में देखने को भी मिल रहा है। ऐसे में सत्ता में बने रहने के लिहाज से जहां भाजपा को सत्ता विरोधी लहर को शांत रखना होगा तो वहीं भाजपा को सर्वाधिक मदद करने वाले वोटबैंक मध्यम वर्ग को भी अपने साथ जोड़े रखने की चुनौती होगी। हालांकि मोदी-शाह की जोड़ी के रिकाड्र्स देख कर यह जरूर कहा जा सकता है कि आने वाले चुनावों में तमाम दुश्वारियों के बावजूद भाजपा सत्ता बचा पाने में सफल रहे इसकी सम्भावना दिखती है मगर यह चुनाव इस जोड़ी की कड़ी परीक्षा लेने वाली है इस बात से कोई इंकार नहीं किया जा सकता।
क्या राहुल को मिलेगा आशीर्वाद?
मप्र में 15 साल से सत्ता का वनवास काट रही कांग्रेस को सत्ता में लाने के लिए पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने मोर्चा संभाल लिया है। इसके लिए उन्होंने मंदिरों केे साथ ही जनता के दर पर दस्तक देकर जीत का आशीर्वाद मांगा है। उन्हें जीत का आशीर्वाद मिलेगा की नहीं यह तो 11 दिसंबर को ही सामने आएगा, लेकिन उनकी सक्रियता ने भाजपा के खेमें में हलचल पैदा कर दी है। गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में साल 2003 में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल होना पड़ा था। उसके बाद से ही कांग्रेस सत्ता का वनवास झेल रही है। जबकि मध्यप्रदेश में सरकार बदलने की परंपरा देखी जाती रही है। कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस सत्ता में रही है। लेकिन मध्यप्रदेश में कांग्रेस के दिग्विजय-काल के बाद से हालात बदल गए। पहले दिग्विजय सिंह ने दस साल राज किया तो अब शिवराज सिंह पंद्रह साल से सत्ता पर हैं। दिग्विजय-दौर के दस साल के बाद जनता ने शिवराज को हर पांच साल बाद पांच साल का एक्स्ट्रा बोनस देने का काम किया जिससे कांग्रेस का वनवास सरकते-सरकते 15 साल तक पहुंच गया। लेकिन राहुल के मध्यप्रदेश के लगातार दौरों ने इस बार राजनीति के समीकरणों को बदलने का काम किया है। राहुल के दौरे से पहले तक भाजपा विधानसभा चुनाव को साल 2013 के एक्शन-रीप्ले की तरह ही देख रही थी क्योंकि भाजपा के सामने कांग्रेस अपनी अंदरूनी गुटबाजी के चलते कमजोर नजर आ रही थी। लेकिन राहुल के दौरे से मध्यप्रदेश की सियासत में गर्मी आ गई है। राहुल की वजह से 15 साल से सोई कांग्रेस की उम्मीद भी जगी है। राहुल को सुनने के लिए उमड़ी भीड़ में कांग्रेस अब सत्ता विरोधी लहर देखने लगी है। रोड शो और रैलियों में उमड़ी भीड़ से उत्साहित राहुल ने मध्यप्रदेश के किसानों से वादा किया है कि अगर राज्य में कांग्रेस की सरकार बनती है तो सिर्फ 10 दिनों में किसानों का कर्जा माफ किया जाएगा और ऐसा न करने वाले सीएम को ग्यारहवें दिन बदल दिया जाएगा। राहुल का यह अंदाज उन किसानों में उम्मीद जगा सकता है जिन्होंने मंदसौर किसान आंदोलन देखा। अब कांग्रेस के लिए किसान आंदोलन की फसल काटने का समय है। वैसे भी मंदसौर के निकाय चुनावों में कांग्रेस को मिली जीत से प्रदेश की जनता का मिजाज समझा जा सकता है। तभी राहुल को मध्यप्रदेश में एंटी-इनकम्बेंसी दिखाई दे रही है और वो कह रहे हैं कि इस बार मध्यप्रदेश में वोट स्विंग हो सकता है जिसका फायदा कांग्रेस को ही मिलेगा। हालांकि साल 2013 में मध्यप्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच वोट प्रतिशत का अंतर काफी बड़ा था। भाजपा को जहां 44.88 प्रतिशत वोट मिले थे तो कांग्रेस को 36.38 प्रतिशत वोट ही मिले थे। ऐसे में राहुल गांधी का आशावादी नजरिया संदेह पैदा करता है। लेकिन, राहुल के दौरे से कांग्रेस अब भाजपा के मुकाबले में जरूर खड़ी हो गई है। पहले मंदसौर किसान आंदोलन ने शिवराज सरकार की नींद उड़ाने का काम किया तो अब राहुल के दौरों ने भाजपा के लिए चिंता की लकीरें खींच गया है।
चलेगा शिव का जादू या छाएंगे नाथ-सिंधिया
विधानसभा चुनाव में मतदाताओं की चुप्पी ने राजनीतिक पार्टियों के रणनीतिकारों के साथ ही दिग्गज नेताओं को परेशानी में डाल दिया है। ऐसे में पार्टियों की जीत में उनके दिग्गज नेताओं के प्रभाव और सक्रियता का अधिक महत्व रहेगा। ये हैं भाजपा के पोस्टर ब्वाय शिवराज सिंह चौहान, कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ और कांग्रेस चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया। अब देखना यह होगा कि चुनाव में शिवराज का जादू चलेगा या कमलनाथ और सिंधिया छाएंगे। गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में सत्ता की कुर्सी हासिल करने के लिए पार्टियों के बीच जंग शुरू हो गई है। अभी तक हुए तीनों चुनावों में भाजपा और कांग्रेस के बीच लड़ाई देखी गई है। 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के बीच हार-जीत का अंतर 8.5 फीसदी था। लेकिन कांग्रेस को विश्वास है कि इस बार के चुनाव में वह इस अंतर को पाटकर सत्ता में वापसी करेगी। लेकिन कांग्रेस के दावे के बीच शिवराज का जादू आड़े आ सकता है।
शिवराज सिंह चौहान जो राज्य की राजनीति में मामा के नाम मशहूर हैं, उनकी कोशिश चौथी बार भगवा पार्टी को सत्ता में वापसी कराना है लेकिन इस बार कांग्रेस की एकजुटता और सत्ता विरोधी लहर उनकी जीत के अभियान पर ग्रहण लगा सकती है। कुल मिलाकर यहां भाजपा और कांग्रेस के बीच मुकाबला काफी रोचक और चुनौतीपूर्ण है। मुख्यमंत्री पद के लिए शिवराज आज भी लोगों की पहली पसंद हैं लेकिन जमीनी स्तर पर पार्टी के प्रति लोगों का आक्रोश देखने को मिल रहा है। शिवराज को इससे निपटना बड़ी चुनौतियों में से एक है। शिवराज के लिए इस बार का चुनाव आसान नहीं है। अगड़ी और दलित जातियों की नाराजगी के बीच उन्हें किसानों के आक्रोश का भी सामना करना पड़ रहा है। फसलों की कीमत गिरने से किसान गुस्से में हैं। कांग्रेस अपनी चुनावी रैलियों में किसानों के मुद्दों को जोर-शोर से उठा रही है।
इस चुनाव में भाजपा के स्टार शिवराज के मुकाबिल कांग्रेस के कमलनाथ और ज्योतिरादित्य हैं। अभी तक जो दृश्य सामने आए है उससे तो यही लगता है कि सत्ता के लिए संघर्ष करने वाली कांगे्रस के लिए इस बार कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया ही संजीवनी का काम कर रहे हैं। ये जरूर है कि दूसरे नेताओं के पास भी अपने-अपने काम हैं, लेकिन 15 साल से वनवास काट रही कांग्रेस के लिए दोनों ही नेता संजीवनी माने जा रहे हैं। दिल्ली से जो प्रयोग हुआ उसके अनुसार दोनों ही नेता अपने-अपने काम में माहिर हैं इस समय दोनों नेताओं को लेकर जो स्थिति बनी हुई है वह किसी से छुपी नहीं है। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया अब पार्टी के लिए उस संजीवनी की तरह हो गए हैं जो कार्यकर्ताओं में भाजपा सरकार के विरोध को सडक़ तक ले आए हैं। इस समय सीएम शिवराज सिंह चौहान की पूरी कोशिश सरकार को बचाने कोशिश हो रही है। कांग्रेस ने सीएम पद के लिए अपने चेहरे की घोषणा नहीं की है लेकिन पार्टी ने यह जरूर संकेत दिया है कि यदि वह सत्ता में चुनकर आती है तो कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया में से कोई एक मुख्यमंत्री बनेगा। कांग्रेस के लिए अपने दिग्गज नेताओं में तालमेल बिठाना कठिन काम है क्योंकि प्रदेश में कमलनाथ और सिंधिया के अलावा दिग्विजय सिंह और अजय सिंह जैसे नेता भी हैं जो राज्य की राजनीति में अपना दखल, प्रभाव और हैसियत रखते हैं। इन सभी प्रदेश क्षत्रपों के अपने अलग गुट और समर्थक हैं।
कछुए की चाल पर बड़़ा दांव
मध्यप्रदेश की राजनीति में ज्योतिरादित्य सिंधिया का उभरना एक बार फिर खरगोश और कछुए की कहानी के सिद्धांत को साबित करता है। बताया जाता है कि आज प्रदेश में भाजपा सरकार के खिलाफ जो माहौल है वह सिंधिया की मेहनत का ही परिणाम है। उन्होंने चुपचाप, आराम से, लगातार जमीनी स्तर पर काम किया। उसके बाद अचानक राज्य के मुख्यमंत्री पद के दावेदार बनकर खड़े हुए। मध्यप्रदेश चुनाव के लिए आ रहा हर सर्वे सिंधिया को मतदाताओं की पहली पसंद बता रहा है। माना जा रहा है कि उनकी लोकप्रियता मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और अपने ही साथी, कमलनाथ से ज्यादा है। 2013 के मध्यप्रदेश विधानसभा और 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली हार के बाद तो किसी ने उम्मीद नहीं की थी कि राजनीति में ज्योतिरादित्य का ऐसा उभार आएगा। उन्हें कुल मिलाकर दिल्ली के नेता के तौर पर देखा गया, जिसका जमीनी स्तर पर ज्यादा असर नहीं था। प्रादेशिक गणित पर राजनीति को देखने पर भी उन्हें नुकसान ही दिख रहा था। यही नहीं उन्हें अपने घराने के ऊपर लगे दाग से मुकाबला करना था। भाजपा ने उन्हें टारगेट पर लेकर लगातार हमले किए। लेकिन उन्होंने अपना धैर्य नहीं खोया। ज्योतिरादित्य के मध्यप्रदेश में उभार की मुख्य वजह है उनका सौम्य, संयमित और करिश्माई व्यक्तित्व। उनके जैसे युवा वोटर उन्हें आधुनिक और प्रगतिशील सोच वाला मानते हैं। लगातार बढ़ते इन कयासों के साथ कि वो मध्यप्रदेश के सीएम बन सकते हैं, सिंधिया को दो मामलों को डील करना है। पहला, भाजपा के खिलाफ एंटी इंकमबेंसी का अधिक से अधिक फायदा उठाना और दूसरा कम होने के बावजूद कमलनाथ की अच्छी-खासी लोकप्रियता और महत्वाकांक्षा। ज्योतिरादित्य के लिए कमलनाथ ज्यादा बड़ी चुनौती हैं। उनका कांग्रेस हाई कमान से रिश्ता अच्छा रहा है। ट्रैक रिकॉर्ड उनके साथ है। अगर कांग्रेस इस चुनाव में जीतती है, तो किसकी ताजपोशी होगी, इसका फैसला दो बातों पर निर्भर करता है। पहला, नतीजे पढ़ पाने की राहुल गांधी की क्षमता और उसे आने वाले लोकसभा चुनाव में रणनीति के तौर पर पेश करना। उन्हें तय करना होगा कि सीएम के तौर पर कांग्रेस के लिए ज्यादा फायदेमंद कौन हो सकता है, कमलनाथ या ज्योतिरादित्य।
क्या क्षेत्रीय पार्टियां बनेंगी किंगमेकर?
सत्ता के लिए भाजपा और कांग्रेस के बीच मचे संग्राम के बीच माना जा रहा है कि इस बार क्षेत्रीय पार्टियां किंगमेकर बन सकती हैं। प्रदेश के बुंदेलखंड, विंध्य, ग्वालियर-चंबल और उत्तर प्रदेश से लगे जिलों में बहुजन समाज पार्टी व समाजवादी पार्टी का प्रभाव माना जाता है, जबकि महाकौशल में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का असर है। 2003 के विधानसभा चुनाव के दौरान गोंडवाणा गणतंत्र पार्टी ने 3 सीटें जीती थीं, लेकिन इसके बाद से आपसी बिखराव के कारण उसका प्रभाव कम होता गया है। पिछले चुनाव के दौरान उसे करीब 1 प्रतिशत वोट मिले थे। ऐसा माना जाता है कि गोंडवाणा गणतंत्र पार्टी का अभी-भी शहडोल, अनूपपुर, डिंडोरी, कटनी, बालाघाट और छिंदवाड़ा जिलों के करीब 10 सीटों पर प्रभाव है। 2003 के विधानसभा चुनाव के दौरान समाजवादी 8 सीटें जीतकर मध्य प्रदेश की तीसरी सबसे बड़ी ताकत के रूप में उभरी थी। प्रदेश में उसके एक भी विधायक नहीं हैं, पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान सपा को करीब सवा प्रतिशत वोट हासिल हुए थे।
2013 में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान बसपा तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। उसके चार प्रत्याशी जीते थे। इस चुनाव में बसपा को करीब 6.29 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि 11 अन्य सीटों पर उसके उम्मीदवार दूसरे नंबर पर रहे थे। इस पर बसपा 15 सीटें जीतकर मध्य प्रदेश में सत्ता की चाभी अपने हाथ में रखने का ख्वाब देख रही है, लेकिन ये आसान नहीं है। इस दौरान पार्टी के कई नेता पार्टी छोड़ चुके हैं, जिसका असर आगामी चुनाव में पड़ सकता है। इसी तरह से कांग्रेस के साथ गठबंधन ना होने का नुकसान बसपा को भी उठाना पड़ेगा। बसपा अगर सभी सीटों पर चुनाव लड़ती है तो इसका सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को होगा। इन तीनों पाटियों के वोट बैंक भले ही कम हो, लेकिन यह असरदार हैं।
प्रदेश की राजनीति में बसपा, सपा और गोंगपा जैसे पुराने दल तो पहले से ही सक्रिय हैं, लेकिन इस बार मध्यप्रदेश में अपना पहला विधानसभा चुनाव लडऩे जा रही आम आदमी पार्टी तो अपने बूते पर सरकार बनाने का दावा कर रही है। जाहिर है इस बार मुकाबला बहुत दिलचस्प और अलग होने जा रहा है, क्योंकि ऐसा माना जा रहा है कि किसी एक पार्टी के पक्ष में लहर ना होने के कारण हार-जीत तय करने में छोटी पार्टियों की भूमिका अहम रहने वाली है। इसीलिए क्षेत्रीय पार्टियां पूरी आक्रमकता के साथ अपने तेवर दिखा रही हैं, जिससे चुनाव के बाद वे किंगमेकर की भूमिका में आ सकें।
ये पार्टियां किंगमेकर बनेंगी कि नहीं, यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन भाजपा और कांग्रेस की जीत का गणित तो जरूर बिगडऩे वाला है। पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान बसपा और गोंडवाना गणतंत्र जैसी पार्टियों ने 80 से अधिक सीटों पर 10,000 से ज्यादा वोट हासिल किए, जो की हार-जीत तय करने के हिसाब से पर्याप्त हैं। कांग्रेस की अंदरूनी रिपोर्ट भी मानती है कि मध्यप्रदेश के करीब 70 सीटें ऐसी हैं, जहां क्षेत्रीय दलों के मैदान में होने की वजह से कांग्रेस को वोटों का नुकसान होता आया है, जिसमें बसपा सबसे आगे है। इसीलिए कांग्रेस की तरफ से बसपा के साथ गठबंधन को लेकर सबसे ज्यादा जोर दिया जा रहा था।
वहीं, दूसरी तरफ सत्तारूढ़ भाजपा अच्छी तरह से जानती है कि कांग्रेस के हाथों मध्य प्रदेश की सत्ता गंवाना उसके लिए कितना भारी पड़ सकता है। भाजपा के लिए गुजरात के बाद मध्य प्रदेश सबसे बड़ा गढ़ है और कांग्रेस उसे यहां की सत्ता से बेदखल करने में कामयाब हो जाती है तो इसे इसका बड़ा मनोवैज्ञानिक लाभ मिलेगा। पिछले दो चुनाव की तरह मध्य प्रदेश में इस बार भाजपा के लिए राह आसान दिखाई नहीं दे रही है। इस बार कांग्रेस कड़ी चुनौती पेश करती हुई नजर आ रही है।