पोहा ए मालवा

हम मालवावसियों की तो सुबह ही पोहे से होती है, कहते है

न सुबह काशी, शामे अवध और शबे मालवा। अब शब ए मालवा के साथ पोहा ए मालवा भी जोड़ा जाए,यह हम सब मालवी टेंपो की देश के तमाम साहित्यकारों से पुरजोर मांग है।
पोहा वैसे तो महाराष्ट्र से आया है, यह हमारे यहां की डिश कभी थी ही नहीं, सन् 52 के आसपास महाराष्ट्र का एक होटल व्यवसायी इसे सीधे इंदौर लाया और राजबाड़े पर अपनी पहली दुकान शुरू की, शनै: शनै: कब यह मालवा की राष्ट्रीय पहचान बन गया पता ही नही चला।
मालवावासी खाद्य वस्तुओं में भेल संभेल (जिसे आज की परिष्कृत भाषा मे इनोवेटिव कहा जाता है) के लिए कुख्यात है,जैसे रसगुल्ले में चाशनी की जगह आमरस डालना, चक्के में आम के टुकड़े डाल कर आमखण्ड बनाना, रबड़ी, श्रीखंड एवं आइसक्रीम मिला कर जायकेदार मिश्रण बनाने जैसी कला हमारे मालवी हलवाइयों को ही आती है और सबसे बेहतरीन तो सभी प्रकार के नमकीन में जीरावन डालना। जीरावन का नाम आया तो चलिए जीरावन पर भी कुछ बात हो जाए,जीरावन मूल रूप से जैनियों द्वारा ईजाद किया गया है, अधिकांश जैन लोग लहसुन, प्याज नही खाते हैं। दिन विशेषों पर तो हरी सब्जी भी नहीं खाते हैं,ऐसे में उन्हें कुछ हाजमेदार और चटपटा चाहिए तो हो गया जीरावन का अविष्कार। अब इस शानदार चटपटे जीरावन को पोहे में डालने का काम तो मालवा वासी ही कर सकते है न, तो भिया जो सीधा साधा पोहा महाराष्ट्र से चला था, अब उसके नखरे देखिए जीरावन, सेव, कच्चे प्याज, अनार दाने, कोथमीर, नमकीन बूंदी आदि से उसे सजावट चाहिए। वैसे हर जगह के पोहे की अलग अलग खासियत होती है, चुकी एकेडमिक उज्जैन में हुआ तो देवास गेट के पोहे बहुत याद आते है, कारण भी बहुत सीधा है, वह एक प्लेट में डेढ़ प्लेट के बराबर पोहे देता था, इसलिए हम लोग उसे छूट हाथ के पोहे कहते थे, देवास के गरम मसाले वाले पोहे आ आहा मुंह में पानी आ जाए, इंदौर में तो किसी एक की बात ही नही हो सकती, सब एक से बढक़र एक, और धार के श्रीराम वाले के उसल पोहे, उंगलिया चाटते रह जाओ और यदि पोहे के साथ कट न हो तो एसा लगता है कि श्रृंगार अधूरा रह गया। खैर, कल इतवार है, सुबह छक कर पोहे दबाओ, दोपहर में दाल बाफले मचकाओ, फिर तान के सो जाओ क्योंकि शाम को श्रीखंड आपका इन्जार करेगा। जय हो।