कांग्रेस की बढ़त: मजबूत गठबंधन, सयाना तालमेल

लोकसभा चुनावों के नतीजे कांग्रेस के लिए संजीवनी साबित हुए हैं. पार्टी के प्रदर्शन में सर्वाधिक योगदान महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटक, हरियाणा, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश ने दिया है. इन 6 राज्यों में पार्टी को 2019 की अपेक्षा 43 सीटें अधिक मिली हैं.

नई दिल्ली: लोकसभा चुनावोंं के अंतिम नतीजे दशक भर बाद विपक्ष के लिए उम्मीद की एक किरण साबित हुए हैं. पिछले दो चुनावों से पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र में काबिज सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) बहुमत के जादुई आंकड़े तक नहीं पहुंच पाई, और विपक्षी ‘इंडिया’ गठबंधन जोड़ – तोड़ कर सरकार बनाने की स्थिति में आ गया.

ये नतीजे देश मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के लिए केंद्रीय राजनीति में संजीवनी साबित हुए हैं. 2014 में 44 और 2019 में 52 सीटों पर सिमटी पार्टी ने इस बार अपनी संख्या सदन में लगभग दोगुनी कर ली है. उसके खाते में 99 सीट आई हैं.

पार्टी के प्रदर्शन में सर्वाधिक योगदान महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटक, हरियाणा, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों ने दिया है. इन 6 राज्यों में पार्टी को 2019 की अपेक्षा 43 सीटें अधिक मिली हैं.

महाराष्ट्र में 48 लोकसभा सीट हैं. गठबंधन के तहत कांग्रेस ने 17 सीटों पर चुनाव लड़ा था और वह 13 सीट जीतने में कामयाब रही. 2019 में कांग्रेस ने 25 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन जीत केवल एक सीट पर मिली थी.

राजस्थान में पिछले चुनाव में पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया था और वह राज्य की 25 लोकसभा सीटों में से एक भी सीट नहीं जीत सकी थी. इस बार उसने 22 सीट पर अपने उम्मीदवार उतारे और 8 पर जीत मिली है.

कर्नाटक में भी पार्टी ने पिछले चुनाव के मुकाबले 8 सीट अधिक जीती हैं. 2019 में पार्टी ने 21 सीट पर उम्मीदवार उतारे थे और उसे महज एक सीट पर जीत मिली थी. इस बार, राज्य के सत्तारूढ़ दल के तौर पर पार्टी ने राज्य की सभी 28 सीटों पर चुनाव लड़ा और 9 सीट जीतने में कामयाब रही.

10 लोकसभा सीटों वाले हरियाणा में पिछली बार पार्टी का खाता तक नहीं खुला था, इस बार वह 5 सीट जीती है.

तेलंगाना में भी पार्टी को पिछली बार से 5 सीट अधिक मिली हैं. 2003 में 3 सीट जीतने वाली कांग्रेस ने इस बार 8 सीट जीती हैं.

हालांकि, उत्तर प्रदेश की कुल सीट संख्या (80) के लिहाज से देखें तो कांग्रेस द्वारा जीती गईं 6 सीटें काफी कम दिखाई देती हैं, लेकिन पिछले चुनाव से तुलना करें तो तब पार्टी 67 सीट पर लड़कर केवल एक सीट जीत पाई थी, इस बार उसने समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ गठबंधन के तहत केवल 17 सीट पर चुनाव लड़ा था और 6 सीट जीतने में कामयाब रही.

मणिपुर में भी भाजपा की ‘डबल इंजन’ सरकार में जारी हिंसा के दौर ने राज्य की दोनों सीटें इस बार कांग्रेस की झोली में डाल दी हैं.

इस तरह कांग्रेस ने 23 राज्यों में 99 सीट जीती हैं. पार्टी ने कुल 328 सीटों पर चुनाव लड़ा था. यह पार्टी के इतिहास की सबसे कम सीट संख्या थी, जिन पर उसने चुनाव लड़ा था. 2019 में पार्टी 421 सीटों पर लड़कर महज 52 सीटें जीती थी. 2019 में जहां पार्टी को 19.49 फीसदी मत मिले थे, वहीं इस बार 21.19 फीसदी मत मिले हैं. जिसे उल्लेखनीय वृद्धि नहीं कहा जा सकता है.

राजनीतिक टिप्पणीकार, लेखक और कांग्रेस की विचारधारा से इत्तेफाक रखने वाले संजय झा द वायर से बातचीत में कहते हैं, ‘मोदी कह रहे हैं कि कांग्रेस द्वारा 2014 से 2024 तक तीन लोकसभा चुनावों में जीतीं कुल सीट भी भाजपा के 240 के बराबर नहीं हैं. इसे इस तरह देखिए कि किन विपरीत परिस्थितियों में पार्टी ने अपनी सीट संख्या लगभग दोगुनी की है. उसके अकाउंट फ्रीज कर दिए गए, केंद्रीय जांच एजेंसियां विपक्ष के पीछे थीं, विपक्षी नेता जेल में डाल दिए गए, इलेक्टोरल बॉन्ड का अपार पैसा भाजपा के पास था, चुनाव आयोग और मीडिया उनके साथ था. इन हालात में यह प्रदर्शन अभूतपूर्व है.’

वह कांग्रेस की जीत का श्रेय राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’, ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ और पार्टी के घोषणापत्र को देते हैं. ‘कांग्रेस इसलिए भी सफल रही कि उसने गठबंधन में त्याग किया, इतिहास में सबसे कम सीट 328 पर चुनाव लड़ा और गठबंधन में खुद को पीछे करके बाकियों को आगे बढ़ाकर सबको साथ लिया और स्वयं सिर्फ लक्षित सीटों पर लड़ी. इस नीति का लाभ उसके साथ-साथ पूरे गठबंधन को मिला.’

पार्टी ने इस बार स्थानीय नेतृत्व और स्थानीय मुद्दों को तरजीह दी. जहां भाजपा मोदी, केंद्रीय योजनाओं और मोदी की गारंटियों के नाम पर चुनाव लड़ रही थी, वहीं कांग्रेस ने स्थानीय मुद्दों को उठाकर चुनाव स्थानीय बनाम केंद्रीय बना दिया. इसका लाभ उसे मिला. महाराष्ट्र और राजस्थान – जहां पार्टी के प्रदर्शन में सर्वाधिक वृद्धि हुई है – इसकी कहानी कहते हैं.

महाराष्ट्र में कांग्रेस की कायापलट के क्या कारण हैं?

नंदूरवार, धुले, अमरावती, रामटेक, भंडारा गोंदिया, गढ़चिढ़ोली – चिमुर, चंद्रपुर, नांदेड़, जालना, मुंबई नॉर्थ सेंट्रल, लातूर, सोलापुर और कोल्हापुर वह 13 सीट हैं जहां कांग्रेस जीती है और राज्य में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है. इनमें से चंद्रपुर सीट वह पिछली बार भी जीती थी.

बाकी 12 सीट में से 9 कांग्रेस ने भाजपा से छीनी हैं, जबकि 2 सीट पर पिछली बार शिवसेना जीती थी और 1 सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार.

दिलचस्प है कि कांग्रेस की सीट संख्या में भले ही 12 सीटों का इजाफा हुआ है, लेकिन राज्य में उसका मत प्रतिशत सिर्फ 0.51% बढ़ा है. 2019 में पार्टी को महाराष्ट्र में 16.41% (87,92,237) मत मिले थे, इस बार 16.92% (96,41,856) मत मिले हैं. हालांकि, तब पार्टी नें 25 सीटों पर चुनाव लड़ा था, इस बार महज 17 सीटों पर. इसलिए मत प्रतिशत पार्टी की सफलता की तस्वीर बयां नहीं करता.

इसलिए अगर प्रति सीट प्राप्त मतों की औसत संख्या देखें तो 2019 में जहां कांग्रेस को राज्य में प्रति सीट औसतन 3,51,689 वोट मिले थे, इस बार औसतन 5,67,168 वोट प्राप्त हुए हैं, यानी प्रति सीट 2,15,479 वोट अधिक मिले हैं.

मुंबई विश्वविद्यालय में राजनीति और लोकनीति के शोधार्थी संजय पाटिल कहते हैं, ‘2014 और 2019 में कांग्रेस का प्रदर्शन भले ही अच्छा नहीं रहा, लेकिन वह एक राष्ट्रीय दल है और गांव-गांव में उसका संगठन है. इस बार पार्टी के पास कोई बड़ा चेहरा नहीं था, अशोक चव्हाण बीच चुनाव भाजपा में चले गए. इसलिए पार्टी ने मराठबाड़ा हो या विदर्भ, हर जगह स्थानीय नेतृत्व को स्वतंत्रता दी कि वह स्थानीय एजेंडा निर्धारित करे. इसका कांग्रेस को बहुत फायदा हुआ. अब तक भाजपा से आमने-सामने के मुकाबले में नुकसान कांग्रेस का होता था, इस बार कांग्रेस ने 90 फीसदी सीटें भाजपा के खिलाफ ही जीतीं.’

संजय पाटिल के मुताबिक, कांग्रेस की सफलता का एक कारण उनके गठबंधन महा विकास अघाड़ी (एमवीए) की एकजुटता भी रही. शिवसेना के संगठन ने दोनों ही सहयोगी दलों, कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार गुट), के लिए जमीनी स्तर पर काम करते हुए अपना वोट उन्हें ट्रांसफर किया. हालांकि, भाजपा, एनसीपी (अजित पवार गुट) और शिवसेना (एकनाथ शिंदे गुट) के विपक्षी गठबंधन महायुति में एकता का अभाव रहा क्योंकि भाजपा वहां गठबंधन में हावी रहने का प्रयास करती रही. नतीजतन, वहां अंदरुनी मतभेद भी देखे गए और टिकट वितरण में भी काफी देरी हुई.

जानकार यह भी बताते हैं कि जहां एक तरफ महाराष्ट्र कृषि संकट, सूखा, कोविड के प्रकोप, आर्थिक चुनौतियों आदि से जूझ रहा था, और लोग चाहते थे कि सरकार विकास के स्थानीय मुद्दों पर काम करे, वहीं भाजपा केंद्र में बैठकर राज्य के दलों में फूट डालकर सत्ता हासिल करने की साजिशें रच रही थी. इसने भी मतदाताओं के मन में भाजपा के खिलाफ माहौल पैदा किया.

संजय कहते हैं, ‘कांग्रेस महाराष्ट्र में इसलिए भी सफल हुई क्योंकि जनता ने स्थानीय मुद्दों के प्रति मुखरता दिखाते हुए चुनाव अपने हाथ में ले लिया था, और एमवीए ने उन्हीं मुद्दों को अपना एजेंडा बना लिया. दूसरी तरफ, भाजपा और उसके सहयोगी सिर्फ मोदी का नाम जपते रहे और केंद्र की उपलब्धियां गिनाते रहे. कांग्रेस की नीतियां स्थानीय स्तर पर बन रही थीं, भाजपा की नीतियां दिल्ली से.’

महाराष्ट्र में कांग्रेस की सफलता का श्रेय राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ को भी देती हैं.

उनका कहना है, ‘2019 में कांग्रेस कार्यकर्ता ज़मीन पर नहीं दिखते थे. 2024 में चीजें बदलीं. ‘भारत जोड़ो यात्रा’ को नांदेड़ से निकालना और ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ तो तीन जगह – नंदूरबाड़, मुंबई और ठाणे – पहुंची, जिसमें राहुल गांधी आए. इससे संगठन में उत्साह का संचार हुआ और ज़मीन पर काफी काम हुआ. इसके अलावा, कोविड के समय से ही कांग्रेस ने अपनी उपस्थिति दर्ज करानी शुरू कर दी थी. कई नेता पार्टी छोड़कर जरूर चले गए, लेकिन पार्टी नए लोगों के साथ-साथ पुराने लोगों को आगे लेकर आई और उनके काम की सराहना की. इस सबने बड़ा अंतर पैदा किया.’

ऐसा नहीं है कि कांग्रेस को किसी एक क्षेत्र विशेष में ही सफलता मिली है. नांदेड़, विदर्भ, मराठबाड़ा, कोंकण, पश्चिमी महाराष्ट्र और मुंबई – इन सभी छह संभागों में उसे सीटें मिली हैं.

हालांकि, कांग्रेस की जीत का अंतर कम रहा है. जिसके चलते जानकारों का मानना है कि आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी के लिए आगे की राह आसान नहीं है.

एक मत यह भी है कि कांग्रेस की सफलता काफी हद तक भाजपा की देन है. 2014 और 2019 के चुनावों में जनादेश पानी वाली भाजपा को बीते पांच सालों में इसे मजबूत करना चाहिए था, लेकिन उसने महाराष्ट्र की जनता की समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया. उसने शॉर्ट-कट का सहारा लेकर विरोधी दलों को तोड़ने का काम किया. यह जनता के साथ ही पार्टी से विचारधारात्मक स्तर पर जुड़े समर्थकों को भी रास नहीं आया.

पाटिल कहते हैं, ‘भाजपा की जोड़-तोड़ की राजनीति से एमवीए गठबंधन के प्रति जनता में सहानुभूति उपजी. साथ ही, पिछले 5-10 साल में भाजपा ने जिन लोगों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए, उनको ही पार्टी में लाकर पद-प्रतिष्ठा देना लोगों को अच्छा नहीं लगा.’

राजस्थान में कांग्रेस को आठ सीटें मिलना आम बात नहीं है

गंगानगर, चुरू, झुंझनू, भरतपुर, करौली-धौलपुर, दौसा, टोंक-सवाई माधोपुर और बाड़मेर वो आठ सीट हैं जिन पर कांग्रेस को राजस्थान में जीत मिली है. इनके अलावा तीन और सीट – बांसवाड़ा, सीकर और नागौर – भी इंडिया गठबंधन के घटक दलों के खाते में गई हैं, जिन्हें कांग्रेस ने अपना समर्थन प्रदान किया था.

हालांकि, भाजपा की झोली में 14 सीटें गई हैं लेकिन कांग्रेस की जीत अधिक महत्वपूर्ण इसलिए हो जाती है क्योंकि पिछले दो लोकसभा चुनाव में वह 25 सीटों वाले राजस्थान में खाता तक नहीं खोल सकी थी. 2014 और 2019 में राज्य की सभी लोकसभा सीटें भाजपा और एनडीए ने जीती थीं. इसलिए भाजपा के लिए नतीजे झटके देने वाले रहे.

वहीं, राजस्थान ने 1999 के बाद पहली बार ऐसा लोकसभा चुनाव देखा जहां नतीजे एकतरफा न रहे हों, क्योंकि इसके बाद हुए सभी लोकसभा में किसी एक पार्टी को 20 से अधिक सीटें मिलती आई हैं.

इस बदलाव के पीछे राजस्थान के स्थानीय पत्रकार माधव शर्मा अनेक कारकों को जिम्मेदार बताते हैं. कहते हैं, ‘भाजपा के खिलाफ 10 साल की सत्ता विरोधी लहर थी, और मोदी के नाम पर चुनाव जीतते रहे सांसदों के पास बताने के लिए स्वयं का कोई काम नहीं था.’

महाराष्ट्र की तर्ज पर राजस्थान में भी चुनाव पर स्थानीय मुद्दे हावी थे, जिन्हें काग्रेस ने अपना एजेंडा बनाया.

माधव के मुताबिक, ‘केंद्र की योजनाओं का यहां विरोध था, खासकर अग्निपथ ने भाजपा को बहुत नुकसान पहुंचाया. देश में भारतीय सेना में जाने वालों की दूसरी सबसे अधिक संख्या राजस्थान में ही है. अकेले झुंझनू में वर्तमान में 45,000 सैनिक हैं. चुरू, सीकर, झुंझनू तीन जिलों में 70,000 से ज्यादा हैं. एक-सवा लाख से अधिक सेवानिवृत्त सैनिक हैं. इस योजना का समाज पर सामाजिक और आर्थिक असर देखा गया. चार साल की सेवा के बाद सेवानिवृत्त होने वाले अग्निवीरों से कोई शादी का रिश्ता जोड़ने तैयार नहीं है.’

चुरू, सीकर और झुंझनू की तीनों ही लोकसभा सीट भाजपा हार गई.

इसके अलावा जिन मुद्दों ने राजस्थान में कांग्रेस के लिए दरवाजे खोले उनमें जाट बनाम राजपूत का ध्रुवीकरण भी अहम रहा, जो चुरू, सीकर, बाड़मेर, जालौर, झुंझनू, नागौर बेल्ट में हावी था और इन सभी सीटों पर भाजपा को हार मिली है.

माधव के मुताबिक, पूर्वी राजस्थान की करौली-धौलपुर, भरतपुर और सवाई माधोपुर सीटों पर जाट आरक्षण की केंद्र द्वारा अनदेखी भाजपा को भारी पड़ी, ऊपर से जाट बनाम राजपूत विवाद ने भी जाटों को उससे दूर कर दिया.

गौरतलब है कि उपरोक्त क्षेत्र जाट आरक्षण के केंद्र में रहे थे. वहीं, जाट बनाम राजपूत विवाद में केंद्रीय मंत्री पुरषोत्तम रुपाला के विवादित बयान ने आग में घी का काम किया था.

इस बीच, छह माह पहले भाजपा द्वारा भजनलाल को मुख्यमंत्री बनाए जाने से पार्टी के अंदर स्थानीय स्तर पर पनपे रोष ने भी कांग्रेस के पक्ष में काम किया. गौरतलब है कि राजस्थान में भाजपा के मत प्रतिशत में 2019 के मुकाबले करीब 10 फीसदी की कमी आई है, वहीं कांग्रेस का मत प्रतिशत महज 3.67 फीसदी बढ़ा है.

कहा जा रहा है कि अग्निपथ योजना हरियाणा में भी कांग्रेस की झोली में 5 सीट डालने में निर्णायक साबित हुई. वहीं, कर्नाटक और तेलंगाना ऐसे दो राज्य हैं जहां बीते दिनों कांग्रेस सरकार बनाने में कामयाब रही थी. पार्टी ने दोनों राज्यों में अपने विधानसभा चुनावों के प्रदर्शन को सुधारा ही है.

कर्नाटक में पार्टी को विधानसभा चुनाव में 42.88% मत मिले थे, लोकसभा में वह बढ़कर 45.43 फीसदी हो गए. सीटें कांग्रेस (9) को भले ही भाजपा (17) से आधी मिलीं, लेकिन मत प्रतिशत के मामले में वह भाजपा से केवल 0.63% पीछे रही.

तेलंगाना चौंकाने वाले नतीजे लेकर आया. के. चंद्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) खाता तक नहीं खोल सकी और राज्य में पहली बार मुकाबला कांग्रेस बनाम भाजपा हो गया. जिसमें कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में प्राप्त 39.40% मतों में इजाफा करते हुए 40.10% मत प्राप्त किए. पिछले लोकसभा चुनाव के मुकाबले बीआरएस का मत प्रतिशत करीब 25 फीसदी घटा, जो कांग्रेस और भाजपा के बीच बंट गया. कांग्रेस को पिछले लोकसभा चुनाव के मुकाबले करीब 10% अधिक और भाजपा को करीब 15% अधिक मत मिले. वहीं, बीआरएस ने पिछली बार 9 सीट जीती थीं, वह भी 4 भाजपा और 5 कांग्रेस के बीच बंट गईं.

उत्तर प्रदेश में पार्टी ने अपनी पारंपरिक रायबरेली और अमेठी सीट तो जीती हीं, 40 साल बाद सहारनपुर और इलाहाबाद सीट, और 35 साल बाद सीतापुर सीट भी जीत लीं. अब तक इन सीटों पर भाजपा, समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) जीतती आई थीं, लेकिन इस बार सपा के इंडिया गठबंधन में होने और बसपा के अपनी प्रासंगिकता खोने के चलते मुकाबला सीधा कांग्रेस बनाम भाजपा का हो गया था.

जानकारों का कहना है कि गठबंधन की राजनीति हमेशा भाजपा ने अधिक अच्छी तरह समझी है क्योंकि वह ज्यादातर समय विपक्ष में रही थी, लेकिन कांग्रेस ने देश का सबसे पुराना राष्ट्रीय दल होने के अपने दंभ को परे रखकर इस बार सहयोगी दलों को आगे बढ़ाया, उससे न सिर्फ उन दलों को बल्कि कांग्रेस को भी लाभ हुआ.

एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, ‘भारत जोड़ो यात्रा से राहुल गांधी की लोगों की नजरों में छवि बदली. इसका लाभ तो कांग्रेस को मिला, लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ये वोट इंडिया गठबंधन के लिए था, न सिर्फ कांग्रेस के लिए. लोगों ने भाजपा को हराने वोट दिया है, और जब ऐसा होता है तो कांग्रेस को लाभ होता ही है.

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