ईओडब्ल्यू की कार्रवाई में भी झोल, बच निकलते हैं रिश्वतखोर

195 मामलों में 135 में सजा, 60 हुए बरी.

भोपाल/मंगल भारत
एक समय था जब, ईओडब्ल्यू में अगर किसी सरकारी कर्मचारी की शिकायत तक हो जाती थी , तो डर के मारे उसकी सासें चलने लगती थीं। इसकी वजह थी कि मामले में सजा होना ही है, लेकिन अब ऐसा नहीं है। इसकी वजह इस संस्था की कार्यप्रणाली है। आर्थिक अपराधों की जांच करने वाली इस सरकारी संस्था द्वारा अब छापा डालना तो लगभग बंद ही कर दिया गया है, ऊपर से शिकायतों की जांच में सालों तक कार्रवाई न होना भी इसकी वजह है। इसके अलावा अब इसकी जांचों में झोल नजर आनी शुरु हो गई है। यह हम नहीं कह रहे हैं बल्कि खुद संस्थान के वे आंकड़े इसका सूबत दे रहे हैं, जो मामले न्यायालय में जाकर टिक नहीं सके हैं। मिली जानकारी के मुताबिक लोकायुक्त पुलिस द्वारा पिछले पांच वर्ष में रंगे हाथ (ट्रैप में) पकड़े गए आरोपियों के 750 से अधिक प्रकरणों में कोर्ट में अभियोजन पेश किया गया। ऐसे 135 में सजा हुई, जबकि 60 मामलों में आरोपियों को बरी कर दिया गया। इससे पता चलता है कि सजा का प्रतिशत करीब 68 प्रतिशत ही रहा है। उल्लेखनीय है कि प्रदेश में प्रदेश में लोकायुक्त छापों में कभी पटवारी के यहां दो करोड़ रुपये से अधिक संपत्ति मिल जाती है तो कभी एक पूर्व परिवहन आरक्षक के पास सौ करोड़ रुपये से अधिक की चल-अचल संपत्ति मिलती है। खूब हल्ला मचता है। सरकार कार्रवाई का दावा करती है। विपक्ष घेराबंदी करता है। इन सबके बीच सच्चाई यह है कि भ्रष्टाचार पर प्रहार के तंत्र में कई खामियां हैं, जिनसे कुछ आरोपित बच निकलते हैं। ट्रैप के अतिरिक्त छापा और अनुपातहीन संपत्ति, पद के दुरुपयोग के मामलों में भी सजा की दर लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू के प्रकरणों में 70 प्रतिशत के आसपास है। इसका कारण यह कि पर्याप्त तथ्यों के अभाव में जांच एजेंसियों का पक्ष न्यायालयों में कमजोर पड़ जाता है, जिसका लाभ आरोपियों को मिलता है। अकेले लोकायुक्त पुलिस द्वारा प्रतिवर्ष लगभग 200 आरोपितों को रंगे हाथ पकड़ा जा रहा है। आर्थिक अपराध प्रकोष्ठ (ईओडब्ल्यू) द्वारा भी माह में तीन से चार ट्रैप किए जा रहे हैं। आरोपितों को सजा मिलने में देरी हो रही है। यही कारण है कि रिश्वत लेते रंगे हाथ पकड़े जाने के बाद भी रिश्वत लेने वालों में डर नहीं है। लोकायुक्त पुलिस में 1100 प्रकरण अभी भी विभिन्न न्यायालयों में लंबित हैं।
निर्णय तक पहुंचने के हर चरण में होती है देरी
भ्रष्टाचार के विरुद्ध जांच एजेंसियों के अतिरिक्त कुछ मामलों में शासन में भी संबंधित विभाग में शिकायत होती है। अधिकतर शिकायतों के परीक्षण में एक वर्ष से अधिक लग जाते हैं। इसके बाद तथ्यात्मक शिकायतों को पंजीबद्ध किया जाता है। लोकायुक्त पुलिस और ईओडब्ल्यू द्वारा दर्ज प्रकरणों के विश्लेषण में सामने आ रहा है कि कुछ मामलों में शिकायत पंजीबद्ध होने के बाद चालान प्रस्तुत होने में चार वर्ष लग गए। उदाहरण के तौर पर ईओडब्ल्यू भोपाल द्वारा 23 सितंबर 2024 को जितेंद्र विरुद्ध दर्ज प्रकरण है, जिसकी शिकायत वर्ष 2020 में जांच एजेंसी में पहुंची थी। इसी तरह से लोकायुक्त पुलिस में कथित रेशम घोटाले की जांच वर्ष 2016 से चल रही है। बार-बार जांच अधिकारी बदल गए पर कार्रवाई नहीं हुई। एफआइआर, दर्ज होने के बाद अभियोजन स्वीकृति और फिर पूरक चालान प्रस्तुत करने में देरी होती है।
यह है देरी की वजह
लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू में जांच अधिकारी स्वीकृत पदों के लगभग 30 प्रतिशत ही हैं। जिस तरह थानों के लिए न्यूनतम बल स्वीकृत होता है, उस तरह इन जांच एजेंसियों की इकाइयों के लिए न्यूनतम बल का मापदंड नहीं रखा गया है। जिस तरह से शिकायतें बढ़ रही हैं, उसके अनुसार हर संभाग में इकाई की आवश्यकता है, पर अभी दोनों एजेंसियों की सात-सात इकाइयां ही हैं। स्वीकृत बल भी दोनों जगह 10 वर्ष से पहले का है, जबकि इस बीच शिकायतें तीन से चार गुना तक बढ़ गई हैं।