राजनीति ने जातियों का राजनीतिकरण कर दिया, उनकी संगठन शक्ति हथियार बनी

हमारे राजनीतिज्ञ जहां एक ओर जातिगत भेदभाव मिटाने

की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर जाति के आधार पर वोट बटोरने का कुचक्र करते रहते हैं। पर क्या वाकई देश में जातिवादी राजनीति को हमेशा के लिए दफन किया जा सकता है? शायद नहीं! देश के किसी भी राज्य की राजनीति जातिगत राजनीति से अछूती नहीं है। जातिगत नेताओं की शुरूआत 1989 में मंडल कमीशन के वक़्त होने लगी। 1991 के बाद जो बड़े नेता जैसे लालूप्रसाद यादव, नीतीश कुमार, मायावती, मुलायम सिंह, शिवराज सिंह चौहान, शरद यादव आए  वे जाति आधारित राजनीति के प्रतिनिधि बन गए। ऐसा भी कहा जाता है कि जितने भी निम्न जाति के नेताओं का जन्म हुआ, यह मंडल कमीशन की ही देन है।
जाति ने प्रतिस्पर्धा बढाई
भारतीय राजनीति में जाति ने प्रतिस्पर्धा बढ़ाई है। इससे पहले ऊंची जाति यानी ब्राह्मणों का दबदबा रहता था। अक्सर पूछा जाता है कि क्या भारत में जाति प्रथा खत्म हो रही है? इस सवाल के पीछे यह धारण है कि मानी जाति और राजनीति परस्पर विरोधी संस्था हैं। जाति-प्रथा पर राजनीति का  प्रभाव पड़ रहा है और जाति वाले समाज में राजनीति अपना दबदबा बढ़ा रही है? जो लोग राजनीति में जातिवाद की शिकायत करते हैं, वे न राजनीति के प्रकृत स्वरूप को ठीक से समझ पाए हैं और न जाति के स्वरूप को। भारत की जनता जातियों के आधार पर संगठित है। इसलिए न चाहते हुए भी राजनीति को जाति संस्था का उपयोग करना ही पड़ेगा।
जाति का राजनीतिकरण हुआ
राजनीति में जातिवाद का मतलब जाति का राजनीतिकरण है। जाति को अपने दायरे में खींचकर राजनीति उसे अपने काम में लाने का प्रयत्न करती है। दूसरी ओर राजनीति द्वारा जाति या बिरादरी को देश की व्यवस्था में भाग लेने का मौका मिलता है। राजनीतिक नेता सत्ता प्राप्त करने के लिए जातीय संगठन का उपयोग करते हैं और जातियों के रूप में उनको बना-बनाया संगठन मिल जाता है, जिससे राजनीतिक संगठन में आसानी होती है।
राष्ट्रीय की बजाय प्रदेशों में बोलबाला
वैसे भारत में अखिल भारतीय राजनीति की अपेक्षा राज्य स्तर की राजनीति पर जातिवाद का अधिक प्रभाव है। बिहार, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान, उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र राज्यों की राजनीति का अध्ययन तो बिना जातिगत गणित के किया ही नहीं सकता, न अतीत में हुआ, न आज और न भविष्य में संभव दिखता। बिहार की राजनीति में राजपूत, ब्राह्मण, कायस्थ और जनजाति प्रमुख जातियां हैं। केरल में साम्यवादियों की सफलता का राज यही है कि उन्होंने इजावाहा जाति को अपने पीछे संगठित कर लिया। आन्ध्र प्रदेश की राजनीति में काम्मा और रेड्डी जातियों का संघर्ष की कहानी है। काम्माओं ने साम्यवादियों का समर्थन किया तो रेड्डी जाति ने कांग्रेस का। महाराष्ट्र की राजनीति में मराठों, ब्रह्मणों और माहारों में प्रतिस्पर्धा  रही है। गुजरात की बात करें तो दो जातियां-पाटीदार और क्षत्रिय का प्रभाव है। उत्तरप्रदेश में भी जातियों, सम्प्रदायों के समीकरण ने सरकार बनाई, हटाई। परंपरावादी जाति व्यवस्था ने प्रगतिशील और आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था को इस तरह प्रभावित किया है कि ये राजनीतिक संस्थाएं अपने मूल रूप में कार्य करने में समर्थ नहीं रही हैं। दूसरी तरफ एक पक्ष यह भी है कि जाति व्यवस्था ने जातियों के राजनीतिकरण में सहयोग देकर परंपरावादी व्यवस्था को आधुनिकता में ढालने के सांचे का कार्य किया है। फिर चाहे जाति आधुनिकीकरण के मार्ग में बाधक न हो, लेकिन राजनीति में जाति का हस्तक्षेप लोकतंत्र की धारणा के प्रतिकूल है।