इतना विडंबनाओं से भरा हुआ कि शरद जोशी दिवंगत न हुए होते तो इस पर कटाक्ष भरी कलम चला चुके होते। वो भी ‘रिकॉल’ के अंदाज़ में। बागेश्वर धाम और धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री एक युग में बदल दिए गए हैं। वह युग, जिसमें केवल एक सवाल है, धीरेन्द्र चमत्कारी हैं या पाखंडी? मानवता की इकलौती चुनौती यही रह गयी दिखती है कि बागेश्वर की कीर्ति की खेती लहलहाती रहेगी या इस जंग में वह खेत रहेंगे? माहौल ऐसा गोया कि सारे देश से महंगाई, बेरोजगारी, सामाजिक विद्वेष और आर्थिक अनिश्चितताओं को किसी काल कोठरी में बंद कर दिया गया हो। जो है वह बागेश्वर धाम, उनके समर्थक और विरोधी। दो खेमों में विभक्त खांचे में तलवारें खींची हुई हैं और ऐसा लग रहा है कि इस बहस के किसी निर्णायक अंत पर पहुंचते ही देश-समाज की हर समस्या का निदान तलाश लिया जाएगा।
इसीलिए जोशी याद आए। उन्होंने ‘जीप पर सवार इल्लियां’ में वह इल्लियां खोजीं, जिनके होने न होने से सिस्टम की मौज पर कोई असर नहीं होना था। उन्होंने ‘वर्जीनिया वूल्फ से सभी डरते हैं’ में उस फिल्म की गुणवत्ता तलाशने की कोशिश की, जिसके बेहतर होने या न होने का केवल एक आधार था कि फिल्म देखते कर्मचारियों के समूह के सबसे बड़े अफसर की उस बारे में क्या राय थी? फिर ‘अंधों का हाथी’ की बात तो जैसे यहां अनिवार्य कर दी गयी है। तो जोशी लिखते। रिकॉल करते कि जैसे अदृश्य इल्लियां खेत की बजाय केवल सरकारी जीप पर ही सवार थीं, ठीक वैसे ही बागेश्वर के बखेड़े की इल्ली का मूलत: कोई स्वरूप है ही नहीं। वर्जीनिया वूल्फ की ही तरह किसी को भी इस विषय से कोई लेना-देना ही नहीं है कि इस बवाल का सच क्या है? अंधों के जरिये हाथी को समझने की कोशिश की है। इस झमेले में सच को आंख खोलकर देखने की इच्छा किसी के पास ही नहीं है। इच्छा-शक्ति की तो खैर बिसात ही क्या है? इधर, बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ पहलवानों का धरना खत्म हुआ और उधर टीआरपी की भूख धरने पर बैठ गयी। इसे मिटाने के लिए बागेश्वर का किस्सा हाथ लग गया। तो सभी न्यूज चैनल इस पर ही पिल पड़े। वो भी ऐसे कि बाकी सारे आसन्न जटिल विषय एक कोने में धकेल दिए गए। इससे सरोकार ही नहीं रहा कि देश की अधिकतर संपत्ति मु_ी भर लोगों के हाथ में कैसे पहुंच गयी? चिंता केवल यह रह गयी है कि शास्त्री की मुट्ठी में चमत्कार है या वह केवल ‘ख़ाक’ की होकर रह जाएगी। जो टीवी एंकर अंधविश्वास से खुद को परे बताते हैं, वह भी गुदगुदाते चेहरे के साथ लाइव बहस में शास्त्री से अपना भविष्य पूछ रहे हैं। कोई भी न्यूज चैनल लगा लीजिए, ऐसा लगता है कि यह ‘जिन शास्त्री नईं वेख्या ओ जम्याई नईं’ वाला आपातकाल है।
दरअसल यह विलासिता वाला दौर है। खोजी खबरों की पत्रकारिता अब त्याज्य है। इसलिए जो मौका हाथ लगे, उस पर ही सारा ज्ञान उड़ेल दो। यह अतिशयोक्ति लग सकती है, लेकिन आप खुद सोचिए कि पिछली बार कब टीवी चैनल पर कोई ऐसी बहस दिखी हो, जो किसी बड़ी ‘इन्वेस्टिगेटिव स्टोरी’ से प्रेरित दिखे? मेहनत वाली पत्रकारिता अब तोहमत में बदल दी गयी है। इस क्षेत्र में विचार के साथ अनाचार तो खैर किसी छद्म सदाचार की तरह पहले ही पाठक से लेकर दर्शक तक के ऊपर थोपा जा चुका है। इसलिए होता यह है कि नागिन पर आधारित मल्लिका शेरावत की फिल्म ‘हिस्स’ प्राइम टाइम में बहस का विषय होती है। वह भी उन महिला एंकर्स की ख़ास मौजूदगी में, जो खुद भी सिर पर नागिन की शक्ल वाला मुकुट पहनी हैं। ग्रेट खली का साक्षात्कार लेने वाला खुद भी किसी पहलवान की वेशभूषा में आता है। दर्शक ठहाके लगा रहे हैं। ठीक वैसे माहौल में, जिसमें किसी स्टैंड अप कॉमेडी शो में दिखता है। अपने समय में दूरदर्शन का ‘इश्यू बिफोर पार्लियामेंट’ कार्यक्रम बहुत बोझिल लगता था। लेकिन अब महसूस होने लगा है कि पत्रकारिता की गंभीरता के लिहाज से हमें वैसे ही वातावरण की तरफ लौटना होगा। क्योंकि बोझिलता को कम करने के फेर में समाचार माध्यम स्तरहीन प्रतिस्पर्धा में ढेर होने लगे हैं।
यह शीत ऋतु है। शरद ऋतु का आगमन अभी होना है। समाचार में भी शीत का ऐसा प्रकोप है कि धीरेंद्र जैसे गर्म- गर्म मसालों का ही तडक़ा देकर खबरों को परोसा जा रहा है। इसीलिए शरद जोशी की याद आ गयी। यदि वह होते तो शायद इस सब पर कलम चलाकर एक बात स्पष्ट कर देते। वह यह कि व्यंग्य लेखन और समाचारों में अब कोई अंतर नहीं रह गया है। ऐसा लिखते समय मुझे असहनीय पीड़ा हो रही है। सोचिए यदि शरद जी होते तो उन्हें इससे कितना कष्ट होता। यही किया जा सकता है कि यदि बागेश्वर चमत्कारी साबित हुए तो उनसे शरद जी की आत्मा को इस दु:ख से निजात हेतु कोई चमत्कार करने की प्रार्थना कर ली जाए। और यदि वह वाकई पाखंडी साबित हुए तो फिर खास किस्म की खोज में दक्ष हो चुके मीडिया समूहों से ही अपील कर ली जाए कि वाकई कोई चमत्कारी तलाशकर शरद जी की तकलीफ का कोई इंतेज़ाम कर दें। इस बहाने टीआरपी का एक और तगड़ा मौका मिल जाएगा।