सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र में नगर पालिका के साइनबोर्ड पर उर्दू के इस्तेमाल के ख़िलाफ़ दायर एक याचिका को ख़ारिज करते हुए कहा कि ‘क़ानून के किसी भी प्रावधान के तहत उर्दू के इस्तेमाल पर कोई प्रतिबंध नहीं है. भारत के संविधान की अनुसूची आठ के अंतर्गत मराठी और उर्दू का एक ही स्थान है.’
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (15 अप्रैल) को महाराष्ट्र के एक नगर निगम कार्यालय के साइनबोर्ड पर उर्दू भाषा के इस्तेमाल को सही ठहराया है.
जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की पीठ ने पातुर नगर पालिका के साइनबोर्ड पर उर्दू के इस्तेमाल के खिलाफ एक पूर्व पार्षद की याचिका को खारिज कर दिया. अदालत ने कहा, ‘साल 2022 के अधिनियम या कानून के किसी भी प्रावधान के तहत उर्दू के इस्तेमाल पर कोई प्रतिबंध नहीं है. भारत के संविधान की अनुसूची आठ के अंतर्गत मराठी और उर्दू का एक ही स्थान है.’
यह फैसला इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि अदालत ने इस बात पर महत्वपूर्ण टिप्पणियां की हैं कि आज के भारत में उर्दू को किस तरह से गलत तरीके से पेश किया जा रहा है.
सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सहित भारत के हिंदुत्व संगठन लंबे समय से उर्दू को एक विदेशी भाषा के रूप में पेश करते रहे हैं जिसे ‘मुस्लिम आक्रमणकारियों ने देश पर थोपा था.’
मालूम हो कि इस साल फरवरी में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उर्दू पढ़ने वालों, खासकर मुसलमानों के लिए अपमानजनक ‘कठमुल्ला’ शब्द का इस्तेमाल किया था.
इस पृष्ठभूमि में शीर्ष अदालत की टिप्पणी, जो की नीचे विस्तार में बतायी गई है, महत्वपूर्ण हो जाती है.
‘औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा किया गया विभाजन’
यह उर्दू के उत्थान और पतन पर विस्तृत चर्चा करने का अवसर नहीं है, लेकिन इतना कहा जा सकता है कि हिंदी और उर्दू के इस विलय को दोनों तरफ के शुद्धतावादियों के रूप में एक बाधा का सामना करना पड़ा और हिंदी संस्कृत से मिलती जुलती और उर्दू अधिक फारसी बन गई. औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा धर्म के आधार पर दो भाषाओं को विभाजित करके इस विभाजन का फायदा उठाया गया.
अब हिंदी को हिंदुओं की भाषा और उर्दू को मुसलमानों की भाषा समझा जाने लगा, जो वास्तविकता से, विविधता में एकता से और भाईचारे की अवधारणा के विपरीत है.
यदि लोग भाषा जानते हैं…
अदालत ने कहा: वर्तमान के मामले पर गौर करें तब यह कहा जाना चाहिए कि नगर पालिका क्षेत्र के स्थानीय समुदाय को सेवाएं प्रदान करने और उनकी तत्काल दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए होता है. यदि नगर पालिका के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र में रहने वाले लोग या लोगों का एक समूह उर्दू से परिचित हैं, तो कम से कम नगर पालिका के साइनबोर्ड पर आधिकारिक भाषा यानी मराठी के अलावा उर्दू का उपयोग करने पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. भाषा विचारों के आदान-प्रदान का एक माध्यम है जो विभिन्न विचारों और विश्वासों वाले लोगों को करीब लाती है. इसे उनके विभाजन का कारण नहीं बनना चाहिए.
‘इसी ज़मीन से पैदा हुई…’
उर्दू के प्रति पूर्वाग्रह इस गलत धारणा से प्रेरित है कि उर्दू भारत के लिए विदेशी है. हमें डर है कि यह राय गलत है, क्योंकि मराठी और हिंदी की तरह उर्दू भी एक इंडो-आर्यन भाषा है. यह एक ऐसी भाषा है जिसका जन्म इसी भूमि में हुआ है. उर्दू भारत में विभिन्न सांस्कृतिक परिवेशों से जुड़े लोगों की जरूरत के कारण विकसित और फली-फूली, जो विचारों का आदान-प्रदान करना और आपस में संवाद करना चाहते थे. समय के साथ इसने और भी अधिक ख्याति प्राप्त की और सदियों से कई प्रशंसित कवियों की पसंदीदा भाषा बन गई.
‘कोई नई बहस नहीं’
भाषाओं को लेकर बहस कोई नई बात नहीं है. दरअसल यह आज़ादी से पहले ही शुरू हो गई थी और आज़ादी के आंदोलन के दौरान भी भारतीय भाषाओं के अधिक उपयोग की ज़रूरत को पहचाना गया था. बड़ी संख्या में भारतीयों ने यह स्वीकार किया कि हिंदी, उर्दू और पंजाबी जैसी विभिन्न भारतीय भाषाओं के मिलन से बनी भाषा को ‘हिंदुस्तानी’ के नाम से जाना जाता है, जिसे इस देश का एक बड़ा हिस्सा बोलता है.
कवि इकबाल अशहर की नज़्म
हमारी किसी भाषा के प्रति जो भ्रांतियां या पूर्वाग्रह हैं, उन्हें हमें साहस और ईमानदारी के साथ उस सच्चाई की कसौटी पर परखना होगा, जो हमारे देश की महान विविधता है. हमारी ताक़त कभी हमारी कमज़ोरी नहीं हो सकती. आइए, उर्दू और हर भाषा से दोस्ती करें.
अगर उर्दू खुद अपने लिए बोलती, तो वह कहती:
‘उर्दू है मीरा नाम, मैं ‘खुसरो’ की पहेली
क्यों मुझको बनाते हो तअस्सुब का निशाना
मैंने तो कभी खुद को मुसलमान नहीं माना
देखा था कभी मैंने भी खुशियों का ज़माना
अपने ही वतन में हूं मगर आज अकेली
उर्दू है मीरा नाम, मैं ‘खुसरो’ की पहेली’
भाषा समुदाय की होती है
आइए, अपनी अवधारणाएं स्पष्ट करें. भाषा धर्म नहीं है. भाषा धर्म का प्रतिनिधित्व भी नहीं करती. भाषा किसी धर्म की नहीं बल्कि किसी समुदाय, किसी क्षेत्र, और लोगों की होती है. भाषा संस्कृति होती है. यह किसी समुदाय और उसके लोगों की सभ्यता की यात्रा को मापने का एक पैमाना है.
उर्दू का भी यही मामला है. यह गंगा-जमुनी तहज़ीब, या हिंदुस्तानी तहज़ीब की एक बेहतरीन मिसाल है, जो उत्तर और मध्य भारत के मैदानी इलाक़ों की साझा सांस्कृतिक विरासत है. लेकिन भाषा सीखने का माध्यम बनने से पहले, हमेशा से संवाद का साधन रही है, और उसका सबसे पहला और मूल उद्देश्य भी यही था.
अब अपने मामले पर लौटते हैं.. यहां उर्दू के उपयोग का उद्देश्य सिर्फ़ संवाद है. नगर पालिका् सिर्फ़ प्रभावी संवाद स्थापित करना चाहता था. यही किसी भी भाषा का मूल उद्देश्य होता है, जिस पर बॉम्बे हाईकोर्ट ने भी ज़ोर दिया है.
‘विविधता में आनंद लीजिए’
हमें अपनी विविधता का सम्मान करना चाहिए और उसमें आनंद भी लेना चाहिए… खासकर अपनी अनेक भाषाओं की विविधता का. भारत में सौ से अधिक प्रमुख भाषाएं बोली जाती हैं. इसके अलावा, सैकड़ों भाषाएं ऐसी भी हैं जिन्हें उपभाषा या ‘मातृभाषा’ कहा जाता है.
साल 2001 की जनगणना के अनुसार, भारत में कुल 122 प्रमुख भाषाएं थीं, जिनमें 22 अनुसूचित भाषाएं भी शामिल थीं, और कुल 234 मातृभाषाएं दर्ज की गई थीं. उर्दू, भारत की छठी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली अनुसूचित भाषा थी. वास्तव में शायद उत्तर-पूर्वी राज्यों को छोड़कर यह लगभग हर राज्य और केंद्र शासित प्रदेश के किसी न किसी हिस्से में ज़रूर बोली जाती है.
साल 2011 की जनगणना में मातृभाषाओं की संख्या बढ़कर 270 हो गई. हालांकि यह ध्यान देने की बात है कि यह आंकड़ा केवल उन्हीं मातृभाषाओं को शामिल करके बनाया गया था, जिन्हें दस हज़ार से अधिक लोगों द्वारा बोला जाता है. इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत में वास्तविक मातृभाषाओं की संख्या हज़ारों में हो सकती है.
भारत की भाषाई विविधता वास्तव में अद्भुत और विशाल है!
सहिष्णुता
हमें यह याद रखना चाहिए कि भाषा सिर्फ एक माध्यम नहीं होती, वह एक संस्कृति की प्रतिनिधि भी होती है. यही कारण है कि भाषा पर होने वाली कोई भी चर्चा न सिर्फ़ संवेदनशील होती है, बल्कि बेहद नाज़ुक भी होती है. ऐसे में हमारे संविधान की एक मूलभूत मूल्य-‘सहिष्णुता’ की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है.
हम भारत के लोग ने, केंद्रीय स्तर पर भाषा के मुद्दे को सुलझाने के बहुत प्रयास किए हैं, और यह हमारी एक विशिष्ट उपलब्धि है, विशेषकर तब, जब हम बार-बार इस राष्ट्र की भाषाई विविधता की बात कर रहे हैं.
न्यायालय की भाषा पर प्रभाव
दिलचस्प बात यह है कि उर्दू शब्दों का कोर्ट की भाषा पर गहरा प्रभाव है, चाहे वह अपराध कानून हो या दीवानी (civil) कानून. अदालत से लेकर हलफनामा और पेशी तक.. भारतीय न्यायालयों की भाषा में उर्दू का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. हालांकि संविधान के अनुच्छेद 348 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट की आधिकारिक भाषा अंग्रेज़ी है, फिर भी कई उर्दू शब्द आज भी इन कोर्ट में इस्तेमाल होते हैं. इनमें वकीलनामा, दस्ती, आदि शामिल हैं.
राज्यों द्वारा इस्तेमाल
एक दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाए तो, उर्दू भाषा को भारत के कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने संविधान के अनुच्छेद 345 के तहत दी गई शक्तियों का प्रयोग करते हुए दूसरी आधिकारिक भाषा के रूप में अपनाया है. वे राज्य जहां उर्दू एक आधिकारिक भाषा के रूप में मान्य है, वे हैं- आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, और पश्चिम बंगाल. वहीं, केंद्र शासित प्रदेशों में दिल्ली और जम्मू और कश्मीर शामिल है.
संविधानिक दृष्टिकोण से भी देखा जाए तो, आधिकारिक उद्देश्यों के लिए भाषा का उपयोग किसी कठोर सूत्र के अनुसार नहीं किया जाता है.