2025 की इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस में महिलाओं की हिस्सेदारी और जेलों की भीड़ बड़ी चुनौतियां हैं. उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक विचाराधीन क़ैदी हैं. गुजरात में जजों और जेल स्टाफ की भारी कमी है. जेल प्रबंधन में तमिलनाडु शीर्ष पर है, पर क़ानूनी सहायता में पिछड़ रहा है.
नई दिल्ली: 2025 की इंडिया जस्टिस रिपोर्ट (आइजेआर), मंगलवार 15 अप्रैल 2025 को जारी हुई. यह रिपोर्ट बताती है कि देशभर की पुलिस फोर्स में कुल 20.3 लाख कर्मियों में वरिष्ठ पदों पर महिलाओं की संख्या 1,000 से भी कम है.
रिपोर्ट के अनुसार, देश के किसी भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश ने पुलिस बल में महिलाओं के लिए तय अपने आरक्षण कोटा को पूरा नहीं किया है. वर्तमान दरों के हिसाब से आंध्र प्रदेश और बिहार पुलिस में लगभग तीन वर्षों में 33% महिलाएं हो सकती हैं. झारखंड, विपुरा और अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह को इस कोटे को पूरा करने में लगभग 200 वर्षों का समय लगेगा, यानी उन्हें यह लक्ष्य पूरा करने में कई पीढ़ियं लगेंगी.
बिहार में राज्य पुलिस में महिलाओं की हिस्सेदारी सबसे ज़्यादा है — 24%, लेकिन इनमें भी सिर्फ 11% महिलाएं ही ऐसे पदों पर हैं जैसे सब-इंस्पेक्टर, असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर या हेड कांस्टेबल. राष्ट्रीय स्तर पर, महिलाओं की हिस्सेदारी के लिए मानक 33% है, हालांकि हर राज्य ने अपना अलग लक्ष्य तय किया हुआ है.
इसके अलावा, जनवरी 2023 तक, देश के तीन में से एक पुलिस स्टेशन में महिलाओं के लिए हेल्प डेस्क नहीं थी. देश के लगभग 17% पुलिस थानों में एक भी सीसीटीवी कैमरा नहीं है. रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर 831 लोगों पर केवल एक सिविल पुलिसकर्मी तैनात है. आइजेआर 2025 देश में न्याय वितरण की स्थिति को लेकर राज्यों की एकमात्र रैंकिंग रिपोर्ट है.
यह रिपोर्ट टाटा ट्रस्ट्स की पहल पर शुरू की गई थी और इसमें कई नागरिक समाज संगठनों और डेटा साझेदारों ने सहयोग किया. रिपोर्ट ने चार क्षेत्रों — पुलिस, न्यायपालिका, जेल और कानूनी सहायता — में राज्यों के प्रदर्शन को ट्रैक किया.
यूपी की जेलों का हाल
देश के कुल विचाराधीन कैदियों में से 42% उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र की जेलों में हैं. इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025 में सामने आई यह जानकारी दिसंबर 2022 तक के आंकड़ों पर आधारित है.
उत्तर प्रदेश में सबसे ज़्यादा विचाराधीन कैदी हैं — 94,000 से अधिक, जो पूरे देश के कुल विचाराधीन कैदियों का करीब 22% है. बिहार के जेलों में बंद कुल कैदियों में से 89% अभी जांच या मुकदमे के पूरा होने का इंतज़ार कर रहे हैं. इसके बाद ओडिशा का स्थान है, जहां यह आंकड़ा 85% है.
रिपोर्ट में यह पाया गया कि जेलों में अधिक भीड़ का मुख्य कारण ऐसे कैदी हैं, जो अभी तक ट्रायल (मुकदमा) या जांच के पूरे होने का इंतज़ार कर रहे हैं. इसके अलावा यह भी पाया गया कि औसतन विचाराधीन कैदी अब पहले की तुलना में ज्यादा समय तक जेल में रह रहे हैं.
2022 के अंत में, ऐसे विचाराधीन कैदियों की संख्या, जो पांच साल या उससे ज़्यादा समय से जेल में थे, बढ़कर 11,448 हो गई, जबकि 2019 में यह संख्या 5,011 और 2012 में 2,028 थी.
2012 से 2022 के बीच देश की जेलों की औसत ऑक्यूपेसी रेट 112% से बढ़कर 132% हो गई. इसी दौरान, देश की कुल जेल आबादी 3.8 लाख से बढ़कर 5.7 लाख (49% की बढ़ोतरी) हो गई.
गुजरात की जेलों का हाल
गुजरात की जेलें, जहां पहले से ही कर्मचारी की भारी कमी है, अब भीड़भाड़ की भी शिकार हैं. रिपोर्ट के अनुसार, राज्य की चार में से एक जेल में ऑक्यूपेसी 150% से 250% के बीच दर्ज की गई है.
राज्य की करीब 32 जेलों में, क्षमता से 18% अधिक कैदी बंद हैं. राष्ट्रीय स्तर पर जेलों में औसतन भीड़भाड़ की दर 131% रही, जबकि गुजरात में यह आंकड़ा 118% रहा. गुजरात की जेलों में 26.2% विचाराधीन कैदी एक से तीन साल से बंद हैं.
इसके अलावा गुजरात की जेलों में 40% कर्मचारियों के पद खाली हैं. जेल अधिकारियों के 43% और सुधार स्टाफ के 44% पद खाली हैं. हर 6 कैदियों पर एक कैडर स्टाफ होना चाहिए, लेकिन गुजरात में प्रत्येक 9.8 कैदियों पर केवल एक स्टाफ ही उपलब्ध है.
वहीं, मेडिकल स्टाफ में रिक्तियां दोगुनी होकर 28% तक पहुंच गई हैं. नियमों के अनुसार, हर 300 कैदियों पर एक मेडिकल अधिकारी होना चाहिए, लेकिन गुजरात में एक मेडिकल अधिकारी पर औसतन 593 कैदी हैं.
गुजरात में जजों की भारी कमी
कभी न्याय व्यवस्था के प्रदर्शन में शीर्ष चार राज्यों में शामिल रहा गुजरात अब फिसलकर 11वें स्थान पर पहुंच गया है.
रिपोर्ट में यह जानकारी सामने आई है कि गुजरात की अदालतों में कर्मचारियों की कमी है, कानूनी सहायता का कम उपयोग किया जा रहा है और आरक्षण कोटे पूरे नहीं हो रहे हैं.
हाई कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्तियों में 38.5% की भारी कमी है, जो राष्ट्रीय औसत 32.7% से भी अधिक है. निचली अदालतों में भी जजों की कमी बढ़कर 31.1% हो गई है. इसका मतलब है कि गुजरात में हर 61,795 लोगों पर एक निचली अदालत का जज है, जो राष्ट्रीय औसत (69,017) से थोड़ा बेहतर है, लेकिन यह कमी चिंता का विषय है.
गुजरात हाई कोर्ट में महिला जजों की औसत संख्या (25%) तो राष्ट्रीय औसत (14%) से बेहतर है. अधीनस्थ न्यायपालिका में केवल 20% महिला जज हैं, जो राष्ट्रीय औसत 38% से बहुत कम है.
राज्य अपने आरक्षण कोटे भी पूरा नहीं कर पा रहा है. 2022 से अब तक न्यायपालिका में अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित केवल 2% पद भरे गए हैं, जबकि अनुसूचित जातियों के 97% पद भर दिए गए हैं. अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का प्रतिनिधित्व भी अपेक्षा से कम है. अदालतों में कर्मचारियों की कमी लगभग दोगुनी हो चुकी है.
जेल प्रबंधन में तमिलनाडु सबसे ऊपर
तमिलनाडु ने जेल प्रबंधन में शीर्ष स्थान बरकरार रखा है. राज्य ने जेलों के लिए बजट आवंटन बढ़ाया है और पूरे 100% बजट का उपयोग किया है. रिपोर्ट में बताया गया कि तमिलनाडु में जेल स्टाफ की सबसे कम रिक्तियां हैं और हर अधिकारी पर केवल 22 कैदी हैं — जो सभी बड़े राज्यों में सबसे अच्छा अनुपात है.
हालांकि, पुलिसिंग के क्षेत्र में तमिलनाडु की रैंक 2024 में तीसरे स्थान से गिरकर 2025 में 13वें स्थान पर आ गई है. इसकी वजह बजट और प्रशिक्षण के क्षेत्रों में खराब प्रदर्शन है.
रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि कानूनी सहायता के मामले में तमिलनाडु अब भी कमजोर प्रदर्शन कर रहा है — उसकी रैंक 12वें स्थान से गिरकर 16वें पर आ गई है. इसका कारण कम बजट और बहुत कम पैरा-लीगल वॉलंटियर्स हैं.