अफसरों की मनमानी से 1500 स्कूलों की मान्यता पर खतरा

स्कूल शिक्षा विभाग के अफसरों की मनमानी की वजह से करीब डेढ़ हजार निजी स्कूलों की मान्यता पर संकट के बादल मडराने लगे हैं। जिसकी वजह से करीब चार लाख विद्यार्थियों के सामने भी साल बर्बाद होने का खतरा खड़ा हो गया है। दरअसल इस साल विभाग द्वारा मान्यता के लिए ऑनलाइन आवेदन बुलाए थे। लेकिन विभाग के अफसरों व कर्मचारियों ने अपने चहेते निजी स्कूल संचालकों को उपकृत करने के लिए नियम विरुद्ध ऑफलाइन आवेदन लेकर मान्यता जारी कर दी। इस बात की जानकारी मिलते ही स्कूल शिक्षा सचिव शोभित जैन ने आनन-फानन में कार्रवाई करते हुए 1500 स्कूलों की मान्यता संबंधित फाइलों को रोक दिया। जिससे प्रदेश के चार लाख नियमित छात्रों के भविष्य पर खतरे की तलवार लटक गई है। गौरतलब है कि इन फाइलों में 50 स्कूल राजधानी के भी शामिल हैं।
वर्षों से एक ही सीट पर जमे कुछ अधिकारियों पर आरोप
लोक शिक्षण संचालनालय ने दो-दो साल से बिना मान्यता चल रहे स्कूलों को 50 हजार का जुर्माना व 20 हजार लेट फीस जमा करने पर मान्यता देने का मौका दिया था। इस दौरान कुछ अफसरों पर स्कूल संचालकों से जमकर सुविधा शुल्क वसूलने की भी चर्चा है। बताया जा रहा है कि जिन स्कूलों के प्रबंधन ने यह शुल्क नहीं दिया उनकी मान्यता आज भी अधर में लटकी हुई है। खास बात यह है कि बीते कुछ समय में आयुक्त लोक शिक्षण नीरज दुबे, डीडी अग्रवाल, एसके पाल को बदला जा चुका है। वर्तमान में जयश्री कियावत आयुक्त लोक शिक्षण हैं। लेकिन पिछले पांच वर्ष से एक ही सीट पर जमे कुछ अफसरों व कर्मचारियों को नहीं बदला गया, अब इन अधिकारियों पर ही वरिष्ठ अधिकारियों को गुमराह करने का आरोप लग रहा है। जिसका खामियाजा प्रदेश के चार लाख बच्चे भुगतेंगे।
हर साल बदल रहे मान्यता के अधिकार
वर्ष 2013 में प्राइवेट स्कूलों की मान्यता एमपी बोर्ड जारी करता था। इसके बाद विभाग ने यह अधिकार वर्ष 2014 में संभागीय संयुक्त संचालकों को दे दिए फिर वर्ष 2015 में इस आदेश में दोबारा बदलाव कर उक्त अधिकार जिला कलेक्टर और जिला शिक्षा अधिकारियों को दे दिया गया। अंत में वर्ष 2016 में यह अधिकार कलेक्टर से छीनकर दोबारा संभागीय संयुक्त संचालकों को दे दिया गया। इस तरह पांच साल में 5 बार मान्यता के अधिकार बदले गए, जिससे निजी स्कूल संचालकों को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।
अधिकारों का विकेंद्रीकरण
जानकारी के मुताबिक वर्ष 2015 में कलेक्टर और जिला शिक्षा अधिकारियों को मान्यता के अधिकार देते समय तर्क दिया गया था कि स्कूलों की संख्या बढऩे के कारण मान्यताओं का तीव्र गति से निपटारा किया जा सके, इसलिए अधिकार का विकेंद्रीकरण किया जाए, लेकिन इस तर्क के कुछ अधिकारियों के हित प्रभावित हो रहे थे। इस वजह से वर्ष 2017 में मान्यता देने के अधिकार संयुक्त संचालकों दे दिए गए।
पुराने मामले अब भी अटकें
वर्ष 2015 के बाद जिन स्कूलों को कलेक्टर व संभागीय संयुक्त संचालकों ने अमान्य कर दिया था। उनकी मान्यताएं लोक शिक्षण विभाग के अधिकारी अभी तक नहीं निपटा पाए और नियम विरुद्ध कार्रवाई कर मापदण्ड पूरे करने को लेकर ऑफलाइन मान्यता जारी कर दी। वहीं दूसरी ओर छोटे स्कूल जो 10-15 वर्षों से संचालित हो रहे थे। उनके नवीनीकरण के प्रकरणों को रोक दिया। फिर प्रायोजित तरीके से मान्यता समिति ने ऑफलाइन कागज बुलाकर मान्य कराने का प्रयास किया। जिसको आला अफसरों ने पकड़ लिया, बाद में उन स्कूलों की मान्यताएं रद्द कर दी गई।