चुनाव प्रचार की कमान ज्योतिरादित्य सिंधिया को सौंपने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जो भी समीकरण बनाए हों, मगर उसमें पलीता लगाने की कोईं कसर प्रदेश के नेताओं ने नहीं छोड़ी है। विरोधियों ने सिंधिया के पक्ष में सबसे ज्यादा आवाज उठाने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी के बेटे को ही प्रत्याशी न बनाकर अपनी रणनीति का संदेश तो दे ही दिया है। राज्य की कांग्रेसी राजनीति में चुनाव से पहले दो ध्रुव साफ नजर आ रहे हैं। एक तरफ सिंधिया हैं तो दूसरी ओर प्रदेशाध्यक्ष कमलनाथ के नेतृत्व वाला खेमा है। कमलनाथ के खेमे में सारी बात रखने की जिम्मेदारी पूर्व सीएम दिग्विजय सिंह के पास
होती है। यही कारण है कि पिछले दिनों बैठक में सिंधिया व दिग्विजय के बीच बहस होने पर राहुल गांधी द्वारा दोनों को समझाए जाने की बात सामने आई थी।
बिजावर सीट पर दिग्गी के साथ सत्यव्रत
राजनीतिक विश्लेषक का कहना है कि सिंधिया को राज्य के चुनाव में मुख्यमंत्री का चेहरा बनाए जाने की सबसे ज्यादा पैरवी चतुर्वेदी ने ही की थी, इसके चलते चतुर्वेदी दूसरे गुट के निशाने पर रहे। चतुर्वेदी अपने बेटे को छतरपुर की बिजावर सीट से चुनाव लड़ाना चाहते थे, मगर दिग्विजय सिंह की मौजूदगी में बनी सहमति में बिजावर सीट शंकर प्रताप सिंह को देने की बात आई तो चतुर्वेदी सहर्ष तैयार हो गए।
राजनगर में भी मिला दगा
उन्होंने कहा कि पार्टी में चतुर्वेदी के बेटे नितिन बंटी चतुर्वेदी को राजनगर से चुनाव लड़ाने और वर्तमान विधायक विक्रम सिंह उर्फ नातीराजा को लोकसभा में उम्मीदवार बनाने की सहमति बनी, जिसे चतुर्वेदी ने मान लिया। नातीराजा ने भी पार्टी की बैठक में सहमति दी। बताया जाता है कि चतुर्वेदी और उनके पुत्र राजनगर से कई माह से तैयारी कर रहे थे, इसी दौरान नातीराजा ने विधानसभा का चुनाव लडऩे की मंशा जाहिर कर दी। लिहाजा, पार्टी के भीतर से सिंधिया विरोधी गुट से यह आवाज उठी कि वर्तमान विधायक का टिकट न काटा जाए, पार्टी के भीतर बनते दबाव के चलते चतुर्वेदी के बेटे को उम्मीदवार नहीं बनाया गया।
टिकट दिलाने लगाया था पूरा जोर
कांग्रेस के सूत्रों का कहना है कि सिंधिया ने चतुर्वेदी के बेटे को टिकट दिलाने का पूरा जोर लगाया, मगर सामने खड़े गुट ने विरोध किया। विरोधी गुट किसी भी सूरत में सिंधिया को मजबूत नहीं रहने देना चाहता। लिहाजा, उसने सारे दांव-पेच खेलकर चतुर्वेदी के बेटे को टिकट नहीं मिलने दिया। यह फैसला सिंधिया के लिए राजनीतिक तौर पर बड़ा नुकसानदेह और पार्टी के भीतर कमजोर होने की तरफ इशारा भी करता है।