गांव में कमाल, शहर में मलाल

मिशन 2023 से पहले शिव-नाथ को रखना होगा ख्याल
पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव को सत्ता का सेमीफाइनल माना जा रहा है। सेमीफाइनल में पास होने के लिए भाजपा और कांग्रेस ने भरपूर जोर लगाया है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, भाजपा प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने नगरीय निकाय चुनावों में जमकर प्रचार किया है। लेकिन निकाय चुनाव के पहले चरण के मतदान ने सभी को निराश किया है। हालांकि पंचायत चुनाव में बंपर वोटिंग कर गांव वालों ने कमाल कर दिखाया है, जबकि शहरों में मलाल सामने आया है.

मंगल भारत।मनीष द्विवेदी।
भोपाल (डीएनएन)। मप्र में शायद पहली बार ऐसा हुआ है कि विधानसभा चुनाव से पहले पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव हुए हैं। ऐसे में अपना जनाधार मजबूत करने के लिए भाजपा और कांग्रेस ने जमकर मेहनत किया है। दोनों पार्टियों की कोशिश है कि मिशन 2023 से पहले अपने जनाधार का आकलन किया जाए। पंचायत चुनाव के तीनों चरम में रिकॉर्ड मतदान हुए हैं। इससे ग्रामीण वोटरों के बीच पार्टियों की स्थिति का आकलन तो हो जाएगा, लेकिन निकाय चुनाव में कम वोटिंग ने पार्टियों का गणित बिगाड़ दिया है। गौरतलब है कि नगरीय निकाय चुनाव में पहले चरण का मतदान काफी फीका रहा। प्रदेश के 44 जिलों के 133 नगरीय निकायों में मतदान 61 फीसदी ही हो पाया। निकाय चुनाव में पुरुषों के मुकाबले महिलाएं मतदान के मामले में पीछे ही रही। राजधानी भोपाल में प्रदेश भर में सबसे कम मतदान हुआ। साल 2014-15 के मुकाबले यहां 16 फीसदी कम वोट पड़े। इससे पार्टियों की चिंताएं बढ़ गई हैं।
गौरतलब है कि लगभग आठ साल बाद पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव हो रहे हैं। भाजपा एवं कांग्रेस जहां आमने-सामने की लड़ाई में हैं, वहीं अनेक सीटों पर बसपा, आप, एआईएमआईएम सहित कई राजनीतिक दल त्रिकोण बनाने का प्रयास कर रहे हैं। राज्य की मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां भाजपा एवं कांग्रेस ने पूरा जोर लगाया है। वे इसे 2023 के विधानसभा चुनाव का पूर्वाभ्यास मानकर लड़ रही हैं। चुनावी माहौल में विधानसभा चुनाव के पूर्व के शक्ति प्रदर्शन की ध्वनि गूंज साफ सुनाई दे रही है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जहां भाजपा प्रत्याशियों के लिए जमकर सभाएं, रैलियां कर रहे हैं वहीं कांग्रेस प्रत्याशियों के लिए पूर्व मुख्यमंत्री कमल नाथ ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। लेकिन मतदाताओं ने उनकी मंशा पर पानी फेर दिया है। निकाय एवं पंचायत चुनाव भले ही स्थानीय हों पर इनका महत्व कितना है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है दोनों दलों के वरिष्ठ नेता जी जान से जुटे हैं। वे किनारे रहकर कोई जोखिम लेना नहीं चाहते। कमलनाथ ने तो विधायकों और विधानसभा चुनाव का टिकट चाहने वालों से साफ कह दिया है कि निकाय चुनाव के परिणाम के आधार पर उनका रिपोर्ट कार्ड बनेगा। इसके आधार ही तय होगा कि विधायकों का टिकट बरकरार रहेगा या नहीं। यही कारण है कि विधायक अपने-अपने क्षेत्र में पूरी ताकत से प्रत्याशी के साथ खड़े हैं। हालांकि कई जगह बागी प्रत्याशी दोनों दलों के लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं। इस परेशानी को पहले चरण में पड़े कम वोट ने और बढ़ा दिया है।

‘त्रिदेव’ और ‘पन्ना प्रमुख’ नहीं आए काम

नगरीय निकाय चुनाव के प्रथम चरण में मात्र 61 फीसदी मतदान ने भाजपा की नींद उड़ा दी है। पार्टी ने अधिक से अधिक मतदान के लिए जो फार्मूला अपनाया था वह फेल हो गया। यानी ‘त्रिदेव’ और ‘पन्ना प्रमुख’ काम नहीं आए। इस कारण 11 नगर निगमों सहित 133 नगरीय निकायों में पिछली बार की अपेक्षा कम मतदान हुआ है। इससे आशंका जताई जा रही है की भाजपा को इसका खामियाजा उठाना पड़ सकता है। गौरतलब है कि भाजपा ने अपने ‘त्रिदेव’ अभियान को लेकर खूब ढिंढोरा पीटा था और प्रत्येक बूथ पर बूथ अध्यक्ष, महामंत्री तथा बीएलए बनाकर उन्हें मतदाता सूची की जांच करने का काम सौंपा था। इसके साथ ही हर मतदाता सूची के ‘पन्ना प्रमुख’ बनाए गए थे और उनसे कहा था कि मतदाता सूची को ठीक तरह से जांच लें, ताकि मतदान के दौरान किसी प्रकार की कोई परेशानी न हो। इस अभियान के प्रचार की आड़ में कई नेताओं ने अपने-अपने क्षेत्र की मतदाता सूचियों को लेकर भाजपा संगठन को आश्वस्त किया था कि उनके यहां मतदाता सूची ठीक है, लेकिन 6 जुलाई को जब मतदान हुआ तो उसने त्रिदेव अभियान की पोल खोलकर रख दी। कई मतदाताओं के नाम सूची में नहीं मिले, जो त्रिदेव मतदाताओं की मदद के लिए मतदान केन्द्र के बाहर मौजूद थे, वे ही मतदाता सूची से उनके नाम नहीं निकाल पाए। अब भाजपा के बड़े नेता भी आरोप लगा रहे हैं कि कई नाम बिना बताए ही मतदाता सूची से डिलीट कर दिए गए। नगरीय निकायों के प्रथम चरण के मतदान में पार्टी का बूथ मैनेजमेंट फॉर्मूला भी बेअसर साबित हुआ। मतदान के एक दिन पहले तक बूथ त्रिदेवों के भरोसे बनाई गई रणनीति भी सफल नहीं हो पाई। मतदान के दौरान त्रिदेव और पन्ना प्रमुख खुद ही चुनाव में व्यस्त होकर बिखरे-बिखरे रहे। इस वजह से पार्टी का मेरा बूथ सबसे मजबूत जैसा नारा महज जुमला ही साबित हुआ। भाजपा संगठन ने वोट प्रतिशत बढ़ाने के लिए हर जिले में विधायकों को भी तैनात किया था। सभी जिलों में हर बूथ पर पार्टी के पक्ष में 10 फीसदी वोट बढ़ाने का टॉरगेट रखा था। बड़े शहरों में चुनाव के दौरान सांसद-विधायक इसके लिए डटे भी रहे इसके बावजूद प्रदेश के सभी जिलों में औसत मतदान प्रतिशत कम ही रहा। बड़े शहरों में तमाम प्रयासों के बावजूद पोलिंग प्रतिशत नहीं बढ़ पाया। राजधानी भोपाल के गोविंदपुरा, हुजूर, उत्तर और मध्य विधानसभा क्षेत्र के मतदान से पार्टी चिंतित है। संगठन इसके लिए अब पार्टी पदाधिकारियों और विधायकों से पूछताछ भी कर रहा है। भाजपा सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार जिलों में कई बूथों के त्रिदेव स्वयं अथवा उनके परिजन भी पंचायत अथवा निकाय चुनाव लड़ रहे हैं इसलिए वे अपने वोटरों को मनाने में व्यस्त रहे। पन्ना प्रमुख भी बिखरे-बिखरे रहे। इसके अलावा बारिश का मौसम, मतदान पर्चियां वितरित न होने और मतदान केंद्र बदल जाने से भी लोगों ने वोट डालने में रुचि नहीं दिखाई। भाजपा के प्रदेश प्रभारी मुरलीधर राव ने स्वयं इस मुद्दे पर जिलाध्यक्ष, जिला प्रभारियों और बूथ त्रिदेवों के साथ रूबरू चर्चा कर पूरी रणनीति समझाई थी। लेकिन निकाय पंचायत चुनाव में पार्टी का यह फार्मूला विफल साबित हुआ। बूथ अध्यक्ष, महामंत्री और पोलिंग एजेंट्स (त्रिदेव) ने गंभीरता से काम नहीं किया। भाजपा संगठन ने दूसरे चरण के जिलों और 5 नगर निगमों के लिए अभी से विशेष इंतजाम करने को कहा है। नगर निगमों में ग्वालियर, खंडवा, सिंगरौली, बुरहानपुर और छिंदवाड़ा के मतदाताओं ने इस बार चुनाव में ज्यादा रुचि नहीं दिखाई। कहीं-कहीं तो मतदान प्रतिशत 10 फीसदी तक गिर गया है।

बूथ विस्तारक पर भी उठे सवाल

भाजपा का प्रदेश में बूथ विस्तारक और त्रिदेव के नाम से शुरू किया गया प्रयोग पहले ही चुनाव में फेल नजर आया। इस प्रयोग का बड़े स्तर पर प्रचार-प्रसार किया गया था और बूथ लेवल तक ट्रेनिंग प्रोग्राम रखे गए थे, लेकिन जिस तरह से मतदाता सूची में गड़बडिय़ां सामने आईं, उसने इस अभियान की पोल खोलकर रख दी। भाजपा ने इस साल की शुरुआत में समर्पण निधि अभियान के साथ-साथ बूथ विस्तारक अभियान चलाया था। इस अभियान के तहत एक-एक वरिष्ठ नेता को बूथ विस्तारक बनाकर बूथ पर भेजा गया था, जहां उसे बूथ की समितियां बनाना थीं और उसे ऑनलाइन पोर्टल पर लोड करना था। बूथ समिति का उद्देश्य उस बूथ के अंतर्गत रहने वाले मतदाताओं की जानकारी रखना था और उनसे लगातार संपर्क में रहना था। उस समय दावे तो खूब किए गए कि अभियान सफल हो गया है। इसके लिए नेताओं ने अपनी पीठ भी थपथपाई। इसके बाद हर बूथ पर त्रिदेव के रूप में अध्यक्ष, महामंत्री और भाजपा की ओर से बीएलए बनाया गया। बूथ पर 20 लोगों की समिति भी तैयार हो गई, जिनका काम ही मतदाता सूची की जांच करना था और मतदाताओं को भाजपा से जोडऩा था, लेकिन इसका परिणाम उलटा हुआ और कई लोगों के नाम सूची से कट गए, जिसकी भनक भाजपा तक को लग नहीं पाई। अब भाजपा इसकी समीक्षा करने की बात कह रही है। समीक्षा के दौरान पदाधिकारियों से सवाल भी किए जाएंगे कि गड़बड़ी आखिर कहां हुई?
1984 बैच के आईएएस अधिकारी व प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव बीपी सिंह भाजपा के निशाने पर हैं। इस बार मतदाता सूची में कांटछांट और कम मतदान के कारण उनकी किरकिरी हो रही है। पूरे कॅरियर में ठकुराई भरे अंदाज में काम करने वाले बसंत प्रताप सिंह के लिए यह विवाद रूचिकर नहीं है। दरबसल छह साल बाद हो रहे इन चुनावों को विधानसभा चुनाव 2023 का सेमीफाइनल माना जा रहा है। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में ग्रामीण क्षेत्रों से मिले रूझान बीजेपी के अनुकूल नहीं माने जा रहे हैं। यही कारण है कि पार्टी ने नगर पालिका व नगर निगम चुनाव में पूरी ताकत झोंक दी है। लेकिन, पहले चरण में मतदान का प्रतिशत घटने से बीजेपी में चिंता गहरा गई है। आंकड़े बताते हैं कि भोपाल में जब जब 50 प्रतिशत से कम मतदान हुआ है तब तब कांग्रेस का महापौर प्रत्याशी जीता है। बीजेपी के लिए 50 प्रतिशत से अधिक का मतदान मुफिद होता है। इस लिहाज से भोपाल सहित अन्य क्षेत्रों में मतदान कम होने से बीजेपी में फिक्र बढ़ गई कि मतदान घटने का प्रभाव उसके खिलाफ न जाए। यही कारण है कि पार्टी ने चुनाव आयुक्त को पत्र लिखकर अपनी नाराजगी बताई। पार्टी के प्रतिनिधि मंडल ने तुरत फुरत चुनाव आयुक्त बीपी सिंह से भेंट कर उन्हें आगामी चरण के लिए कुछ उपाय सुझाए हैं। बीजेपी नेताओं की इस सक्रियता और सोशल मीडिया पर आलोचना से चुनाव आयुक्त बसंत प्रताप सिंह अचानक सुर्खियों में आ गए हैं। पूर्व मुख्य सचिव बीपी सिंह पूरे कॅरियर में एक दो मसलों के अलावा कभी इतने बड़े विवाद से नहीं घिरे कि उनकी कार्यप्रणाली पर ही सवाल उठने लगे। सोशल मीडिया पर कांग्रेस और बीजेपी के हमलावर रूख के बाद जब बीजेपी के प्रतिनिधि मंडल ने ज्ञापन देते हुए सवाल उठाया कि राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा मतदाताओं को जागरूक करने के लिए कोई ठोस कार्यक्रम क्?यों नहीं चलाया? जिन मतदाताओं के नाम मतदाता सूचियों में थे उनमें से अधिकांश मतदाताओं को मतदाता पर्चियां प्राप्त नहीं हुई है, जिसके कारण हजारों की संख्या में मतदाता मतदान के अधिकार से वंचित रह गए। विधानसभा चुनाव के मतदान केंद्र बिना सूचना के विभाजित कर दिए गए। इस कारण मतदाताओं को मतदान करने के लिए भटकना पड़ा।

सियासी दलों के समीकरण बिगड़े

मध्य प्रदेश में नगरीय निकाय चुनाव के पहले चरण में कम मतदान ने सियासी दलों सहित राजनीतिक पंडितों के समीकरण बिगाड़ दिए हैं। हार जीत का आंकलन और भविष्यवाणी भी गड़बड़ा गयी है। कम मतदान में कांग्रेस को अपनी जीत और बीजेपी को हार नजर आ रही है। राजनीतिक पंडित अपना गुणा:भाग कर रहे हैं और बीजेपी दूसरे चरण में ज्यादा मतदान का भरसक प्रयास करा रही है। 11 नगर निगम सहित 133 नगरीय निकाय चुनाव में कम वोटिंग के बाद अब हार जीत का आंकलन भी नये सिरे से हो रहा है। कांग्रेस कम मतदान में अपनी जीत की संभावना तलाश रही है। बीजेपी भी कम मतदान से घबरा गयी है। वो इसके लिए मतदाता सूची और मतदाता पर्ची में गड़बड़ी को जिम्मेदार ठहरा रही है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने मतदान प्रतिशत कम होने पर भी मतदाताओं का आभार जताया है। कमलनाथ ने ट्वीट कर नगरी निकाय चुनाव के पहले चरण में मतदाताओं के मतदान और कांग्रेस पार्टी को समर्थन देने की बात कहकर सभी मतदाताओं का आभार व्यक्त किया। कांग्रेस पार्टी का कहना है राज्य निर्वाचन आयोग के प्रचार प्रसार में कमी और अपील नहीं करने की वजह से मतदान के प्रतिशत में कमी आई है। बीजेपी से नाराज मतदाता वोट करने नहीं निकला। लेकिन कांग्रेस को नगरीय निकाय चुनाव में जीत का पूरा भरोसा है। वोटिंग के कम प्रतिशत के बावजूद कांग्रेस को जीत मिलना तय है।
दूसरी तरफ बीजेपी कम मतदान होने से हैरान परेशान है। यही वजह रही कि बीजेपी के प्रतिनिधि दल ने राज्य निर्वाचन आयोग में जाकर अपनी शिकायत दर्ज करायी। बीजेपी ने घर-घर मतदाता पर्ची नहीं पहुंचने पर आपत्ति जताई। उसने नगरीय निकाय के दूसरे चरण में आयोग से जरूरी कदम उठाने की भी मांग की है। बीजेपी प्रवक्ता दुर्गेश केसवानी ने जानकारी दी कि भाजपा दूसरे चरण के चुनाव में मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए हर घर तक मतदाता पर्ची पहुंचाएगी। हालांकि बीजेपी उम्मीद है कि कम मतदान के बावजूद जीत उसी की होगी। मध्य प्रदेश के ग्यारह नगर निगम में हुए चुनाव में सबसे ज्यादा छिंदवाड़ा और बुरहानपुर में 68 फ़ीसदी मतदान हुआ। सबसे कम ग्वालियर नगर निगम में 49 फ़ीसदी मतदान हुआ। भोपाल में तो हद ही हो गयी। यहां सिर्फ 51 फीसदी लोग मतदान करने निकले। जो पिछले चुनाव के मुकाबले 4.2 कम रहा। भोपाल में 51, इंदौर में 60, जबलपुर 60, ग्वालियर 49, उज्जैन 59, सागर 60, सतना 63, सिंगरौली 52, छिंदवाड़ा 68, खंडवा 55, बुरहानपुर में 68 फ़ीसदी मतदान हुआ। लेकिन मतदान के कम प्रतिशत से किसको फायदा होगा इसके नतीजे 17 जुलाई को आएंगे।

मतदाता-सूची पर अब दोनों दल नाखुश

तमाम मुद्दों पर एक दूसरे के विरोधी रहने वाले दोनों प्रमुख राजनीतिक दल भाजपा और कांग्रेस मतदाता सूची के मुद्दे पर एक होते नजर आ रहा है। नगर निगम निर्वाचन की मतदाता सूची में सरकार और भाजपा ने पहले उसकी शिकायतों को राजनीतिक स्वार्थ के चलते खारिज किया। नतीजा सामने है। कांग्रेस ने मतदाता सूची में धांधली का आरोप लगते हुए जिम्मेदार अधिकारियों पर आपराधिक प्रकरण दर्ज करने की मांग रख दी है। कांग्रेस के प्रवक्ता और एडवोकेट रवि गुरनानी ने कहा कि मध्य प्रदेश निर्वाचन आयोग ने भी मतदान दिवस से तीन दिन पूर्व मतदाता सूची दुरुस्त करने के आदेश दिए थे जिसका भी पालन रजिस्ट्रीकरण अधिकारियों ने नहीं किया ऐसे दोषी अधिकारियों पर तुरंत आपराधिक प्रकरण दर्ज होना चाहिए।
मप्र के निकाय चुनाव के पहले चरण में कम मतदान पर भाजपा के केंद्रीय कार्यालय ने रिपोर्ट मांगी है। उसके बाद पार्टी के अंदर इसके जवाब तलाशे जा रहे हैं, क्योंकि आलाकमान ने मप्र को दस फीसदी वोट शेयर बढ़ाने का टारगेट दिया था। उलटा मतदान घट गया। वहीं मप्र के निकाय चुनाव में भाजपा कम वोटिंग की बड़ी वजह प्रशासनिक स्तर पर जबलपुर, भोपाल, ग्वालियर, छिंदवाड़ा, सागर और सिंगरौली की प्रशासनिक मशीनरी की विफलता को मान रही है। इन जगहों पर मतदाता पर्चियों का नहीं बांटा जाना कम मतदान की प्रमुख वजह के रूप में सामने आया है। इन जगहों पर कालोनियों से मतदान केंद्र को दूर स्थानों पर बनाना और वोटर लिस्ट में एक ही कालोनी के वोटर्स के नाम अलग-अलग मतदान केंद्रों पर रहे। इस झमेले के बाद अब इन 6 जिलों के कलेक्टरों और उनके उपनिर्वाचन अधिकारियों को सरकार चुनाव बाद बदलने जा रही है। सूत्रों ने कहा कि सरकार की ओर से उन्हें इस गड़बड़ी का अंजाम भुगतने को तैयार रहने को कहा गया है। अब तक की पड़ताल में इस नाकामी के जो प्रमुख कारण सामने आ रहे हैं, उनमें बूथ विस्तारक योजना पर पैनी नजर का अभाव, विधायक और उनके परिचितों तथा परिजनों का पंचायत-निकाय चुनाव में व्यस्त होना और अन्य सबसे महत्वपूर्ण कारण निचले स्तर तक हर काम में युवा हिस्सेदारी 80 से 90 फीसदी तक बढ़ाना रहा है। पार्टी का आकलन है कि भले ही वह अधिक से अधिक सीटें जीतती है, लेकिन कम मतदान के बाद उसके वोट शेयर में कमी आएगी। ऐसे में वह कैसे आलाकमान को संतुष्ट करेंगे। वह भी तब, जबकि राज्य में पार्टी इस वर्ष को संगठन पर्व के रूप में मना रही है। उसने बूथ से जुड़ा कार्यक्रम चलाया और तीन लोगों की त्रिदेव नाम से टीम बनाई।

चुनाव को लेकर शह-मात

प्रदेश के नगरीय क्षेत्रों में भाजपा का प्रभुत्व रहा है। दिसंबर 2014 में हुए चुनाव में सभी 16 नगर निगमों में भाजपा के ही महापौर चुने गए थे। नगर पालिकाओं और नगर परिषदों के ज्यादातर अध्यक्ष भी भाजपा के ही रहे हैं। वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद जब कांग्रेस सत्ता में आई तो कमलनाथ सरकार ने सुनियोजित तरीके से नगरीय निकायों में नगर पालिक विधि में संशोधन करके महापौर एवं निकायों के अध्यक्ष का चुनाव अप्रत्यक्ष प्रणाली से कराने का प्रविधान कर दिया। इसमें महापौर और अध्यक्ष का चुनाव सीधे जनता की जगह पार्षदों के माध्यम से कराने की व्यवस्था बनाई गई थी। मकसद साफ था कि जनता पार्षद चुनेगी और फिर पार्षदों में से कोई महापौर और अध्यक्ष बनेगा। इसमें जोड़-तोड़ के जरिये सरकार अपनी पसंद का महापौर बनाने में सफल हो सकती थी। भाजपा ने कांग्रेस की मंशा को समझ लिया और इसका पुरजोर विरोध किया। उसने तत्कालीन राज्यपाल लालजी टंडन से मिलकर इसे लोकतंत्र के लिए अनुचित मानते हुए अनुरोध किया कि अध्यादेश को अनुमति न दें। संविधानिक व्यवस्था के चलते ऐसा नहीं हो पाया और राज्यपाल ने सरकार के प्रस्ताव को अनुमति दे दी। बाद में कानूनी अड़चनों के कारण समय पर चुनाव नहीं हो पाए। मार्च 2020 में सत्ता परिवर्तन के बाद शिवराज सरकार ने कांग्रेस सरकार द्वारा बनाए गए अधिनियम में संशोधन के लिए विधेयक का प्रारूप तैयार कराया। इसे विधानसभा में प्रस्तुत भी कर दिया लेकिन समयपूर्व सत्रावसान होने के कारण यह पारित नहीं हो सका। इस तरह कांग्रेस सरकार के समय लागू की गई अप्रत्यक्ष चुनाव की प्रणाली प्रभावी रही। हालांकि निकायों में आरक्षण मामला सुप्रीम कोर्ट में चले जाने के कारण चुनाव कानूनी अड़चनों में फंस गया।
इस वर्ष मई माह में जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव का रास्ता साफ हो गया तो आनन-फानन में शिवराज सरकार ने अध्यादेश के माध्यम से महापौर का चुनाव प्रत्यक्ष प्रणाली यानी सीधे जनता के माध्यम से कराने की व्यवस्था लागू कर दी। नगर पालिका और नगर परिषद के अध्यक्ष जरूर पुरानी व्यवस्था यानी पार्षदों के माध्यम से ही चुने जाएंगे। विधानसभा चुनाव के पूर्व हो रहे इन चुनाव की महत्ता को देखते हुए भाजपा विशेष एहतियात बरत रही है। टिकट वितरण में नए चेहरों को प्राथमिकता देकर उसने साफ संदेश दिया कि परिवारवाद नहीं चलेगा और पीढ़ी परिवर्तन का सिलसिला आगे भी चलता रहेगा। जिन प्रत्याशियों के परिजनों की आपराधिक पृष्ठभूमि की जानकारी बात में लगी उनके टिकट मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने संगठन पदाधिकारियों से बात करके कटवा दिए। इंदौर में एक और भोपाल में दो ऐसे प्रत्याशियों के टिकट काटे गए जिन्हें स्थानीय मंत्रियों एवं विधायकों की पैरवी पर प्रत्याशी बनाया गया था। मुख्यमंत्री ने संदेश दे दिया कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को किसी भी स्थिति में आगे नहीं बढ़ाया जाएगा। इस प्रयोग के परिणाम जो भी आएं लेकिन जनता और कार्यकर्ताओं के बीच इसका अच्छा संदेश गया है