नरेंद्र मोदी विपक्ष को एक ख़तरनाक जाल में उलझाए रखने में सफल रहे हैं और उन्हें भाजपा के ख़िलाफ़ संयुक्त मोर्चे की राह से दूर रहने को मजबूर कर दिया है. लेकिन सवाल यह है- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कब तक लोगों को असली मुद्दों से दूर रखने में सफल रहेंगे?
भाजपा और नरेंद्र मोदी को इंडिया गठबंधन से झटका मिला, जब विपक्षी दलों ने एकजुट होकर पार्टी को लगातार तीसरे चुनाव में बहुमत से रोक दिया. सभी को लगा कि मोदी को विनम्रता का स्वाद मिल गया है, इसलिए उनके लिए यह और भी महत्वपूर्ण हो गया कि वे दिखाएं कि नीतीश कुमार और एन. चंद्रबाबू नायडू जैसे सहयोगियों पर उनकी बढ़ती निर्भरता के बावजूद वे पूरी तरह नियंत्रण में हैं.
वक़्फ़ संशोधन अधिनियम मोदी के 11 साल के शासन में शायद पहला ऐसा विधेयक था, जिस पर संसद में व्यापक रूप से चर्चा हुई. यह पिछले विधेयकों की तरह लोकसभा में भाजपा के संख्याबल यानी क्रूर ताकत के चलते बिना किसी चर्चा के पारित नहीं हुआ, जैसे अनुच्छेद 370 को खत्म करना, या ट्रिपल तलाक को अपराध बनाना, या ऐसे कई अन्य कानूनोंं के पारित होने के दौरान देखा गया था.
वक़्फ़ विधेयक भाजपा के दीर्घकालिक हिंदुत्व प्रोजेक्ट को बढ़ावा देने के रूप में सामने आया. यह विधेयक मुसलमानों के खिलाफ था, लेकिन भाजपा ने इसे मुस्लिम समुदाय के लिए एक प्रगतिशील कानून के रूप में पेश किया. विडंबना देखिए, भाजपा ने दावा किया था कि यह मुस्लिम समुदाय के लिए सुधारात्मक कानून है, लेकिन एक भी मुस्लिम सांसद इसके पक्ष में नहीं था. भाजपा के एकमात्र मुस्लिम सांसद गुलाम अली ने इस मामले पर बात की, लेकिन बिल के बचाव में एक भी शब्द नहीं कहा. इसके बजाय, उन्होंने कांग्रेस पर हमला करने के लिए इस अवसर को चुना.
यह कानून मोदी के लिए यह दिखाने का एक अवसर भी था कि संसद में उनकी कम संख्या के बावजूद, उनके पास अभी भी बड़े फैसले लेने की राजनीतिक ताकत है. वे जनता दल (यूनाइटेड), तेलुगु देशम पार्टी, लोक जन शक्ति पार्टी जैसे अपने धर्मनिरपेक्ष सहयोगियों और यहां तक कि कुछ हद तक बीजू जनता दल जैसे तटस्थ दलों को भी अपनी पार्टी के पक्ष में वोट देने के लिए प्रेरित कर सकते हैं.
वक़्फ़ बिल दरअसल मोदी का विपक्ष को यह बताने का तरीका था कि संसद के बाहर और अंदर, दोनों ही जगह वे सबसे ताकतवर हैं. मोदी का शक्ति प्रदर्शन ऐसे समय हुआ जब उनकी लोकप्रियता में गिरावट आ रही है. भारतीय अर्थव्यवस्था कमज़ोर हो रही है और ट्रंप के विध्वंसकारी टैरिफ़ के कारण वैश्विक आर्थिक व्यवस्था पटरी से उतर रही है.
गौर करें, मोदी जनगणना कराने या महिला आरक्षण विधेयक को लागू करने में विफल रहे हैं. द्रविड़ पार्टियों ने भाजपा के भगवाकरण प्रोजेक्ट के खिलाफ़ अपना विरोध तेज़ कर दिया है और अदालतों ने केंद्र सरकार के सत्तावादी कदमों पर सवाल उठाना शुरू कर दिया है. तमिलनाडु सरकार के विधेयकों को “अवैध” तरीके से रोकने के लिए तमिलनाडु के राज्यपाल पर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही फैसला दिया है.
दूसरी तरफ़, भाजपा को अपने चुनावी वादों को पूरा करने में संघर्ष करना पड़ रहा है. क्या किसी को महाराष्ट्र में भाजपा के लड़की बहन योजना के बहुचर्चित भत्ते याद हैं? प्रधानमंत्री नहीं चाहते कि लोग इन मुद्दों पर बात करें. इसलिए, उन्होंने हिंदुत्व आक्रामकता और बाहुबली राष्ट्रवाद के पुराने मिश्रण का सहारा लिया है.
यह न केवल एक ध्यान भटकाने वाली रणनीति है, बल्कि भारत के संस्थागत ढांचे पर उनके नियंत्रण का संकेत देने की कवायद भी है. इसके मूल में वह संदेश है जिसे दुनिया भर में लगभग हर सर्वसत्तावादी नेता ने इस्तेमाल किया है: TINA यानी there is no alternate फैक्टर, कि ‘कोई विकल्प नहीं है.’
बेशक, उन्हें बिखरी हुई विपक्षी ताकतों से मदद मिली है. मोदी का विरोध करने के लिए बना ‘इंडिया’ ब्लॉक बिखर गया है और इसके नेता एक-दूसरे के खिलाफ बोलते नजर आते हैं. जुलाई 2024 के बाद ‘इंडिया’ ब्लॉक के शीर्ष नेताओं की एक भी बैठक नहीं हुई है. विपक्षी खेमे में एकमात्र अपवाद डीएमके हो सकता है, जिसने भाजपा को अपने राज्य में किनारे कर रखा है. वक़्फ़ विधेयक पर चर्चा के दौरान ‘इंडिया’ ब्लॉक लंबे समय के बाद संयुक्त विरोध करने के लिए एक साथ आया, लेकिन उनके पास कोई दीर्घकालीन योजना नहीं है. इसलिए नरेंद्र मोदी विपक्ष को एक खतरनाक जाल में उलझाए रखने में सफल रहे हैं.
लेकिन सवाल यह है- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कब तक लोगों को असली मुद्दों से दूर रखने में सफल रहेंगे? बदलती वैश्विक व्यवस्था निश्चित रूप से उनके पक्ष में जाती नहीं दिख रही है.