महापौर चुनाव: बराबरी पर खड़ी हो गई… भाजपा और कांग्रेस

भोपाल/मंगल भारत।मनीष द्विवेदी। प्रदेश में नगरीय निकाय

चुनाव में बड़े शहरों के मतदाताओं का मूड क्या है अब सामने आ चुका है। मतदाताओं ने एक बार फिर से विधानसभा आम चुनाव 2018 की भांती ही जनादेश देकर दोनों प्रमुख राजनैतिक दल कांग्रेस व भाजपा को बराबरी पर ला खड़ा किया है। आंकड़ों के हिसाब से जरुर भाजपा को बढ़त मिली है , लेकिन अगर दो नगर निगम उज्जैन ओर बुरहानपुर की स्थिति देखी जाए तो इन दोनों ही जगहों पर जिस तरह से हार-जीत का बेहद मामूली अंतर रहा है उससे वहां पर कांगेस को हारा हुआ तो कतई नही माना जा सकता है। यह बात अलग है की जीत तो जीत होती है, लेकिन बड़े शहरों के मतदाताओं ने जरुर सत्तारुढ़ दल को जता दिया है की अब भी मौका है, खामियां दूर करने का , माननीयों की प्रेशर पॉलिटिक्स से बाहर निकलने का, देवतुल्य कार्यकर्ताओं का ध्यान रखने का, बेलगाम नौकरशाही की मुसकें कसने का और जनाधार विहिन नेताओं को पीछे धकेलने का। अन्यथा एक बार फिर परिणाम इससे आगे भी आ सकते हैं। दरअसल प्रदेश में अब तक दो दलीय राजनीति ही रही है , लेकिन अब जनता के पास नए विकल्प भी खुल रहे हैं। फिर भले ही आम आदमी पार्टी हो या फिर असदुद्दीन औबेसी की एआइएमआइएम।
इनमें से आप ने तो धमाकेदार आगाज सिंगरौली में महापौर की सीट जीतकर कर ही दिया है। यही नहीं इस दल के करीब आधा सैकड़ा पार्षद भी कई निकायों में जीतकर आए हैं। उधर, औबेसी की पार्टी ने भी कांग्रेस को जता दिया है की अब उनके स्थाई बड़े मुस्लिम वोटबैंक के पास भी विकल्प मौजूद है। दरअसल प्रदेश के छह अंचलों में से तीन -तीन अंचलों के महानगरों पर भाजपा व कांग्रेस के महापौर प्रत्याशियों ने जीत दर्ज की है। इनमें महाकोशल , विंध्य और ग्वालियर चंबल में कांग्रेस तो बुंदेलखंड , मध्य भारत और मालवा पर भाजपा की जीत हुई है। इनमें भी मालवा निमाड़ के तहत आने वाले उज्जैन और बुरहानपुर में भाजपा की जीत पर तो सवाल खड़े हो रहे हैं। अगर बुरहानपुर में औबेसी की पार्टी मैदान में नहीं होती तो कांग्रेस की जीत तय थी। वैसे भी कांग्रेस को यहां पर महज करीब तीन सौ मतों से ही हार का सामना करना पड़ा है। इस हिसाब से देख जाए तो भाजपा को यहां पर भी नुकसान ही हुआ है। भाजपा के लिए यह चुनाव परिणाम ऐसे समय आए हैं , जबकी प्रदेश में भाजपा अपने पितृ पुरुष स्व कुशाभाऊ ठाकरे के शताब्दी वर्ष को संगठन पर्व के रुप में मना रही है। इसके तहत प्रदेश में बीते एक साल से कई तरह के कार्यक्रम चलाए गए हैं और पार्टी का पूरा फोकस दस फीसदी मत वृद्वि पर बना हुआ है। मत बढ़ने की जगह कम जरुर होते दिख रहे हैं। अब चुनाव परिणाम आ चुके हैं तो , यह तय है की भाजपा संगठन इस प्रदर्शन को लेकर चिंतन मनन भी करेगा, क्योंकि यह प्रथा भाजपा में पुरानी है, लेकिन इससे सबक लेगा इस पर सभी की निगाहें बनी हुई हैं। दरअसल अब तक जो कहा जा रहा है उसके मुताबिक भाजपा को तीन अंचलों के बड़े शहरों में मिली हार की बड़ी वजह उसके ही अपने बड़े और दिग्गज नेता ही हैं। इन नेताओं ने ही कार्यकर्ताओं के साथ ही जनभावनाओं को नजर अंदाज कर अपनी पसंद और नापसंद के आधार पर प्रत्याशी तय करवाए थे। यह वे बड़े नेता हैं , जो सरकार से लेकर संगठन तक में अति प्रभावशाली होने की वजह से बड़े नेता माने जाते हैं। भाजपा के लिए सबसे बड़ी चिंता की वजह ग्वालियर-चंबल अंचल बन गया है। इसकी वजह है इस अंचल से ही शिव मंत्रिमंडल, निगम मंडल और संगठन तक में दिग्गजों की भारी भीड़ बनी हुई है। पार्टी ने ग्वालियर और मुरैना में केन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर की पंसद के आधार पर प्रत्याशी मैदान में उतारे थे , लेकिन वे दोनों ही खेत रहे हैं। दरअसल तोमर को पार्टी में राष्ट्रीय स्तर का नेता माना जाता है ,लेकिन अगर उनके खुद के लोकसभा चुनावों पर नजर डालें तो प्रदेश के ऐसे नेता हैं , जो लगातार न केवल संसदीय सीट बदलकर चुनाव में उतरते रहे हैं , बल्कि मोदी लहर की सुनामी में भी पार्टी के प्रदेश में सबसे कम मतों से जीतकर लोकसभा पहुंचते रहे हैं। इसके बाद भी पार्टी से लेकर सरकार तक में उनका कद कम होने की जगह बढ़या जाता रहा है। दरअसल वे ऐसे नेता हैं जिन्हें पार्टी से अधिक अपने समाज का नेता माना जाता है , जिसकी वजह से अन्य समाज के लोगों को समर्थन पूरी तरह से नहीं मिल पता है। यही नहीं उन्हें लगातार अपना चुनाव क्षेत्र क्यों बदलना पड़ता है, इसको लेकर भी हमेशा चुनाव के समय चर्चा में बने रहते हैं। मुरैना उनका खुद का संसदीय इलाका है ,जहां पर कांगे्रेस ने जीत दर्ज की है तो वहीं ग्वालियर में उनका निवास है, वहां पर भी पार्टी को तो पहली बार हार का सामना करना पड़ा है। उनकी पंसद के आधार पर ही पार्टी ने पूर्व विधायक की बहू सुमन शर्मा को मैदान में उतारा था। इन दोनों ही प्रत्याशियों की जीत के लिए पार्टी के तमाम बड़े नेताओं ने भोपाल से लेकर ग्वालियर तक का सफर एक दो बार नहीं बल्कि कई -कई बार किया। इसके बाद भी वे तमाम नेता पूरी तरह से सक्रिय नहीं हो सके जो तोमर की अंचल में एक तरफा चलने की वजह से खुद को उपेक्षित मान रहे हैं। इसके अलावा इस अंचल के दूसरे बड़े नेता श्रीमंत भी अपना प्रभाव दिखने में असफल रहे हैं। यह बात अलग है की दोनों महापौर पद के प्रत्याशी चयन में उनकी मर्जी का ख्याल नहीं रखा गया है। लगभग यही हाल ग्वालियर शहर में रहा है। ग्वालियर में मिली हार से पार्टी हाईकमान तक नाराज बताए जा रहे हैं। दरअसल यह वो शाहर है जहां पर पांच दशक बाद पार्टी के प्रत्याशी को बड़ी हार का सामना पहली बार करना पड़ा है। कांग्रेस की सरकार में भी शहर में भाजपा का ही महापौर बनता रहा है।
तो 15 नगर निगम में होते भाजपा के महापौर
कमलनाथ सरकार द्वारा महापौर, नगर पालिका और नगर परिषद अध्यक्ष के चुनाव को अप्रत्यक्ष तरीके यानि पार्षदों के जरिए कराने का अध्यादेश लाया गया था, जिसका भाजपा ने जमकर विरोध किया था। नगर निकाय में सीधे अध्यक्ष के चुनाव कराने के फैसले के खिलाफ उस समय के महापौर तत्कालीन राज्यपाल लालजी टंडन से मिले थे। बीजेपी ने इसे लेकर मोर्चा तक खोल रखा था। इसके बाद भाजपा की सरकार बनी तो नाथ का फैसला बदलकर महापौर का चुनाव प्रत्यक्ष तरीके से कराने का तय कर लिया गया। अगर सरकार इस फैसले को नहीं बदलती तो नगर निगमों में जीते भाजपा पार्षदों की संख्या को देखते हुए 15 नगर निगमों में भाजपा के महापौर का चुना जाना तय हो जाता ।